भारतीय
राष्ट्रीय
सौर
कैलेंडर
-
भाग
२
पिछले
लेखमें
हमने
देखा
कि
भारतमें
ब्रिटिश
राजसे
पूर्व
कालगणनाके
लिये
सांवत्सर
तथा
चांद्रपंचांग
दोनों
प्रचलित
थे।
उनके
आधारपर
सौर
मंडलकी
गतिविधियाँ,
महीने,
ऋतु,
मौसमी
चक्र,
साप्ताहिक
हवाएँ,
कृषिहेतु
कार्य
आदि
जाने
जाते
थे।
जनसामान्यके
लिये
चांद्रपंचांग
अधिक
सरल
था
क्योंकि
चंद्रमाकी
स्थितियाँ
प्रतिदिन
देखी
जा
सकती
थीं।
यह
प्रथा
अठारहवीं
शताब्दी
तक
चलती
रही।
ब्रिटिश
शासनके
बाद
देशमें
अंग्रेजी
कैलेंडर
लागू
किया
गया
और
भारतीय
पंचांगको
रद्द
घोषित
किया।
अगले
दो
सौ
वर्षतक
अर्थात
लगभग
८
पीढीयोंतक
हमारे
व्यवहार
ग्रेगॅरियन
कॅलेण्डरसे
ही
चलते
रहे।
हालाँकि
पंचांगोंका
गणित
और
छपाई
कायम
रहे,
लोगोंके
पर्वत्यौहार
भी
पुरानी
गणनानुसार
ही
चलते
रहे,
लेकिन
हर
अगली
पीढ़ी
इसके
बारेमें
थोडा
थोड़ा
भूल
रही
थी।
आधुनिकताकी
ओर
झुकनेवाले
पंचांगमें
निहित
वैश्विक
गणितको
ठुकराने
और
उसे
अंधविश्वास
बतानेमें
ही
धन्यता
मानने
लगे।
फिर
भी
देशमें
एक
मण्डली
थी
जो
पंचांगोंका
अध्ययन
करने
और
अगले
वर्षके
अचूक
पंचांगको
बनानेमें
कुशल
थी।
इनसे
परे
ऐसे
सक्षम
विद्वान
भी
थे
जो
पंचांगके
गणितमें
होनेवाले
सूक्ष्म
परिवर्तनोंका
भान
रखते
हुए
उपयुक्त
सुधार
कर
सकते
थे।
श्री
लोकमान्य
तिलक,
शंकर
बालकृष्ण
दीक्षित,
माधवचंद्र
चट्टोपाध्याय,
संपूर्णानंद,
पं
मदनमोहन
मालवीय,
आदिने
पंचांगोंकी
कालगणनामें
कई
सुधार
किए।
इससे
ज्ञात
होता
है
कि
भारतमें
पंचांगोंकी
समझ
व
परंपरा
कितनी
गहराईसे
समाहित
हैं।
१९४७
में
ब्रिटिशराजसे
मुक्त
होनेपर
भारतने
अंगरेजी
प्रतीकोंको
दूर
करते
हुए
राष्ट्रीय
प्रतीकोंको
अपनाया।
उदाहरणस्वरूप
राष्ट्रीय
ध्वज,
राष्ट्रगान
आदि।
तभी
अपने
देशका
एक
अपना
राष्ट्रीय
कैलेंडर
हो
यह
विचार
सामने
आया
उन
दिनों
भारतमें
लगभग
तीस
विभिन्न
पंचांगपद्धतियाँ
थीं।
उनका
अध्ययन
कर
पूरे
देशके
लिये
एक
राष्ट्रीय
कैलेंडर
बनानेहेतु
संसदने
एक
समिति
गठित
की।
इसके
पीछे
यह
भावना
थी
कि
पूरे
भारतमें
एकही
कैलेंडर
हो
जिसमें
भारतीयोंकी
अस्मिता
व
एकात्मताका
दर्शन
हो।
तत्कालीन
प्रधान
मंत्री,
पंडित
जवाहरलाल
नेहरूके
सुझावपर
सीएसआयआर
अर्थात
वैज्ञानिक
और
औद्योगिक
अनुसंधान
कौन्सिलने
यह
अध्ययन
करनेहेतु
नवंबर
१९५२
में
कैलेंडर
सुधार'
समितिका
गठन
किया।
प्रसिद्ध
भौतिकशास्त्रज्ञ
डॉ
मेघनाद
साहा
इस
समितिके
अध्यक्ष
थे।
इसके
अन्य
सदस्य
थे
--
१)
प्रो.
ई
सी
बनर्जी
(इलाहाबाद
विश्वविद्यालय
के
कुलपति)
२)
डॉ.
ए
एल
दप्तरी
(बी.ए.,
बी.एल.,
डी.एल.टी.,
नागपुर)
३)
श्री
बी
सी
करंदीकर
(संपादक,
केसरी,
पुणे)
४)
डॉ
गोरख
प्रसाद
(गणित
विभाग
के
प्रमुख,
इलाहाबाद
विश्वविद्यालय)
५)
प्रो
आर
वी
वैद्य
(माधव
कॉलेज,
इलाहाबाद)
६)
श्री
एन
सी
लाहिड़ी
(पंचांगकर्ता,
कलकत्ता)
ये
सभी
पंचांगसे
संबंधित
विभिन्न
मुद्दोंके
विशेषज्ञ
थे।
समितिकी
सिफारिशों
और
उनके
द्वारा
बनाए
गए
भारतीय
सौर
कैलेंडरको
स्वीकारते
हुए
भारत
सरकारने
इसे
२२
मार्च
१९५७
अर्थात
१
चैत्र
१८७९
सौर
शक
इस
भारतीय
सौर
दिनांकसे
लागू
किया।
सभी
आधिकारिक
राजपत्र
और
राजनीतिक
पत्राचार
में
और
विशेष
रूप
से
विदेशोंके
साथ
किए
गए
समझौतों
पर
भारतीय
सौर
दिनांक
लिखनेपर
ही
वे
वैध
माने
जाते
हैैं।
रिज़र्व
बैंकने
भी
सभी
बैंकोंको
सौर
दिनांक
अंगिकार
करनेहेतु
आदेश
दिये
हैं।
यदि
आप
बैंक
लेनदेनमें
सौर
दिनांकका
प्रयोग
करते
हैं
तो
बैंक
उस
दस्तावेज़को
अस्वीकार
नहीं
कर
सकता
है।
ऐसे
उदाहरण
सामने
आए
हैं
जब
उनके
अस्वीकार
करनेपर
रिजर्व
बैंकने
और
ग्राहक
मंचने
उनपर
आर्थिक
दण्ड
लगाया
है।
अब
आइए,
समिति
द्वारा
राष्ट्रीय
कैलेंडर
बनानेहेतु
उपयोगमें
लाये
सूत्रोंको
देखें।
समितिपर
देशमें
प्रचलित
सारे
पंचांगोंकी
जांच
करने
एक
वैैज्ञानिक
दिनदर्शिका
बनानेका
दायित्व
था।समिति
ने
विभिन्न
पंचागकर्ताओंसे
और
देशकी
जनतासे
अपने
विचार
साझा
करनेका
आग्रह
किया।
समिति
को
कुल
६०
पंचांग
और
कई
सुझाव
प्राप्त
हुए।
उन
सभी
का
अध्ययन
करते
हुए
समितिने
एक
अधिकारिक
राष्ट्रीय
सौर
कैलेंडर
बनाया। इसे
समझना आवश्यक है।
आकाशमें
सूर्यके
दो
भासमान भ्रमण
हैं -
दैनिक
और आयनिक जो
पृथ्वीके
भ्रमणके कारण हैं। पृथ्वी
अपनी धुरीपर रोज एक चक्र पूरा
करती है जिस कारण सूर्य
रोज पूरबसे उगता और संध्यामें
अस्त होता दीखता
है। पृथ्वी
सूर्यके चारों ओर
भी
एक दीर्घवृत्ताकार पथपर
परिक्रमा करती है
जिससे
सूर्य
भी आकाशमार्गमें ग्रहोंके
मध्य भ्रमण करता दीखता है।
सूर्य
प्रतिदिन
१
अंश
चलता
है
और
लगभग
३६५
दिनोंमें
आकाशकी
एक
प्रदक्षिणा
पूरी
करता
है।
इसे सूर्यकी
आयनिक
गति तथा
भासमान
मार्गको
आयनिक
वृत्त
कहा
जाता
है। परन्तु दीर्घवृत्तपर
परिक्रमा करती पृथ्वीका तल
और अक्षपर घूमती पृथ्वीकी
धुरीके बीच समकोण न होकर २३
अंश का कोण होता है। इस कारण
आयनिक वृत्त और खगोलीय विषुवका
वृत्त अलग अलग हैं और वे दोनों
एक दूसरेको दो बिंदुओंपर काटते
हैं। २२
मार्च
व
२३
सितम्बरको
सूर्य
इन
बिंदुओंपर
आता
है,
तब
पृथ्वीपर
दिनमान
और
रात्रिमान
समान
अर्थात १२ -१२
घंटोके होते
हैं।
२२
मार्चको
वसंतसंपात
तथा
२३ सितम्बरको शरदसंपात
कहते
हैं।
सांवत्सरिक
गणनामें
वसंतसंपात
या
विषुव,
अर्थात
२२
मार्च
सबसे
महत्वपूर्ण
है
जब
दिन
और
रात्री
समान
होते
हैं।
अतः
राष्ट्रीय
कैलेंडरमें
२२
मार्चसे
वर्षारंभ
होता
है।
चांद्रपंचांगानुसार
चैत्र
शुक्ल
प्रतिपदासे
वर्षारंभ
होता
है
जो
कि
२२
मार्चके
आसपास
पडती
है। इसी
कारण समितिने २२ मार्चको सौर
१ चैत्र नाम दिया।
आयनिक
वृत्तपर
चलता हुआ सूर्य २२
मार्चको
के
बाद खगोलीय
विषुवकी
तुलनामें
उत्तरावर्ती
होते
होते
२२
जूनको
चरम
उत्तरमें
आता
है।
उस
दिन
तक
उत्तरायण
होता
है।
वहाँसे
सूरज
दक्षिणकी
ओर
यात्रा
करने
लगता
है।
लेकिन
२३
सितम्बरतक
वह
रहेगा
विषुवके
उत्तरमें
ही।
२३
सितंबर
अर्थात
शरदसंपातके
दिन सूरज
फिरसे
विषुवबिंदुपर
आता
है
जिससे
दिन
और
रात
समान
होते
हैं।
वहांसे
सूर्य
विषुवके
दक्षिणमें
यात्रा
करता
है,
और
२३
दिसंबरको
चरमदक्षिण
पहुँचता
है।
तब
फिरसे उसकी उत्तरायण
यात्रा
आरंभ होती हैै। यदि
हम सूर्योदयके समय सूर्यको
देखनेका स्वभाव बना लें तो
हम देख सकते हैं कि २२ मार्चके
बाद सूर्यके उगनेका स्थान
उत्तरकी ओर खिसकता है,
२२
जूनसे वह वापस पूरब आने लगता
है,
२३
सितम्बरक ठीक पूरबमें होगा,
वहाँसे
दक्षिणकी ओर चलता है और २२
दिसम्बरसे फिर पूरबकी ओर मुडने
लगता है।
सूर्यकी
यह नियमित
और
निरंतर
भासमान
गति
है।
उसीको
आधार
बनाकर
सौर
कैलेण्डर निर्माण
समिति
ने
इन
चार
दिनोंको
महत्वपूर्ण बताया और उन्हींसे
४ मासारंभ तथा महीनोंके दिन
निर्धारित
किये।
इस प्रकार
१
चैत्र है २२ मार्च,
वसंतसंपात।
महीनोंके दिन चैत्र -३०,
वैशाख
-३१,
ज्येष्ठ
-३१
१
आषाढ है
२२ जून,
दक्षिणायनारंभ
।
महीनोंके दिन आषाढ,
श्रावण,
भाद्र-
प्रत्येकके
३१
१
अश्विन है
२३ सप्टेंबर,
शरदसंपात।
महीनोंके दिन आश्विन,
कार्तिक,
अगहन-
प्रत्येकके
३०
१
पौष है
२२ डिसेंबर,
उत्तरायणारंभ
।
महीनोंके दिन पौष माघ,
फाल्गुन
प्रत्येकके ३० दिन ।
इस
प्रकार उत्तरायणके
१८५ व दक्षिणायनके
१८० दिन
होंगे। जो अंग्रेजीका लीप
इयर होगा उस वर्षका चैत्र मास
२१ माचसे आरंभ होगा औौर उसके
३१ दिन होंगे जैसा इसी वर्ष
२०२० में हो रहा है। इस विभाजन
के पीछे एक वैज्ञानिक कारण
है। पृथ्वी सूर्य की
प्रदक्षिणामें
दीर्र्घवृत्तमें
घूमती है,
विशुद्ध
गोलाकार वृत्तमें
नहीं। दीर्घवृत्तमें
दो केंद्रक
बिंदु होते हैं। सूर्य इनमें
से एक बिंदु पर है। अपनी
कक्षामें घूमती
पृथ्वी जब
सूरज के करीब अर्थात
उपसूर्य स्थितिमें
होती है,
तो
उसकी
गति अधिक होती है।
जब पृथ्वी अपसूर्य
क्षेत्रमें
(सूर्य
से दूर)
होती
है,
तब
उसकी
गति कम होती है। इसीलिए,
वसंतसंपातसे
शरदसंपातकी
यात्रा
में ५
दिन अधिक
लगते हैं।
चैत्र,
वैशाख,
ज्येष्ठ
.....
ये
नाम
पूरे
भारत
में
प्रचलित
हैं
इसीसे
समिति
ने
यही
नाम
अपनाये।
ऋतुओं
और
महीनोंके
बीच ये
संबंध
होंगे
-
फाल्गुन
और
चैत्र
-
वसंत
ऋतु,
वैशाख-ज्येष्ठ
ग्रीष्म,
आषाढ़-श्रावण
वर्षा
ऋतु,
भाद्रपद-आश्विन
शरद
ऋतु,
कार्तिक-मार्गशीर्ष
हेमंत
और
पौष-माघ
शिशिर
ऋतु।
कैलेंडर
सुधार
समिति
द्वारा
बनाई
गई
इस
नई
कालदर्शिकाको
सरकार
ने
१
१चैत्र
१८७९
यानी २२
मार्च,
१९५७
से अपनाया
और
निम्नानुसार
तय
किया --
१)
सभी
भारतीय
गजेटोंमें
पहले
भारतीय दिनांकको व उसके साथ
अंग्रेजी
तारीखको
भी
प्रिंट
किया
जाएगा।
२)
आकाशवाणीपर
(
अब
दूरदर्शन भी)
दिनांककी
घोषणामें भारतीय व अंगरेजी
दोनोंकी घोषणा होगी।
३)
सरकारी
कैलेंडरपर
भारतीय मितीको
बडे व अंग्रेजी तारीखोंको
छोटे
आकारमें
प्रदर्शित
किया
जाएगा।
इस
प्रकार
संवैधानिक रूपसे स्वीकृत
कैलेंडरको
लागू
किये
आज ६२
वर्ष
बीतनेपर
भी भारतीय
मानसमें इसका प्रचार बिलकुल
नहीं
किया गया
है।
इसीलिए
कैलेंडरको
बनानेका
उद्देश्य
पूरा
नहीं
हुआ।
भारतीय
पंचांग
नक्षत्रों,
महीनों,
ऋतु
आदिकी
शास्त्रीय
नींवपर
आधारित
होता है जिससे निसर्ग सूचनाएँ
अपनेआप जनमानसमें प्रविष्ट
होती हैं। परन्तु सौर
कैलेण्डरके
विकल्पमें
ग्रेगोरियन
कैलेंडरका
उपयोग
करना
जारी
रखनेके
कारण राष्ट्रीय
सौर
कैलेंडर
भी
वैसा ही उपेक्षित रहा जैसा
अंग्रेजी
भाषाके
विकल्पके कारण सभी भारतीय
भाषाएँ उपेक्षित रहीं। इसे
प्रचारमें लानेहेतु जनताको
प्रबुद्ध
करनेकी
आवश्यकता
है।
कहाँ
तो एक ओर राष्ट्रीय दिनदशिकाकी
वैैज्ञानिकताको समझते हुए
डॉ.
साहा
समितिने
संयुक्त
राष्ट्रके
माध्यमसे
इस
कैलेंडरको
विश्व
स्तरपर
फैलानेकी
इच्छा देशके
सम्मुख व्यक्त की थी और कहाँ
ये दिन जब भारतमें ही लोगोंको
इसके विषयमें बताना पड रहा
है। आज
केवल
आधिकारिक
राजपत्र
और
सामयिक
पत्राचार
में
और
साथ
ही
अन्य
विदेशोंके
साथ
अनुबंधमें
ही
भारतीय सौर
तिथिका
उल्लेख
किया
जाता
है।
अतः
सर दिनदर्शिका
तभी
सार्थक
होगी
जब
सारे
भारतीय इसे अपनानेका
निर्णय
लें।
लेकिन
क्या हम ये कहें कि केवल
अस्मिताका,
राष्ट्रीय
भावनाका अभाव व जानकारीकी
कमी
ही
इसका कारण थे। मुझे लगता हैै
कि एक
व्यावहारिक
कारण
भी है,
जिसकी
चर्चा तीसरे भागमें प्रस्तुत
है।
भाग ३
भारतीय
संविधानने वर्ष १९५७ से ही
जो राष्ट्रीय सौर दिनदर्शिका
लागू कराई उसका पालन सरकारी
कार्यालयोंमें और जनमानसमें
अत्यल्प रहा। इस प्रकार एक
पूर्णरूपसे वैज्ञानिक तथा
विश्वसमुदायको
मान्य हो सके
ऐसा कैलेण्डर उपेक्षित रहा
है। तो आज हम उसके कुछ व्यावहारिक
कारणोंकी चर्चा
करेंगे।
वैदिक काल से भारतियोंको सांवत्सरिक और चंद्र दोनों कैलेंडरोंका ज्ञान है। सौर मंडलके ग्रहोंकी गतिसे हमें सप्ताह में सात वार बनानेका सूत्र मिला। हमारे कई अनुष्ठान वारोंके आधारपर किए जाते हैं, यथा सोलह सोमवारका व्रत। सूर्यकी गतिाका ध्यान रखते हुए वसंतसंपात, शरदसंपात, दक्षिणायन, उत्तरायण, साथ ही दक्षिणावर्त और उत्तरावर्त जैसे शब्दोको हमने व्याख्यायित किया।
हमारे
पूर्वजों
ने
ऋतुचक्रके
साथ आनेेवाली वायुमंडलीय
विविधता,
शीतोष्ण
कालमान
और कृषिहेतु
उसकी योग्यायेग्यताकी
की
पहचान
की।
छह
ऋतुओंके
साथ
बारह
महीनोंके
नाम
मधु-माधव,
शुक्र-शुचि,
नभ-नभस्य,
इष-उर्ज,
सह-सहस्य
और
तप-तपस्य
ये
नाम
उस
उस माहके,
ऋतुमान,
जमीनकी
स्थिति औौर
मेघोंका
अनुमान
बताते
हैं।
इससे
भी आगे पूर्वजोंने
दीर्घकालीन
कालगणनाकी
पद्धति
बनाई।
हमारे
पूर्वजोंका
खगोलज्ञान
ऐसा था कि उन्होंने
पृथ्वीके
व्यास,
पृथ्वीसे
चंद्रमा
और
सूर्यकी
दूरी
आदिकी
गणना
करी।
युगोंकी
अवधारणामें
सत्य,
त्रेता,
द्वापर
व कलियुग मिलाकर
एक चतुर्युग,
ऐसे
७१ युगोंका
एक ब्रह्मदिवस,
फिर
उतनी
ही लम्बी
एक ब्रह्मरात्र,
ऐसे
३६० अहोरात्रोंका
एक ब्रह्मवर्ष व १०० वर्षकी
ब्रह्माकी
आयु,
ऐसे
कित्येक ब्रह्मदेव।
यह था
भारतियोंकी
कालगतिका गणित। विशेष
बात
यह कि ऐसे
गणितसे हमारे पूर्वजोंने
पृथ्वीपर
जीवसृष्टीकी
संभावित
आयुका
जो अनुमान लगाया वह
वर्तमान
अनुमानों
से
इतनी
निकटतासे
मेल
खाता
है
कि
किसी
भी
भारतीयको
इस
गणनापर
गर्व
होना
चाहिए।
खैर।
सबसे
महत्वपूर्ण
बात
यह
है
कि
भारतियोंने
भले ही गणितकी सुगमताहेतु
३६०
दिनोंका
एक
वर्ष
बताया
हो,
लेकिन
वे
जानते थे कि
वास्तवमें
सूर्यका
एक आकाशीय भ्रमण
पूर्ण
होनेमें
३६५
दिनसे
थोडा
अधिक
समय
लगता
है,
या
आयनिक एवं
विषुव
वृत्त अलग हैं। उन्हें यह भी
ज्ञान था कि वासंतिक और शारदीय
संपातबिंदुका
स्थान भी नक्षत्रोंके
सापेक्ष
बदलता
है और
लगभग
एक
सहस्र
वर्षोंमें
वह स्थान
तीस
दिन
पीछे
जाता
है।
चांद्रपंचांगकी
बात
करें
तो,
चंद्रमाकी
दृश्य
कलाओंके
आधारपर
प्रतिपदासे
पूर्णिमा
(या
अमावस्या)
तक
एक
पखवाडा
गिनते हैं।
साथ
ही
पूर्णिमाके
चंद्रमाके
आधारपर मासोंके नाम
चैत्र-वैशाख-ज्येष्ठ
आदि
पडे।
अर्थात
चांद्रमासकी
पहली
तिथि
प्रतिपदाका
वसंतसंपातसे कोई सीधा नाता
नही है। लेकिन वर्षगणना तो
वसंतसंपातसे ही करनी पडेगी।
यह
मेल बिठानेहेतु तीन सूत्र
बने।
दीर्घकालिक
व्यवस्थामें वसंतसंपातका
ध्यान रखा जायगा क्योंकि उसे
१ माह पीछे जानेके लिये एक
सहस्र वर्ष चाहिये। अल्पकालिक
योजनामें तिथिक्षयकी गणना
है --
जो
चांद्रतिथि सूर्योदयको न
देखती हो उसका क्षय माना जायगा।
इसी कारण चांद्रमासके दुस
कभी २८ तो कभी २९ या ३० होते
हैं। इस विधिसे सूर्यके साथ
पौर्णिमा व अमावास्याका मेल
बिठाया जाता है। एक मध्यावधि
सूत्र भी है अधिकमासका। इसके
अनुसार प्रति ३ वर्षोंमें एक
अधिकमास लाकर चांद्रमास व
ऋतुचक्रका मेल बिठाया गया।
यही कारण है कि सैंकडों वर्षोंके
बाद भी जिस माहकी तिथियोंपर
जो
कृषिकार्य कहे गये हैं,
वे
करनेसे
फसलका
सुयोग्य
नैसर्गिक
पोषण
हो जाता है।
सौर
और
चंद्रमा
आधारित
पंचांग-गणनामें
यह
अन्तर है।
चंद्रमा
नक्षत्रोंका
स्वामी
है
जबकि
सूर्य
दिवस-रात्रि
और
ऋतुओंका
कर्ता
है।
सौर
मासोंके
लिये
ऋतुआधारित
अलग
नाम
हैं
जबकि चांद्रनाम
चंद्रमाकी
नक्षत्रस्थितिसे
नियत होते हैं
और
उनका
चंद्रमाकी
दृश्यकलाओंसे
सीधा
संबंध
है।
ऐसी
स्थितिमें समितिका यह निर्णय
अनाकलनीय है कि
राष्ट्रीय
कैलेंडर
तो
सौरचक्रके
अनुसार
३६५
दिनोंवाला
होगा,
लेकिन
महीनोंके
नाम
चैत्र-वैशाख-ज्येष्ठ
आदि
होंगे जो वास्तवमें चंद्रमापर
निर्भर हैं।
सामान्यतया
कोई भी व्यक्ति
रातमें
चंद्रमाको
देखकर
तिथि
जान सकता है और आसपासके
नक्षत्रोंको
देखकर
चांद्रमास
जान सकता है।
इसी
कारण वह चांद्रतिथिसे
अधिक
परिचित
है।
ऐसी
स्थितिमें
इसका
क्या तुक कि महीनेके दिवस तो
सूर्य गतिनुसार ३० या ३१ होंगे
लेकिन
महीनोंके
नाम चंद्रमापर आधारित होंगे।
क्या
समिति
यह
अनुमान
नहीं
लगा
पाई
कि
जमसामान्यके
लिये यह
अत्यंत संभ्रमकी स्थिति
पैदा
करेगा?
यहां
यह
विचार
अत्यावश्यक है कि
चंद्रमा
और
सौरगतिसे
संबंधित
शब्दावलिका
उपयोग
हजारों
वर्षोंसे
कालगणनाहेतु
किया
जा
रहा है।
ऐसी
कालगणना
और खगोलीय घटनाक्रमोंका वर्णन
किसी
भी
संस्कृतिकी
बहुमूल्य
धरोहर
होती है।
खगोलीय
घटनाओंका वर्णन और तिथियाँ
रामायण,
महाभारत
आदि ग्रंथोंमें हम बहुलतासे
पाते
हैं। इनके
विषयमें संभ्रम हुआ तो हम
हजारों वर्षोंकी धरोहरको खो
देंगे। ज्ञातव्य है कि विश्वकी
सबसे
उन्नत
खगोल-अनुसंधानकी
संस्था
NASA
भी
जब खगोलीय
घटनाओंके
लिये
कंप्यूटर
सॉफ्टवेयर
विकसित
करता
है,
तब
वह
ग्रेगोरियन
कैलेंडरका
प्रमाण नही लेता क्योंकि अगर
ऐसा
किया
तो यूरोपमें
पांच-सात
सौ
वर्षों
पहलेके
खगोलीय
रिकॉर्डका
फायदा नही
उठाया
जा
सकता
था जब
वहाँ ग्रेगॅरियनसे अलग ज्यूलियन
कैलेण्डर चलता था।
हमारे पास
तो हजारों
वर्षोंके
आकाशीय
अभिलेखोंकी
परंपरा
है,
फिर
हम इतना
भ्रम उत्पन्न
कर उन्हें क्यों नष्ट होने
दे रहे हैं,
जबकि
भ्रमनिवारणका सरल उपाय भी
अपने पास है ?
इस
भ्रम
को
रोकनेहेतु
सरल
समाधान
ये
है कि
आगेसे
वर्तमान
राष्ट्रीय
सौर
कैलेंडरमें
महीनोंके
नाम
चैत्र-वैशाख
आदि न
होकर
सांवत्सरिक नाम मधु-माधव-शुक्र
इत्यादि अपनाये जायें। इसके
लिये
संसदमें
एक
छोटा संशोधन-बिल
लाकर संसदका
अनुमोदन
लेना ही पर्याप्त है।
ग्रेगॅरियन
२२ मार्चको ही वर्षका पहला
दिन हो परन्तु उसे १ चैत्र
कहनेसे जनसामान्य उसे चैत्र
प्रतिपदा समझता है और ९ चैत्रको
रामनवमी समझता है। इसीलिये
१ चैत्र
नहीं
वरन
१ मधु कहनेसे
यह
भ्रम
नहीं
रहेगा।
चैत्र
प्रतिपदाको
मनाया
जानेवाला
गुड़ीपाड़वा
जो
नया
चांद्रवर्ष दर्शाता
है वह २२
मार्च के
आसपास
होगा।
परन्तु
चांद्रतिथियोंकी
गणनाके आधारसे आनेवाले
व्रत-त्यौहारोंको
लेकर
कोई
भ्रम
नहीं
होगा।
यदि
ऐसा
होता
है,
तो
आम
आदमी
भी
राष्ट्रीय
कैलेंडर
के
उपयोग
के
लिए
प्रेरित
होगा,
और
अपनी
आवश्यकतानुसार
सौर
और
चांद्र
दोनों
कैलेंडरोंका
उपयोग
करता
रहेगा।
मैं
यह तो नही कहूँगी कि इस बदलावके
होनेतक वर्तमान
सौर दिनदर्शिकाका
का उपयोग नहीं
किया
जाना
चाहिए।
क्योंकि
राष्ट्रीय
कैलेंडर
का
उपयोग
करना
हमारे
राष्ट्रीय
आत्मबोधका
विषय
है।
मेरी
निजी
राय
है
कि राष्ट्रीय
कैलेंडरमें
एक
और
परिवर्तन
होना
चाहिए।
उसकी
पृष्ठभूमि
पर भी
एक
नज़र
डालें।
महाभारत
ग्रंथके
अनुसार,
उसी
कालमें
द्वापर और
कलियुगकी
संधिका
आरंभ कहा गया है। यानी
जैसे दिन
और
रातकी
संधिका
समय
संध्या
है वैसे
ही दो युगोंके बीच कुछ वर्ष
संधिकालके गिने जाते हैं।
वैदिक
कालगणनाके
अनुसार,
यहींसे
अगले
युगकी
गणना
शुरू
हो
जाती
है और
उसे युगाब्द कहा जाता है।
महाभारत
के अनुसार ऐसीही कलियुगीन
संधिकालमें
युधिष्ठिर
ने
इंद्रप्रस्थ
राज्य
प्राप्त
करनेके
अवसरपर
राजसूय
यज्ञ
किया
और
युधिष्ठिर
शक
के नामसे नया शक चलाया।
हो
न हो,
युधिष्ठिर
शक
और
युगाब्द
एक
ही
कैलेंडर
हैं।
वराहमिहिरके
अनुसार
युधिष्ठिरशक
से ३०४४
वर्ष
बाद
विक्रमने
अपने
नामपर विक्रमसंवत चलाया।
विक्रमसंवतके
१५५ वर्ष
बाद,
शालिवाहनने
फिर
एकबार
चैत्र
प्रतिपदासे
अपना
शक चलाया।
हमारे
पंचांगकर्ताओंकी
प्रतिभा
और सूझबूझको
मानना
पडेगा
कि
वे
विक्रम
और शालिवाहन
पंचांगोंके
साथ-साथ
युगाब्दका भी उल्लेख
करते
रहे और उसे अपनी कालगणनामें
कभी विस्मृत नही होने दिया।
इसलिए
वर्तमानमें
यदि
हम
किसी
वर्षके
चंद्रपंचांगको
पढ़ें,
तो
उसमें
युगाब्द,
विक्रम
संवत,
शालिवाहन
शक
और
ग्रेगॅरियन
ये
चारों
प्रविष्टियाँ
मिल जाती हैं।
समितिकी
चर्चाओंसे पता चलता है कि
समितिके
समक्ष
प्रश्न
था
कि
राष्ट्रीय
कैलेंडरके
लिए
सबसे
पुरानी
युगाब्द
गणनाका
उपयोग
करना
है,
या
उत्तर भारतमें
प्रचलित
विक्रमसंवतका,
या
सबसे
नूतन
शालिवाहन
शकका।
हमारा
देश
व
संस्कृति अतिप्राचीन
कालसे
विकसित
हुए
हैं।
युगाब्द
कैलेंडर
तो
लगातार
पांच
हजार वर्षोंसे अधिक चला आ
रहा
है
और
इस
देशकी
ज्ञानवान
परंपराका
सशक्त
प्रमाण
है।
हमें वह अपनाकर अपनी धरोहरका
स्मरण रखना चाहिये या फिर हमें
यंग इण्डियाके प्रतीकरूपमें
शालिवाहन शक अपनाना चाहिये।
व्यक्तिगत
स्तर
पर
मुझे
लगता
है
कि
हमें
युगाब्द गणनाको अपनाना चाहिये
जो हमारी ज्ञानोपासक परंपराको
बताता है। शालिवाहन
निःसंदेह
एक
शक्तिशाली
और
आदर्श
राजा
था
लेकिन
युधिष्ठिर
उससे
भी
बड़ा
था।
मुझे
लगता है कि युगाब्द या विक्रम
पंचांगकी अपेक्षा
शालिवाहन
पंचांग चुनने
का असल
कारण
यह
था
कि
स्वतंत्रताके
बाद
युगमें,
हमारे
इतिहासकारोंको
देशकी परंपरामें विश्वास नही
था। उनके
अंग्रेजी
चश्मे
के
कारण
वे महाभारत
या
विक्रमका
इतिहास
कपोलकल्पित
मानते थे।
कदाचित
उद्देश्य
यह
दिखाना
था
कि
हम
कितने
नए
हैं,
न
कि हम
कितने
पुरातन
कालसे चले आ रहे हैं। मेरी
व्यक्तिगत राय है कि हमें
अपनी
प्राचीनता
नही
भूलनी
चाहिये।
इसी
कारण मैं चाहूँगी कि यह मामूली
संशोधन भी
संसद
करे।
लेकिन उससे पहले हमें इस
आत्मग्लानिपरक बोधको झटकना
होगा कि हम पुरातन नही
हैैं या महाभारत इत्यादि हमारा
इतिहास नही है।
मजेकी
बात है कि भारत
में आज
भी युगाब्दसे भी प्राचीन
'परशुराम
शक
नामक 'एक
सौर
कैलेंडर
चलता
था जो आज
भी
केरलमें
प्रचलित
है। अर्थात
भारतीयोंके
लिए
सौर
पंचांग
कोई नई बात नहीं
है।
सौर प्रणालीके
उपयोगसे
हम
वैश्विक प्रणालीके साथ अधिक
तालमेल रखते हैैं और इसकी
वैज्ञानिकताके कारण विश्वसमुदायमें
इसे प्रचलित कर सकते हैं।
विशेषतः यदि हम मधु-माधव
इत्यादि नामोंका स्वीकार
करते हैं तो हमारा कृषिलायक
ऋतुज्ञान भी बना रहता है।
मुहूर्त,
फलज्योतिष
आदिके
लिये हमारा चांद्रपंचांग भी
आजकी तरह आगे भी प्रचलनमें
रह सकता है। ऐसे हमारे दोनों
कैलेंडर
निश्चित रूप से वैज्ञानिक
परिपूर्ण
और उपयोगी
है।
किसीके
मनमें यह प्रश्न अवश्य उठ सकता
है कि जब
पूरी दुनियामें
ग्रेगॅरियन
कैलेंडर है
तो हमें
एक
अलग कैलेंडर
क्यों
चाहिये
और हम अंतरराष्ट्रीय लेनदेन
कैसे
करेंगे। लेकिन
हममेंसे
कितने
लोग
वास्तवमें
अंतरराष्ट्रीय
लेनदेन
करते
हैं?
केवल
कुछ
प्रतिशत
आबादी
ही
विदेशियोंके
साथ
व्यवहार
करती
है।
लगभग
सौ
करोड
लोगोंको
इस
कैलेंडरको
स्वीकार
करनेमें
कोई
समस्या
नहीं
है।
दुनिया
भरके
कई
देश
घरेलू
व्यवहारोंके
लिए
अपने देशके
कैलेंडरका
उपयोग
करते
हैं।
अंगरेज
राज जानेके बाद
भारतियोंने
कई
परिवर्तन
स्वीकार
किए
यथा
वजन-मापन
हेतु नई
मेट्रिक
पद्धति
को
भारतने
अन्य
उन्नत
देशों
की
तुलना
में
अधिक
आसानी
से
अपनाया
जबकि
भारतका साक्षरता प्रमाण भी
अल्प था। अर्थात
राजनैतिक
और
सामाजिक
इच्छाशक्तिके
बलपर
कालगणना
प्रणालीमें
बदलाव
भी
संभव
है।
हमे
नही भूलना चाहिये कि
विश्व
जनसंख्याका
छठवाँ
हिस्सा
भारतके
पास है।
इस
संख्याबलका लाभ हम उठा सकते
हैं।
इसीलिए
यदि प्रत्येक
व्यक्ति
राष्ट्रीय सौर
कैलेण्डरका
उपयोग करने का संकल्प ले
तो निश्चय ही हम इसे अपने देशमें
प्रचलित
कर सकते हैं।
और यदि
विश्वमें
इसकी वैज्ञानिकताका प्रचार
करें तो
बडी संभावना है कि इसे वैश्विक
मान्यता मिले।
इस
समय
राष्ट्रीय
कैलेंडरका
प्रचार करनेहेतु देश
के
विभिन्न
हिस्सोंमें
छोटे
छोटे
प्रयास
किए
जा
रहे
हैं। उनके
गोवर्धनमें अपनी लकडीका टेका
लगाने के लिये
उनके
कार्यको
समझना
और
प्रोत्साहित
करना,
इतना
तो हम कर ही सकते हैं।
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