सोमवार, 16 मार्च 2020

हमारी उपेक्षित राष्ट्रीय सौर दिनदर्शिका भाग १








हमारी उपेक्षित राष्ट्री सौर दिनदर्शिका

हमारे पाठ्यक्रमोंमें और समाजमानसमें अनुल्लेखित रखी गई कई महत्वपूर्ण बातोंमें एक है हमारी राष्ट्रि सौर दिनदर्शिका । इसकी जानकारी लोकमानसतक पहुंचानेहेतु यह लेखनप्रपंच किया है।

प्रतिदिन भोरमें सूर्योदय और संध्यामें सूर्यास्त होते है सूर्यकी इस गतिके कारणभी सजीव प्राणियोंके दैनंदिन जीवनमें परिवर्तन होते हैं। मुख्यया नींदकी क्रिया सूर्यसे ही संचलित है। इसलिए स्पष्ट है कि अनादिकालसे ही मनुष्यकी कालगणनामें सूर्यका विचार महत्वपूर्ण रहा हैसूर्यकी यह भासमान गति है जो पूर्वसे पश्चिम होती दीखती है, प्रत्यक्षतः सूर्यके नही वरन् पृथ्वीके भ्रमणके कारणसे दीखती है।

पृथ्वी अवकाशमें अपनी धुरीपर घूमती है, इसलिए दिन और रात बनते हैंघूमती हुई पृथ्वीका जो भाग सूर्यके सम्मुख आता है, वहाँ दिन होता है और जो भाग सूरजसे छिपा रहता है, वहाँ रात होती है। इसके साथही पृथ्वी एक दीर्घवृत्ताकार मार्गपर सूर्यके चारों ओर परिक्रमा करती है। ऐसा सूर्य और पृथ्वीके बीच गुरुत्वाकर्षणके कारण होता है। इस दीर्घवृत्तका एक चक्कर पूरा करनेके लिए पृथ्वीको लगभग ३६५ दिन लगते हैं।

तने लम्बे अन्तरालकी गणना मनुष्यने कैसे की ? सरल उत्तर है - रातके आकाशको देखकर। हम भी यदि आकाश निरीक्षण करें तो देख सकते हैं कि प्रतिसंध्या पूर्वसे उगनेवाले नक्षत्र अलगअलग होते हैं और उनमेंसे अधिकांशकी स्थिति एकदूसरेकी तुलनामें नहीं बदलती है। वास्तवमें, सूर्य, चंद्रमा, और मंगल, बुध गुरु, शुक्र, शनि, तथा ध्रुवतारेको छोड दें तो अन्य सभी तारोंकी आपसी स्थिति बदलती नही है। उनके छोटे छोटे समूह आपसमें कुछ विशिष्ट आकार बनाते हैं जिके आधारपर उस समूहको पहचाना जा सकता है। हमारे पूर्वजोंने आकाशमें पूर्वकी ओरसे एकके बाद एक उदित होनेवाले ऐसे २७ समूह पहचानकर प्रत्येकका नाम निश्चित किया जिन्हें नक्षत्र कहते हैं

मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनिको नक्षत्रोंसे अलग ग्रहोंके रूपमें पहचानकर उनका नामकरण किया गया और उनके भ्रमके विषयमें जानकारी इकट्ठी की गई गणित और खगोलविज्ञानमें पारंगत हमारे पूर्वजोंने हजारों वर्ष पहले अपने अध्ययनमें पाया कि सूर्य, चंद्रमा, तथा मंगल, बुध, गुरु, शुक्र,शनि, सातों अलग-अलग भ्रमणवेगसे इन नक्षत्रोंके बीच घूमते हैं

भ्रमणवेग समझनेहेतु हम पृथ्वी घूमती है कहनेकी अपेक्षा अल्पकालके लिये कहेंगे कि सूर्य ता है । तो सूर्यको एक नक्षत्रसे आरंभ कर घूमते हुए वापस उसी नक्षत्रमें लौटनेके लिए लगभग ३६५ दिन लगते हैं। इस समय अन्तरालका नाम पडा संवत्सर सूर्य किस नक्षत्रमें है यह जाननेके लिये सूर्यसे ठीक विपरीत दिशाके नक्षत्रका आधार लिया जाता है।

चंद्रमा भी एक नक्षत्रसे आरंभ कर लगभग एक दिनमें एक नक्षत्र पार करता हुआ २७ नक्षत्रोंका एक चक्कर पूरा करता है । लेकिन इस बीच सूर्यकी परिक्रमा करती पृथ्वी आगे निकल जाती है और चंद्रमा भी उसके साथ खींचा चला जाता है। इस कारण चंद्रमाको अपना एक चक्कर पूरा करके उसी नक्षत्रमें लौटनेके लिये लगभग साढेउनतीस दिन लगते हैं । इन दिनोंमें चंद्रकोरका अर्थात् चंद्रकी कलाका आकार भी बढता-घटता है अतः उसे देखकरही जनसामान्यको तिथि ज्ञात हो जाती है। इन तिथियोंको प्रतिपदा, द्वितिया .... इत्यादि पर्णिमा अथवा अमावास्यातक और पूरे पखवाडेको शुक्ल एवं कृष्ण पक्षकी संज्ञा है।

अब ध्रुवतारेकी बातही अलग है। वह आकाशके उत्तरी भागमें एक ही स्थान पर अटलभावसे रहता है। सच पूछो तो पूरा सौरमंडलही ध्रुवकी परिक्रमा करता है। अपनी धुरीपर घूमती पृथ्वीका अक्ष इसीकी दिशामें होता है। अतः आकाशके अन्य नक्षत्र घूमते हुए दीखते हैं परन्तु यह स्थिर दीखता है। ही नहीं, पृथ्वीद्वारा सूर्यपरिक्रमा का जो मार्ग है उसके साथ पृथ्वीका अक्ष समकोण नहीं बनाता वरन ध्रुवकी ओर मुडा होनेके कारण २३ अंशका कोण बनाता है। इसलिए सूर्य की किरणें पृथ्वीपर सर्वकाल लम्बरूपसे नही पडतीं वरन विभिन्न भूभागोंमें कम या अधिक पडती हैं इसलिए वर्षमें सारी रातें और दिन समान नही होतेवर्षके केवल दो दिन ऐसे हैं, जब दुनिया भर में १२ घंटे का दिन और १२ घंटे की रात होते हैं। इन्हें वसंतसंपात और शरदसंपात कहा जाता है। अन्य दिनोंमें दिनमान और रात्रीमानके परिमाण अलग होते हैं। ये सारी गणनाएँ भारतमें हमारे पूर्वजोंने हजारों वर्ष पूर्व की।

वसंतसंपातके बाद वसंत, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु आते हैं और शरदसंपातके बाद शरद, हेमंत और शिशिर ऋतु आते हैं । इस प्रकार, भारतमें छः ऋतुओंका निसर्गचक्र है। ऋतुकालके अनुरूप वातावरणमें शीतोष्ण इत्यादि विभेद होते हैं, इसीसे कभी धान्यके बीज अंकुरित होते हैं, कभी फूल खिलते हैं, ल बनते हैं, धा ता है, इत्यादि। इन बातोंका निरीक्षण कर सहा ऋतुओंके बार महिनोंके ना निश्चित हुए वसंत ऋतुके दो मास मधु और माधव कहलाये अर्थात् फूलोंमें मधसंचय होकर आगे धारणाका आरंभ करानेवाले मास

ग्रीष्म ऋतूके महिने शुक्र शुचि नामक हैं। तब सूर्यकी ऊष्मासे जमीन कर ऊर्जा धारण करती है जो आगे बीज अंकुरणके लिये आवश्यक होती है। इसीलिये भारतीय कृषि परंपरामें ग्रीष्ममें नई फसल नही बोई जाती वरन धरतीको अपनी ऊर्वरा शक्ति पानेके लिये, सूर्यमें तपनेके लिये छोड दिया जाता है। शुचिमासमें मानसूनपूर्व वर्षासे धरती शुद्ध होने लगती है । अतएव ग्रीष्मके महने शुक्र शुचि कहलाये।

वर्षा ऋतुके दो महने नभ नभस्य हैं । यहाँ नभस्य शब्दका अर्थ है नभमाससे बना या नभ मासके फलसे अगला देनेवाला शरद ऋतुके इषमास र्जमास होते हैं। इषका अर्थ रस है, अर्थात शरद ऋतुके इषमासमें खेतके अनाज और फलोंमें रस भरना आरंभ होता है जबकी ऊर्जमासमें वे पककर तैयार होते हैं। हेमंत ऋतुके सह व सहस्य मास होते हैं तो शिशिर ऋतुके तपतपस्य हैंसह व सहस्यके महीनोंमें शीत और सर्दी सबसे ज्यादा प्रभाव होती है। लेकिन तप व तपस्याके महीनोंमें पृथ्वीपर गर्मी बढ़ने लगती है और दिन बड़ा होता चलता है

इस तरह, मधु-माधव, शुक्र-शुची, नभ-नभस्य, इष-उर्ज, सह-सहस्य और तप-तपस्य जैसे नाम सूर्य से या ऋतुचक्रके संबंधसे बनाये गए थे। ये अवलोकवैदिक काल में भारतीय ऋषियोंने किये इसी कारण ये सभी नाम भारतीय मूलके ही हैं

अब आते हैं चांद्रमास नामोंकी ओर। आकाश के नक्षत्रोंको अश्विनी, भरणी,कृत्तिका........, रेवती इस प्रकारसे नामित किया गया है ... और उन सभीका पति या स्वामी चंद्रको माना जाता है। एक यजुर्वेदिक मंत्र कहता है कि सूर्यके तेजसे ही चंद्रमाका तेज उत्पन्न हुआ फिर भी चंद्रप्रकाशका एक अलग महत्व है। इसका कारण कई ग्रंथोंमें बताया गया है कि जिस प्रकार अंकुरित होनेके लिये सौर ऊर्जाकी आवश्यकता है, उसी प्रकार रस और पोषण के लिए चंद्रप्रकाश भी आवश्यक है।

आइए अब १२ पंचांगमासोंको नाम देने की विधि देखें। ये नाम ऋतुआधारित नामोंसे अलग हैं, यह महत्वपूर्ण है। पौर्णिमाके दिन चंद्रमा सूर्य के ठीक सामने होता है। उस दिन चंद्रमा जिस नक्षत्रमें होगा उसीसे उस महीनका नाम पडता है। आकाशमें नक्षत्रोंके विस्तार बडे-छोटे हैं। अतः २७ नक्षत्रोंमें केवल १२ नक्षत्र ित्र, िशाख, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढा, श्रवण, पूर्वाद्रपद, अश्विनि, कृत्तिका, मृग, पुष्य, घा और उत्तराफालगुन नक्षत्रोंमें चंद्रमा होनेके ही दिन पौर्णिमा होती है अतः मासोंके नाम इन्हींके नामसे नियत हैं। इसका अर्थ भी है कि पौर्णिमाका चंद्रमा कभी भी भरणी, रोहिणी, र्द्रा, पुनर्वसु, ेषा, पूर्र्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाती, अनुराधा, मूल, उत्तराषाढा, धनिष्ठा, शततारका, उत्तराभाद्रपदा और रेवती नक्षत्रोंमें नही आता है। यह महत्वपूर्ण है कि यज्ञोंके कई अनुष्ठान पौर्णिमा, अमावास्या, और अष्टमीके दिन किये जाते हैं।

अब देखते हैं कि यह सप्ताहके सात दिन कैसे नियत किये जातहै। पृथ्वीसे भासमान गतिमें शनिकी गति सबसे धीमी है, फिर गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध जबकि चंद्रमाकी गति सबसे तीव्र है। अब अहोरात्र के २४ घंटोंको होरा (मध्यके दो अक्षर) कहते हैं। सूर्योदयसे पहला होरा (घंटा) सूर्यका बताकर उस दिनको रविवार नामित किया गया। अगले होरा क्रमशः शुक्र, बुध, चंद्रमा, शनि, गुरु, मंगल, सूर्य इस प्रकार चक्राकार गिननेपर अगले दिन सूर्योदयके समय चंद्रमाका होरा है अतः यह सोमवार हुआ। उससे अगले दिनके सूर्योदयपर मंगलका होरा..... फिर क्रमशः बुध, गुरु, शुक्र और शनिके होरा पडते हैंयहसप्ताह के सात दिनोंके नाम है। पद्धति इतनी वैज्ञानिक है कि आज दुनियाभरमें सप्ताहके सात दिनोंका यही क्रम मान्य है जो हमें सदा ग्रहोंकी कम-अधिक गतिका स्मरण दिलाती रहती हैै।

इस प्रकार भारतीयोंने सूर्यकी गतिकमहत्व पहचानकर ऋतु आधारित संवत्सर मासोंके नाम नियत किये साथही नक्षत्रमार्गपर चंद्रमाकी गति और इसकी कलाओंको देखते हुए ांद्रपंचां बनाया। सामान्य व्यक्तिके लिये चंद्रमासे कालगणना करना अधिक सरल था।

अमावास्याके दिन आकाशमें चंद्रमा और सूर्य एक ही अंशपर उगते है। अगले दिन, चंद्रमा १२ अंश या ४८ मिनट पीछे रह जाता है, और वहांसे दोनोंके बीच अंतर बढ़ता है साथ ही चंद्रका आकार बढ़ता है। तो सामान्यजन तिथियोंको सरलतासे केवल आँखोंसे देखकर जान लेता है। चंद्रपंचांकी लोकप्रियता इसी कारण से है। बाद में जब भारतमें फलज्योतिष शास्त्रका उदय हुआ तबसे चंद्रपंचांगका महत्व और बढ़ गया।

सारांश यह कि वैदिककालसे ही भारतमें ांद्रमास, सांवत्सर मास, वार इत्यादिकी गणना, ऋतुचक्र का ज्ञान, उनके अनुसार कृषिव्यवस्था इत्यादि गणना विकसित हुजो अठारहवीं सदीतक चलीफिर अंग्रेजोंके शासनकालमें उनका कैलेंडर लागू हुआ। ब्रिटिशोंके जानेके बाद, भारतीय संसदीय समितिद्वारा काफी परिचर्चा आदि प्रक्रियाके पश्चात राष्ट्रीय सौर दिनदर्र्शिकाकी घोषणा हुई जिसे १ चैत्र १८७९ अर्थात २२ मार्च १९५७ से लागू किया गया। आइए इसे अगले भागमें देखेंगे
---- लीना मेहेन्देले
leena.mehendale@gmail.com

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