सोमवार, 20 अप्रैल 2015

Health Insurance - the farce

When Corporates ruled the World TN Ninan

Most relatively well-off Indians have got used to the idea of taking out medical insurance policies in order to take care of possible health episodes. It has been a rapidly growing business, doubling in four or five years. The annual insurance premium was estimated for three years ago at about Rs 15,700 crore. This financial year the figure should be somewhere in the region of Rs 25,000 crore. Given the inadequacy of the government hospital system, most people pay the premium willingly, in return for what was initially projected to be a cheaper alternative to going overseas for treatment. There are no independently verified estimates in the public domain, but some 40 million Indians are said to benefit from such insurance.

Despite the growing tales of medical malpractice at the privatecorporate hospitals to which the insured usually go – needless tests, avoidable surgical procedures and commissions to the doctors who abuse patients in this manner – most well-off people are willing (or forced) to stay with the system in the absence of satisfactory alternatives. The milling crowds in the lobbies and public areas of the corporate hospitals tell their own story.

All of this is understandable, and private medical care should expand and grow — though with better ethical norms. But here’s the thing: since medical insurance payments are tax-deductible, up to a quarter or more of the insurance premia that support the private corporate hospitals is probably claimed as a tax waiver. In other words, the government is paying Rs 6,000 crore for the sustenance of these corporate hospitals; those insured pay the rest. On top of this, state and local governments have provided land at subsidised rates to these hospitals, in return for free or subsidised treatment to poor patients, who were to account typically for a quarter of the total patients. There is no corporate hospital that has met its obligations on this score; in one infamous case, the hospital said it had promised free treatment but not a free bed or bed linen.

Two questions arise. First, why is the government financing a profit-oriented corporate hospital system that is prone to malpractice and given to reneging on promises of free care? And why is it subsidising those who can afford to pay for medical insurance, by giving tax breaks? When there is an enormous shortage of public hospitals, when state expenditure on healthcare is abysmally low by any international yardstick, tax money should be used to set up public hospitals. The tax breaks on medical insurance could fund the capital cost of setting up of 12,000 hospital beds every year. That’s broadly the size of the Fortis or Apollo chain, and you could replicate that size each year. In five years, you would have a public hospital chain that is equal to twice the size of Apollo and Fortis combined. This would obviously make a massive difference, especially if public hospitals could provide the standards of care and cleanliness that the corporate hospitals do.

Most people assume that such standards cannot be replicated in public hospitals, but please recognise that government hospitals are hopelessly over-crowded because of the crush of patients. Since they cannot be turned away, patients end up sharing beds, or sleeping in corridors. The problem is shortage of supply. If the number of public hospital beds were to be expanded rapidly, the crush of patients would be addressed and one could aspire to better standards of care and cleanliness. That would bring in more aware, middle-class patients who would demand better care. The quality of care would then improve — creating a virtuous circle. Even more people – not the well-off, who would anyway prefer a private hospital – would then be willing to turn to a public hospital for needed care, and this would put pressure on corporate hospitals to clean up their act. It is the lack of a satisfactory alternative that needs to be addressed, for the sake of all patients — insured and uninsured.

रविवार, 5 अप्रैल 2015

भारतीय ऋषि-कृषि संस्कृति के आयाम

भारतीय ऋषि-कृषि संस्कृति के आयाम
लीना मेहेंदळे
आज मैं अपने पाठकों के सम्मुख प्राचीन भारतकी उस त्रि-आयामी संस्कृति का चित्र रखना चाहती हूँ जो आजकी द्वि-आयामी जीवनशैलीसे भिन्न थी, टिकाऊ विकासकी पक्षधर थी और प्रकृतिसे सामंजस्य बनाकर चलती थी। समृद्धि या विकास में यह सामंजस्य बाधक नही वरन पूरक था या यों समझ ले कि यदि विरोधाभास हुआ तो सामंजस्यकी और पर्यावरणकी प्राथमिकता थी। इस जीवनशैलीमें वन-गमन कोई अप्रिय या अगम्य घटना नही थी बल्कि जीवन-यापनका वह भी एक तरीका था। जैसे लोग ग्राम-निवासी या शहर-निवासी होते थे वैसे ही वह वनवासी भी होते थे। यह वनजीवन हमारी ऋषि-कृषि संस्कृतिका परिचायक एवं अभिन्न अंग था। यहींसे ज्ञानप्रचार, अध्ययन-अध्यापन व शोध-कार्य चलते थे और उनका व्यवहार में उपयोग कर खेती, उद्यम, व्यापार तथा कलाके माध्यमसे समृद्धि का निर्माण होता था।
प्रकृति अर्थात हमारे पहाड, नदियाँ, वृक्ष, जलवायु, खनिज, वनचर, ग्राम-पशु, आदि। इनसे सामंजस्य रखते हुए  व्यक्ति के सम्मुख लक्ष्य थे ज्ञानसाधना, प्रयोगशीलता, उत्पादन, एवं संपन्नता । समाज-व्यवस्था ऐसी थी जिसमें हरेकके लिये वनवास, ग्रामवास, व नगरवासके अवसर थे। आजकी जीवनशैलीमें ग्रामीण व शहर व्यवस्था भी आपसमें कटी कटीसी है जबकि उस व्यवस्थामें वनवास, ग्रामवास और नगरवास तीनोंमें गहरा  तालमेल था। तीनों एक-दूसरेकी आवश्यकताओं की पूर्तिमें सहायक थे। इसलिये वनजीवनभी उतनाही सहज था जितना ग्राम-जीवन।
अध्ययन व अध्यापन के केंद्र प्रायः घने जंगलके अंदर गुरुकुल प्रणालीसे चलते  थे । बाल्यावस्थासे ही शिक्षार्थी गुरुकुलमें रहने लगते थे। शिक्षा-दीक्षा समाप्त करनेपर उनका गार्हस्थ-जीवन प्रायः ग्रामोंमें बीतता था। फिर वानप्रस्थमें फिरसे वनजीवन आरंभ होता और संन्यास आश्रममें वह देशाटन द्वारा समाज-जागृति के लिये समर्पित हो जाता। संन्यासीको लौटना होता था ग्रामों और नगरोंमें -- घूमघूमकर ज्ञानप्रचार के लिये। राजा, राजदरबारी तथा बडे व्यापारी नगरवासी हुआ करते थे। उत्पादनकी पूरी प्रणाली गाँवोंपर निर्भर थी जहाँ केवल खेती ही नही बल्कि अन्य लघु-उद्योग भी चलते थे। इस तरह अधिकांश जनसंख्या के निवास,  उत्पादन एवं चरितार्थ का स्थान गाँव ही थे।
गाँवोंकी भौगोलिक रचना में केंद्र पर ग्रामस्थान है जो निवास के लिये है। इसके चहुँ ओर खेत हैं, उनके आगे चराई के लिये प्रधिकृत जमीन, उसके आगे ग्रामवन अर्थात वह जंगल जो उस गाँवका माना जाता है – अर्थात इस जंगलके तमाम उत्पादोंपर गाँव का उपभोग होगा और इस जंगलके रखरखाव की जिम्मेदारी गाँव की होगी। यह प्रायः अरण्य और चराई के बीच बफर-झोन का काम करता है और इसमें बडे वन्यपशू नही होते। ये प्रायः समतल भी होते हैं।
इसके परे होंगे वे अरण्य जिनपर किसी एक गाँवका अधिकार नही होगा – रखवाली का जिम्मा राजा का होगा। दुर्गम पहाडियाँ, नदियों व झरनों के उगम स्थान, वन्यपशुओंका निवास, साथही कतिपय वनवासी ऋषियोंके गुरुकुल, आश्रम या तपःस्थली यह अरण्योंके परिचायक हैं। अंग्रेज शासनकाल तक यही व्यवस्था रही और गुरुकुलोंका मुद्दा छोडें तो गाँवका भौगोलिक समीकरण आज भी वही है।
गुरुकुल एवं आश्रम जीवन विद्यादान व शोध के संस्थान थे। चाहे राजकुमार हो या एक निर्धन बालक, दोनोंकी पढाई गुरुकुलमें एक साथ और बिना किसी भेदभावके होती थी। इस दौरान उन्हें वनानुकूल जीवनमूल्य सिखाये जाते। अर्थात प्रकृति के साथ एकतानता बनाते हुए पहाड, वन्यजीव, जंगल, नदियाँ बचाने हेतु आवश्यक जीवन पद्धति । अपनी वैयक्तिक आवश्यकताओंको न्यूनतम रखना, उत्पादन के तरीके सीखना, हुनर प्राप्त करना इत्यादि। साथ ही कई प्रकार के शोधकार्य भी गुरुकुलोंमें संपन्न होते थे। विद्यार्थी तो वनोंमें अल्पकाल के लिये ही आते लेकिन अन्य वनवासी चिरकालीन थे जिन्हें अंग्रेजोंने ट्रायबल या आदिवासी का नाम दिया। ये वनवायी एवं वानप्रस्थी  गुरुकुल वासियोंके साथी एवं शोधकार्य में भागीदार होते थे क्योंकि उन्हें जंगलकी गहरी जानकारी होती थी।
ऐसे वनजीवन के लिये आवश्यक नीतिमूल्य थे अपरिग्रह, (प्रकृतिसे न्यूनतम लेना), शांति,  मैत्री, विनामूल्य विद्यादान, प्रयोगशीलता, तप, सत्यवादिता (ज्ञानप्रसार के लिये अनिवार्य), निर्भयता, समता (विद्यादानमें सबसे एक जैसा व्यवहार – उदा. कृष्ण-सुदामा) आदि। देवराई के नामपर ऐसे जंगल छोडे जाते जहाँ से कोई भी कुछ भी नही उठायेगा। आश्रम जीवन का अर्थ था प्रकृति के साथ एकतानता बनाते हुए
पहाड, वन्यजीव, जंगल, नदियाँ  आदि बचाने हेतु आवश्यक जीवन पद्धति।
गुरुकुलोंमें शोधकार्य चलते थे जो अगले उत्पादों में सहायक थे। लेकिन शोधकार्य के लिये उपकरण भी आवश्यक होते हैं और उन्हें बनानेवाला कोई कारीगर ही चाहिये। जो खोजी मनश्चक्षुसे देख पाता है कि गोल आकारवाली वस्तु शायद अधिक तेजीसे चल पायेगी, वह स्वयं लोहेकी एक गोलाकार कडी बना सके ऐसा नही होता। इस प्रकार उन शोधोंके लिये पूरक कारीगर और उत्पादक आवश्यक होते है और परंपरागत रूपमें यह भूमिका ग्रामवासी निभाते थे। शोधकार्य खासकर कृषिसे संबंधित हो तो तुरंत किसानोंको अपने ज्ञानमें शामिल कर बडे पैमानेपर होनेवाले प्रयोग व उत्पादन उनके द्वारा होते थे। इस प्रकार गुरुकुलोंमें चलनेवाले शोध ग्रामजीवन को समृद्ध करते थे और उनसे सहायता भी लेते थे।
वनवासियोंसे हटकर ग्रामवासियोंको देखें तो उनके जीवनमूल्य कृषि संस्कृति से  जुडे थे। अन्नं बहु कुर्यात् तद् व्रतम् । अन्नकी बहुलता बढायें -- यही व्रत रहा क्योंकि एक बीजसे हजारोंकी उत्पत्ति करनेवाला और प्रकृतिका न्यूनतम दोहन करनेवाला एकमेव व्यवसाय कृषि ही है। अन्य आवश्यक नीतिमूल्य थे अस्तेय (अचौर्य), धैर्य, सहयोग, कौशल्य, पशुपालन, कला, कारीगरी। भारत के किसान स्वयं ही अगली फसलके लिये बीज-संग्रह करते थे और एक-दूसरेसे बीजोंका आदान-प्रदान भी करते थे । य़ही कारण है कि भारतमें अन्न सहित हर प्रकारके बीज और पशुधनमें अपरिमेय  रूपसे जैव-विविधता है। अचौर्य का अत्यधिक महत्व है क्योंकि इसके बिना तैयार होनेको आई अपक्व फसलके चोरी होनेकी संभावना बनी रहती है।
नागरी जीवन भी आवश्यकथा क्योंकि राज्यसत्ता के तथा व्यापार के केंद्र नगरोंमें थे। उनके नीतिमूल्योंमें आश्रमों का अनुशासन शिरोधार्य था खासकर जिस आश्रमसे शिक्षा ग्रहण की है। शौर्य, नीतिमानता, दंड-व्यवस्था, न्याय, शुद्ध-व्यापार, कला की परख व प्रोत्साहन आदि अन्य नीतिमानता के प्रमाण थे।
इस प्रकार वनजीवनकी एक सशक्त परंपरा भारतमें रही जिसमें नागरी एवं ग्रामीण इलाकोंसे हर बालकका विद्याग्रहण के लिये वनों में निवास अनायास हो जाता था। वहीं उनका विद्या अध्ययन, व्यवसाय-कौशल्य, जीवनमूल्य, शोध आदि हर प्रकारसे शिक्षा होती थी। वानप्रस्थमें वन-निवास व ज्ञानसाधना के बाद ही वह व्यक्ति संन्यासके उपयुक्त माना जाता था। यह परंपरा अंग्रेज शासनकालसे लुप्त होती गई क्योंकि भारतकी वनसंपदा अंग्रेजों की तिजोरी भरनेके लिये आरक्षितसी हो गई थी।
यह दुर्भाग्यकी बात है कि हमने अपनी वनजीवनकी परंपरा खो दी है। उससे अधिक दुर्भाग्यकी बात होगी जब हम अपनी ग्रामजीवनकी परंपराको भी खो देंगे। यदि हम आजही की गतिसे केंद्रीकृत व्यवसायोंकी ओर जाते रहे और अपनी विकेंद्रीकरणकी परिपाटी को भुला दिया तो वह दिन भी दूर नही होगा। फिर हम एक विविधताहीन उबाऊ शहरी जीवन जीने के लिये बाध्य होंगे। उससे पहले ही हमें फिर एक बार वनजीवनकी परंपराको सशक्त रूपमें स्थापित करना होगा।
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Subodh ji ---------------------------------
वेदोंमें वानप्रस्थ
https://drive.google.com/open?id=0B24oGzK30vfpaExtUHZZd0VTYXM

Dear all,
I express my grateful thanks to dear Arun ji for enlightening us with these important facts about our glorious past. 
I will like to share a little bit on the management of hill areas of India started by the British empire in their self interests.
By their lifestyle inhabitants of these hill areas were found to be very healthy and hardy , and were considered excellent material for recruitments to British Army. This is how famous Gorkha, Kumaon, Garhwal, Dogra, Baloch  regiments were formed. But there was a problem . How to attract these people from their contented hill life to leave their homes and come to join service in the Army?

 The hill people led a very contented simple life that centered around their cows,  sheep goats etc. These animals fed on the ground cover of the vegetation on hill slopes and forests. Women folk took their herd into the forests, lopped the lower branches of fodder trees , while their herd fed on the green ground cover. In the evening the women while returning their herd back , also carried home on their backs a heavy loads of fodder tree branches. Most common fodder leaf tree in Himalayas was बांझ oak family tree. In fact lopping of the lower branches of the trees help sun to reach ground and thus helps in growth of greenery on ground. In fact there is a very clear indication of this phenomenon in Vedas. Today बांझ tree have become extinct from Uttaranchal. In fact an NGO from New Zealand that had imported these trees from India long time back have now offered to come and replant these trees in Himalayas. 
British Forest policy was put in place to forbid entry of any animals into the forests., to starve the hill people and force them to leave their homes and come down and take up jobs in Army or else where. 
 All Banjh trees that provided leaf fodder to the animals were to be replaced with planting of Needle Palm trees. 
This resulted in ground in hill forests to be fully covered with pine needles. By mulching effect no green cover on the ground survived.
 Animal by their entry into forests were able to not only feed themselves on the green ground cover but also with  their dung  kept the earth rich with organic fertilizers. 
Green cover on the hill forests in addition to providing forage for animals also has two very significant functions. This greenery by its root system stabilizes and holds the  top soil firmly  and thus  protects against soil erosion on hillslopes during rains. This prevents landslides and cutting of hill sides when river water levels rise during rainy season. This issue was taken up personally by Mira Behan Gandhiji's British disciple with Prime minister Nehru ji and Morarji Desai , when she faced landslides and floods in Ganga in her work on Pashulok in Solani and Rishikesh. But even the Indian prime ministers could not bring about a change in the Indian Forest Policies.    
Second most important contribution of this green cover is the bacteria 'pseudomonas Syringae'   that is formed in the decaying green leaves on the ground. Modern science   has established that these bacteria rise to cloud heights and have a great role in causing rains. These bacteria lower the ice nucleating temperatures of the clouds .The  clouds do not bypass the hills without shedding their rains. In fact in वृष्टि यज्ञ when performed on the ground, that has these bacteria, the fire propels these bacteria to cloud heights and causes early rains. In fact  वृष्टि यज्ञ Ved mantra requests the Maruts these microbes to bring rain to earth. When there is no green cover on the hills due to mulching by pine needles, these is no rain facilitating bacteria. The clouds regularly bypass the hills and turn them gradually into deserts. 
In fact anybody visiting USA may have noticed a very pink cover on Pennsylvania highway slopes. On enquiry I was told that this was called Pennsylvania Crown Vetch that has pink flowers and is planted on slopes on the sides of highways to hold the soil together and prevent any land slides.  I had personally given a write up on this subject to the secretary of of environment minister Shri Juh dev ji during NDA Govt. In fact there are large number of similar plants that are used to hold e soil firmly to prevent landslides. There are of many other measures taken about containing land slides. In fact a small country like Sri Lanka, their Building Research Institute - (Similar to our CBRI Roorkee)  had done some very good research work on the subject of landslides and that has been adopted even by Germany. But our scientists at Roorkee have never looked beyond their desks. 

The fact of the matter is that in India, we have never considered a holistic approach to our environments at all.
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-ऋषि संस्कृति की अनुपम देन  अग्निहोत्र कृषि 

तारीख: 21 Sep 2015 15:02:27
पर्यावरण शुद्धि व जलवायु नियंत्रण के सिद्धांतों पर आधारित वैदिक कृषि पद्धति हमारी देव संस्कृति के क्रांतिदर्शी ऋषियों के ऐसे उत्कृष्ट चिंतन का परिणाम है जिसका आज भी कोई सानी नहीं है। खेती की वैदिक पद्धति भारत की ऋषि संस्कृति का मानव समुदाय को दिया गया ऐसा अनूठा उपहार है जिसकी उपयोगिता उस युग की तुलना में आज कई गुना अधिक है। प्रयोगों व प्रमाणों की कसौटी पर कस कर इस विधा को आधुनिक कृषि विज्ञानी  भी स्वीकार कर चुके हैं। वैदिकयुगीनँ८ यज्ञ पद्धति पर आधारित अग्निहोत्र कृषि का पूर्ण प्रकट विज्ञान आज हमारे सामने उपलब्ध है।
  अग्निहोत्र कृषि की वैदिक पद्धति को  वर्तमान युग में प्रकाश में लाने का श्रेय जाता है महाराष्ट्र के विख्यात संत स्व. गजानन महाराज को जिन्होंने वेदों का गहन अध्ययन कर मानव समाज के समग्र हित में इस पद्धति को न सिर्फ खोज निकाला वरन् इसका प्रयोग कर अपने क्षेत्र के कृषकों को बड़े पैमाने पर उत्तम कृषि के लिए प्रेरित किया। उनके पश्चात भारत की इस वैदिक विधा का देश-विदेश में सफल प्रचार-प्रसार का श्रेय अन्तरराष्ट्रीय कृषि विज्ञानी वसंत परांजपे को जाता है। रासायनिक उर्वरकों के दुष्प्रभावों को देखते हुए देश के प्रगतिशील कृषकों का रुझान पुन: तेजी से कृषि की इस पद्धति की ओर बढ़ रहा है। कारण कि इस पद्धति से उत्पादित फसल गुणवत्ता की दृष्टि से तो बेहतर होती ही है, भूमि की उर्वरा शक्ति भी इससे बरकरार रहती है। साथ ही पर्यावरण को संरक्षित करके इसके द्वारा ईको सिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) का संतुलन भी बरकरार रखा जा सकता है। जैविक कृषि के इन बहुआयामी लाभों को देखते हुए आधुनिक कृषि विज्ञानी इसके प्रचार-प्रसार की ओर विशेष ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। यदि भारत सरकार जैविक कृषि उत्पादों के विपणन की उचित व्यवस्था कर दे तो मेहनत से जी न चुराने वाले कृषि स्नातकों के लिए इसमें उज्ज्वल भविष्य की कई संभावनाएं निहित दिखायी देती हैं।
जैविक कृषि में परम्परागत फसलों जैसे रबी, खरीफ और दलहन की पैदावार के साथ-साथ फलों, साग-सब्जियों, औषधीय पौधों व फूलों की खेती आदि में बेहतर परिणाम सामने आये हैं। कृषि क्षेत्र में नियमित अग्निहोत्र के साथ नेडप कम्पोस्ट (गोबर व जैविक कचरे से बनी खाद) व वर्मी कम्पोस्ट (केंचुआ खाद) के प्रयोग से फसल की गुणवत्ता तो बढ़ती ही है, पैदावार भी अच्छी होती है। हां यह जरूर है कि यह काम श्रम व नियमितता की दरकार रखता है।
देश के विख्यात उद्यान एवं कृषि वैज्ञानिक डा. आरके पाठक के अनुसार नियमित अग्निहोत्र (यज्ञ की विशिष्ट प्रक्रिया) करने से कृषि प्रक्षेत्र व यज्ञ करने वाले व्यक्ति के चारों ओर एक विशिष्ट वातावरण 'औरा' का निर्माण होता है जिसके प्रभाव से आस-पास की नकारात्मक शक्तियां नष्ट हो जाती हैं। इससे मनुष्य व पशुओं दोनों के स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और कृषि उर्वरता का अद्भुत विकास होता है। कृषि भूमि में नियमित अग्निहोत्र करने व यज्ञ भस्म का छिड़काव करने से भूमि की उर्वरा शक्ति में गुणात्मक सुधार देखा गया है।
जैविक कृषि और अग्निहोत्र से कृषि व बागवानी की गुणवत्ता बढ़ाने के कई प्रयोग उत्तर प्रदेश के बाराबंकी, उन्नाव, आजमगढ़, जौनपुर, प्रतापगढ़ जिलों के किसानों ने किये और आशातीत लाभ अर्जित किया। इसके अलावा मध्य प्रदेश के खरगौन जिले के बखारा, भागफल, नंदिया, घोनाथ, घोसली, बेगान, गजवादन और महाराष्ट्र में थाणे के शाहपुर, भिवण्डी, वाडा, तालुका के साथ तपोवन (मानस फार्म) के अलावा कर्नाटक के बेलगाम क्षेत्र में भी जैविक कृषि के नतीजे खासे उत्साहवर्धक हैं।
 भारत में जैविक कृषि के सफल प्रयोगों से प्रेरित होकर आस्ट्रेलिया, कनाडा, अस्ट्रिया, पोलैण्ड, जर्मनी, रूस, अमरीका, कम्बोडिया, पेरू, चिली अर्जेन्टीना आदि देशों में भी जैविक कृषि व अग्निहोत्र के द्वारा भूमि व मनुष्य दोनों की सेहत को सुधारने के प्रयास युद्धस्तर पर  शुरू हो चुके हैं।
अग्निहोत्र कृषि का मूल सिद्धांत
अग्निहोत्र कृषि का अभिप्राय अग्नि द्वारा व्यक्ति, कृषि प्रक्षेत्र व वायुमंडल को पवित्र करने की प्रक्रिया से है। इस प्रक्रिया द्वारा वायुमंडल एवं वातावरण में प्रकृति की स्वाभाविक शक्तियों, ज्योतिषीय संयोजनों एवं मंत्र शक्ति से ऐसे परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है जिससे सूर्य और चन्द्रमा से प्राप्त होने वाली उच्च शक्ति युक्त ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को और अच्छे ढंग से ग्रहण किया जा सके। यह प्रक्रिया पृथ्वी के ऊर्जा चक्र को इस प्रकार नियंत्रित करती है, जिससे यह ऊर्जा प्रकृति के अनुरूप प्राणीमात्र के कल्याण के लिए सकारात्मक दिशा में प्रवाहित होती रहे।
यज्ञाहुति देने की विधि
एक ताम्र पात्र में से अक्षत के कुछ दाने  बायीं हथेली में लेकर गाय के घी की कुछ बूंदें उस पर छिड़ककर अच्छी प्रकार मिलाकर ठीक सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय निर्धारित मंत्रों का उच्चारण करते हुए प्रज्ज्वलित अग्नि में श्रद्धाभाव के साथ दो-दो आहुतियां अर्पित की जाती हैं।
सूर्योदय का मंत्र  
र्योदय का मंत्र
ॐ सूर्याय स्वाहा इदम् सूर्याय इदम् न मम्
(पहली आहुति अर्पित करें)।
ॐ प्रजापतये स्वाहा
इदम् प्रजापतये इदम् न मम्
(दूसरी आहुति अर्पित करें)।
सूर्यास्त का मंत्र
ॐ अग्नये स्वाहा
इदम् अग्नये इदम् न मम्
(पहली आहुति अर्पित करें)।
ॐ प्रजापतये स्वाहा
इदम् प्रजापतये इदम् न मम्
(दूसरी आहुति अर्पित करें)।
अग्निहोत्र के समय बरती जाने वाली सावधानी
इस अग्निहोत्र  में समय की पाबंदी (स्थान विशेष का सूर्योदय तथा सूर्यास्त समय) का विशेष महत्व है।  आहुति देने के बाद लौ बुझने तक शांत चित्त भाव से बैठे रहना चाहिए तथा अग्निहोत्र भस्म को अगले दिन एकत्रित कर मिट्टी के पात्र में एकत्र कर लेना चाहिए।
अग्निहोत्र कृषि के विविध प्रकार
व्याहृति यज्ञ
यह अग्निहोत्र की तरह नित्य नहीं बल्कि नैमित्तिक यज्ञ है। हर कृषि सम्बन्धी कार्य के पूर्व व पश्चात इसे करना चाहिए।  अग्निहोत्र पात्र के निकट उसी प्रकार के दूसरे पात्र में व्याहृति होम करने के लिए गाय के गोबर के कण्डे जलाएं। इस हवन के लिए निर्धारित चार वेद मंत्र इस प्रकार है-
ॐ भू: स्वाहा, अग्नये इदम न मम।
ॐ भुव: स्वाहा, वायवे इदम न मम
ॐस्व: स्वाहा, सूर्याय इदम् न मम्।
ॐ भू भुव: स्व: स्वाहा,
प्रजापतये इदम् न मम।
प्रत्येक मन्त्र बोलते समय स्वाहा के उच्चारण पर सिर्फ एक बूंद गाय का घी अग्नि में अर्पित किया जाय। इस यज्ञ में चार बूंद गाय के घी के अलावा अन्य किसी भी पदार्थ की आहुति नहीं दी जाती। भू:, भुव:, स्व: इन तीनों शब्दों का आशय क्रमश: भूमण्डल, वायुमण्डल और आकाश हैं। अन्त में चौथी आहुति इन तीनों व्याहृतियों का उच्चारण एक साथ करके जो अग्नि, वायु और सूर्य के जनक हैं, उन प्रजापति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने को दी जाती है।  होम किये गये घी के जलकर वायुरूप होने तक यथास्थान बैठे रहना चाहिये। यज्ञ पात्र शीतल होने के पश्चात अग्निहोत्र के पात्र को उठाकर उचित स्थान पर रख देना चाहिए।
त्र्यम्बकम् यज्ञ
अग्निहोत्र कृषि में संधिकालों का अत्यधिक महत्व है। जिस तरह सूर्योदय-सूर्यास्त के संधिकालों में नियमित अग्निहोत्र किया जाता है, उसी तरह पाक्षिक संधिकालों अर्थात् अमावस्या-पूर्णिमा को भी विशिष्ट यज्ञ किया जाता है। इसे  त्र्यम्बकमयज्ञ कहते हैं। इसका मंत्र इस प्रकार है-
ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्द्धनम्।
उर्वाकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् स्वाहा।
इस मंत्र के उच्चारण के साथ स्वाहा बोलने के साथ प्रज्वलित अग्नि में सिर्फ एक बूंद गाय का घी अर्पित किया जाता है। चार लोग एक घण्टा देकर यह यज्ञ कर सकते हैं। चार लोगों के एक घण्टे के यज्ञ के लिए 200 ग्राम घी पर्याप्त है।  यह यज्ञ खेत में ही करना चाहिए। इस यज्ञ के लिए ईंटों से जमीन में चौकोर पात्र भी बनाया जा सकता है। पात्र में राख अधिक होने पर उसे निकालते रहना चाहिये और नये कण्डे लगाकर अग्नि लगातार इतनी प्रज्ज्वलित रखनी चाहिये कि एक बूंद घृत की आहुति से लौ निकलती रहे।
यह यज्ञ कृषि भूमि से प्रदूषण कारक हानिकारक तत्वों व रोगाणुओं को प्रतिबंधित करता है। त्र्यम्बकम् यज्ञ की शुरुआत व समापन व्याहृति होम से ही किया जाना चाहिए। यदि अमावस्या-पूर्णिमा को यज्ञ न कर सकें तो खेती में बोनी, कटनी आदि कृषि कार्यों  के दौरान इसे करना फसल के लिए काफी लाभदायी होता है। नित्य अग्निहोत्र और समय-समय पर ये दो नैमित्तिक यज्ञ और इनकी भस्म का उपयोग, यह देश की प्राचीन कृषि पद्धति का मूल आधार है।
सुविख्यात कृषि विज्ञानी श्री वसंत परांजपे ने जर्मनी तथा पोलैण्ड के कुछ वैज्ञानिकों के साथ कृषि प्रक्षेत्र पर प्रतिध्वनि ऊर्जा से अतिसूक्ष्म (विलक्षण ऊर्जा) के उत्सर्जन एवं उपयोग का मानकीकरण किया है। 
इस प्रयोग में कृषि प्रक्षेत्र के मघ्य अग्निहोत्र के लिए  फूस की कुटी बनाकर प्रतिध्वनि स्थल की स्थापना को नियत संख्या में ताम्रपात्रों को विशेष मंत्रोचरण द्वारा ऊर्जावान कर उपयोग किया जाता है। इस झोपड़ीनुमा छतरी के मध्य निर्धारित गहराई का गड्ढा खोदकर उसमें एक ताम्रपात्र को स्थापित कर, ठीक उसके ऊपर अग्निहोत्र करने वाले व्यक्ति के हृदय चक्र तक की निर्धारित ऊंचाई तक इंर्ट की चिनाई कर उस पर एक ताम्रपात्र रखा जाता है। इसके सामने ठीक पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण दिशा में प्रतिध्वनि स्थल स्थापित किये जाते हैं। प्रक्षेत्र छोटा होने पर बाहरी किनारे पर इनका स्थापन किया जा सकता है। सूर्योदय व सूर्यास्त के अग्निहोत्र विशेष रूप से स्थापित किये गये इन केन्द्रों में करने पर विशेषरूप से फलदायी देखे गये हैं। प्रयोगों में पाया गया है कि  नियमित अग्निहोत्र से कृषि प्रक्षेत्र पर उगायी जा रही फसलें, पशु तथा निवास कर रहे व्यक्ति के स्वास्थ्य में सुधार, स्थान विशेष में प्रदूषण की कमी, फसल उत्पादन में आशातीत बढ़ोत्तरी तथा खरपतवार तथा हानिकारक कीटों एवं व्याधियों का संक्रमण  कम होता जाता है। साथ ही अग्निहोत्र के ताम्रपात्र में जलती हुई अग्नि एवं मंत्रोच्चारण से उत्पन्न प्रतिध्वनि से वातावरण पर ऐसा प्रभाव पड़ता है जिससे कि पौधों की कोशिकाओं, मानव एवं प्राणिमात्र को नयी जीवनीशक्ति मिलती है। साथ ही अग्निहोत्र की भस्म (राख) का प्रयोग कीटनाशक व फसल के ऊतक संकुचन प्रभावों को उत्पन्न करने में कारगर होता है। फार्म प्रक्षेत्र पर यदि किसी कारणवश नियमित रूप से अग्निहोत्र न हो सके तो एक किग्रा यज्ञ भस्म का छिड़काव प्रति एकड़़ भूमि पर किया जा सकता है। भस्म का प्रयोग अनाज तथा दलहनों के भण्डारण हेतु भी किया जा सकता है।
कीटनाशकों का निर्माण व उपयोग विधि
यज्ञ भस्म व गोमूत्र को निर्धारित अनुपात में मिलाकर 25 दिनों तक फर्मन्टेशन (खमीर उठने) के लिए रखें। तत्पश्चात इस मिश्रण को पानी में (1:4 के अनुपात में) मिलाकर बीज/पौध उपचार या रोग/कीट प्रबंधन के लिए  तीन दिनों तक प्रात: एवं सायंकाल अच्छी प्रकार मिलाते हुए निथार कर फसल में छिड़काव करें। उपरोक्त घोल को छिड़काव पूर्व दस मिनट तक घड़ी की सुई की दिशा तथा विपरीत दिशा में भंवर बनाकर मिलाने से प्रभाव में गुणात्मक असर पड़ता है। जैविक कीटनाशक (होमा बायोसोल) का अनुभूत प्रयोग 200 लीटर क्षमता वाले टैंक भर जैविक कीटनाशक होमा बायोसोल  बनाने के लिए  आवश्यक सामग्री -2 किग्रा. यज्ञ भस्म,  20 किग्रा गाय का ताजा गोबर, 10 किग्रा. केंचुए की खाद, 130 किग्रा.  कार्बनिक अवशेष, 80 लीटर अग्निहोत्र भस्म मिश्रित जल व श्री यंत्र ।
विधि : 200 लीटर क्षमता वाले टैंक में श्री यंत्र स्थापित कर उसमें ऊपर से ताजे गोबर को डाल दें, अग्निहोत्र की राख ऊपर से छिड़क दें, तत्पश्चात केंचुआ खाद व कार्बनिक अवशेष डाल दें। उपरोक्त प्रक्रिया दो या तीन बार अपनाएं एवं गाय के ताजे गोबर की ऊपरी परत पर बिछायें। इस घोल में से सात दिन के बाद टेैंक से गैस निकलनी शुरु हो जाती है, जिसको पात्र में एकत्रित करके गोबर गैस ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। साथ ही दो सप्ताह बाद गाढ़े तरल खाद को प्राप्त किया जा सकता है। इस होम बायोसाल का प्रयोग प्राय: सूर्यास्त के पश्चात त्र्यम्बकम् मन्त्र के साथ करना विशेष रूप से लाभदायी होता है। अपनी जमीन, सेहत और पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति विशेष रूप से फिक्रमंद व जागरूक लोग जैविक कृषि व होमा फार्मिंग को बतौर करियर अपनाकर उज्ज्वल भविष्य की राह प्रशस्त कर सकते हैं।
 (आलेख केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान में
कृषि वैज्ञानिक डा. रामकृपाल पाठक के नेतृत्व
में हुए शोध-अध्ययन   आधारित)
1़    विशिष्ट आकार(पिरामिड) का ताम्र अथवा मिट्टी का पात्र।
2़    गाय के गोबर से बनाये गये पतले उपले।
3़    देशी गाय का घी।
4    ज़ैविक पद्घति द्वारा उत्पादित बिना पॉलिश का अक्षत (बिना टूटा चावल)।
ताम्र पिरामिड
अपनी विशिष्ट आकृति के कारण ताम्र पिरामिड विभिन्न प्रकार की ऊर्जा को ग्रहण करने की अद्भुत क्षमता रखता है। यह पिरामिड टरबाइन का कार्य करता है। सूयार्ेदय के समय जो विशिष्ट ऊर्जाएं प्रज्ज्वलित ताम्रपात्र में एकत्रित होती हैं वे आहुति तथा मन्त्रोच्चारण के साथ प्रबलतम होकर आकाश में 12 किमी. ऊंचाई तक फैल जाती हैं। सूर्यास्त के समय ये ऊर्जाएं इस विशिष्ट आकृति से विलग होकर आकाश में समाहित हो जाती हैं।
अक्षत (बिना टूटे चावल)
पालिश करने से चावल के पोषकीय गुणों का हृास होता है। अत: चावल के वही दाने प्रयोग करने चाहिए जो कि टूटे न हों।  यदि जैविक विधा द्वारा उत्पादित तथा गांव में मूसल उर्वारुक द्वारा निकाला गया चावल उपलब्ध हो सके तो उत्तम रहेगा।
गाय का घी
अग्निहोत्र में प्रयोग के समय देशी गाय का घी अदृश्य ऊर्जाओं के वाहक के रूप में काम करता है एवं शक्तिशाली ऊर्जा इसमें बंध जाती है। चावल के साथ दहन के समय इससे आक्सीजन, इथोलीन आक्साइड, प्रोपाइलीन आक्साइड एवं फार्मेल्डिहाइड गैसें उत्पन्न होती हैं। फार्मेल्डिहाइड जीवाणुओं के खिलाफ प्रतिरोधी शक्ति प्रदान करती है व प्रोपाइलीन आक्साइड वर्षा का कारण बनती है।
गाय के गोबर से बने शुष्क उपले (कण्डे)
गाय के ताजे गोबर से पतले उपले बनाकर धूप में सुखा लिए जाए। अग्निहोत्र की आग इन्हीं सूखे उपलों से तैयार की जाए। गाय के गोबर में एक्टिनोमाइसिटीज नामक सूक्ष्म जीव काफी मात्रा में पाये जाते हैं। भारत एवं अन्य देशों जैसे अमरीका, यूरोप एवं एशिया के विभिन्न देशों में गाय के गोबर लेपन से रेडियोधर्मिता कम करने के प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं।
अग्निहोत्र की अग्नि प्रज्ज्वलित करने की विधि
ताम्र पिरामिड में सर्वप्रथम एक चपटे आकार के उपले का टुकड़ा केन्द्र में रखते हैं। उसके ऊपर उपलों के टुकड़ों को इस प्रकार रखा जाता है जिससे पात्र के मध्य वायु का आवागमन सुचारु रूप से हो सके। उपले के एक टुकड़े में गाय का थोड़ा घी लगाकर अथवा घी चुपड़ी रुई की बत्ती की सहायता से अग्नि को प्रज्ज्वलित किया जाता है। शीघ्र ही रखे हुए अन्य उपले भी आग पकड़ लंेगे। आवश्यकता पड़ने पर हस्तचालित पंखे का प्रयोग अग्निदाह करने के लिए किया जा सकता है।
 घी के स्थान पर अन्य किसी भी प्रकार के तेल का प्रयोग करने व मुंह से फूंककर अग्नि प्रज्ज्वलित करने की मनाही है।
--- पूनम नेगी