क्या
है हमारी राष्ट्रीय
सौर दिनदर्शिका ( फेसबुकहेतु संक्षिप्त)
भारतसे
विदेशी राजको निकालनेके
पश्चात तत्कालीन लोकसभाके
संसदमे उपस्थित सभी सदस्योंके
विचार मंथनसे निश्चित
हुआ कि भारतवर्षकी एक अपनी
राष्ट्रीय कालगणना होनी
चाहिये। इस कार्यहेतु
प्रसिद्ध वैज्ञानिक
श्री मेघनाद साहाकी
अध्यक्षतामे कॅलेंडर रीफॉर्म
समितीका गठन किया गया।
समितीकी
अनुशंसाओंके
परिप्रेक्ष्यमे सौरचक्रपर
आधारित राष्ट्रीय कालगणनाको
संसद द्वारा स्वीकृत किया
गया। स्वीकृतीकी जानकरी “सूचना
एवं प्रसारण मंत्रालय” द्वारा
1957
को
प्रेषित की गई। यह
स्वीकृत दिनदर्शिका 1
चैत्र
1879
अर्थात्
ग्रेगॅरियन
दि.
22 मार्च1957
से
लागू हुई।
राष्ट्रीय
दिनदर्शिकाको राष्ट्रीय
प्रतीकोंमे
सम्मिलित किया गया।
दैनंदिन व्यवहारमे इस दिनदर्शिकाका
प्रचलन होने
हेतु तत्कालीन
गृहमंत्रालयद्वारा एक परिपत्र
(F/42/16/57
PUB I, Dt. 11-12-57) सभी
राज्य सरकारोंको
तथा केंद्रशासित प्रदेशोंको
प्रेषित किया गया। इस परिपत्रमे
स्पष्ट रूपसे उल्लेखित है कि
सभी राज्य तथा केंद्रशासित
प्रदेशोंमे,
इस
दिनदर्शिकाके विषयमे जन जागृती
कराई जाये
तथा इसका दैनंदिन व्यवहारमे
प्रयोग कराने हेतु
आवश्यक कार्यवाही
की जाये।
राष्ट्रीय
दिनदर्शिकाका उपयोग अधिकतम
मात्रामे विदेश मंत्रालयद्वारा
किया जाता है। सभी अंतरराष्ट्रीय
समझौतोंमे ग्रेगॅरियन
दिनांकके साथ राष्ट्रीय
दिनांक लिखना अनिवार्य
है। परन्तु दुर्भाग्यवश
इस दिनदर्शिकाका
चलन अभीतक जनमानसके
बीच नही पहुँचा
है।
राष्ट्रीय
दिनदर्शिका प्रसार तथा
प्रचार करने हेतु
ग्रेगॅरियन सन २००५
अर्थात शक १९३५ में
औरंगाबाद (महाराष्ट्र)
शहरमे
राष्ट्रीय दिनदर्शिका
प्रसार मंचकी स्थापना
की गई।
संस्थाके सदस्य भारतभरमे,
विशेषतः
महाराष्ट्र,
गुजरात,
मध्यप्रदेश,
राजस्थान,
आंध्रप्रदेश,
कर्नाटक,
प.
बंगाल,
आसाम,
व
दिल्लीमे कार्यरत है
और अपने छोटे स्तरपर इसे लागू
करवानेका प्रयास करते रहते
हैं। इनके प्रयासोंके कारण
विविध बँकोंमें दिये
जानेवाले धनादेशोंपर राष्ट्रीय
दिनांक लिखना संभव है और ऐसे
धनादेशका भुगतान ना करनेपर
उस-उस
बँकपर रिजर्व बँकद्वारा दण्ड
लगाया जाता रहा है। प्रसार
मंचका आवाहन है कि
आप जब कोई धनादेश राष्ट्रीय
दिनांकके साथ देते हं तो उसकी
स्कँन प्रति अवश्य मंचको भेजें
ताकि प्रचारका कार्य अधिक
प्रभावशाली हो। आपको दिक्कत
आनेपर यह मंच
कई प्रकारसे सहायता भी करता
है।
जनसामान्यके
बीच राष्ट्रीय दिनदर्शिकाकी
स्वीकार्यतामें कठिनाइयाँ
क्या हैं इसपर विचारमंथन
करते हुए देखा
कि पहला
प्रमुख मुद्दा जानकारी न
होनेका है। परन्तु दो अन्य
महत्वके कारण भी हैं जिनकी
चर्चा
यहाँ
प्रस्तुत है।
हमारे
कृषिप्रधानदेशमें
सौर ऋतुचक्रका विशेष
महत्व है,
इसी
लिये हमारे कई
पर्व,
सप्ताहके
वार के आधारपर मनाये जाते हैं।
इसी प्रकार
पंजाब,
तमिळनाडू
और आसाम जैसे राज्योंमे
सूर्यके राशी-संक्रमणानुसार
वार्षिक कालगणना होती है।
वैदिक
कालखण्डमें
भी सूर्य
और उससे
उत्पन्न
ऋतुचक्रोंका
महत्व
ध्यानमें
रखकर
ऋतुओंके
आधारसे
बारह
महीनोंके
हेतु
मधु-माधव-शुचि-शुक्र
इस प्रकार
बारह नाम
प्रचलनमें
थे। साथही
चंद्रमाको
देखकर
तिथी-निर्धारण
अत्यंत
सुलभ
होनेके
कारण
चांद्रपंचांगका
भी महत्व
है। वैदिक
यज्ञयाग आदि चांद्रतिथियोंके
आधारसे होते थे।
तो
चांद्रपंचांगमें
नक्षत्रोंके
आधारसे
मासोंके
नाम
चैत्र-वैशाख-ज्येष्ठ
आदि नियत
हुए थे।
कालान्तरमें
चांद्रतिथीकी
सुलभताके
कारण
ऋतु-आधारित
नाम,
जो
वास्तवमें
कृषिसंबंधी
मार्गदर्शन
करते हैं
वे पीछे
पडकर
विस्मृत
हो गये।
प्रायः
सभी
व्रतसंबंधी व धार्मिक
विधियाँ
चांद्र-तिथियोंसे
निश्चित
होने लगीं
अतः
चांद्रमासी
तिथियाँ
जनमानसमें
आधारभूत
हो गईं।
विचारमंथनमें
पाया गया कि
राष्ट्रीय सौर
कॅलेण्डरमें
स्वीकृत
महीनोंकी
तिथियाँ
तो सौरचक्रसे
चलती हैं
परन्तु
महीनोंके
नाम वही
तय किये
जो धार्मिक
-
चांद्रपंचांगके-
माहके
नाम हैं
(चैत्र,
वैशाख
.....
इत्यादि)
।
इस प्रकार
सौर व
धार्मिक
माहका
नाम एक ही होते
हुए भी
तिथियाँ
भिन्न होनेसे
राष्ट्रीय दिनदर्शिका तथा
धार्मिक दिनदर्शिकाओंके बीच
संभ्रमकी
स्थिति
बनती है। राष्ट्रीय
कॅलेण्डरमें
चैत्र ९
पढनेपर
लगता है
कि यह
चैत्र
नवमी (रामनवमी)
है,
परन्तु
वास्तवमें
उस दिन
कोई अन्य
तिथी होती
है।
इसी
संभ्रमके कारण यह
दिनदर्शिका भारतवर्षके दैनंदिन
व्यवहारमे प्रचलित नही हो
सकी,
और
न हो
सकेगी। केवल
सरकारी परिपत्रकोंमें
इसे दुय्यम स्थान
प्राप्त है।
यदि
हमे हमारी राष्ट्रीय
दिनदर्शिकाको उचित स्थान
देना है तथा दैनंदिन व्यवहारमे
प्राथमिक रूपसे प्रचलित करना
है तो उसका
सरल सा
उपाय है
कि राष्ट्रीय
दिनदर्शिकामें
माहोंके नाम वैदिक
परंपरानुसार मधु,
माधव,
शुक्र,
शुचि.....
इत्यादि
रखना उचित
होगा।
ऐसा करनेपर
राष्ट्रीय कालगणना तथा
धार्मिक कालगणनामे जो संभ्रम
है वह दूर हो जाएगा। इसके लिये
मात्र
एक छोटासा
अमेंण्डमेंट
बिल संसदमें
पारित
करनेकी
आवश्यकता
है।
साथमें
मेरा यह भी मानना
है कि अभी राष्ट्रीय
दिनदर्शिकामे शक वर्ष
गिना जाता है उसे
बदलकर युगाब्द गिनना
आरंभ जाये,
जो
भारतीय संस्कृतिकी
प्राचीनतम
ज्ञात कालगणना
है और पिछले पांच हजार
वर्षोंसे अव्याहत रूपसे हमारे
पंचांगोंमें तथा यज्ञ क्रियाओंमें
उल्लेखित है। आजतक इसे न
अपनानेका कारण बताया जाता
रहा कि भारतीय इतिहासकारोंको
अब तक संशय है कि क्या इस देशमें
कभी प्रभु रामका जन्म हुआ,
या
कुरुक्षेत्रमें गीता कही
गई।उन्हें केवल वही इतिहास
ज्ञात है जो अंगरेजोंद्वारा
पढाया गया अर्थात सिकंदरके
आक्रमणसे आगे। भारतीय सरकार
भी किंकर्तव्यविमूढ है कि
क्या करें। क्या यह मान्य करें
कि सिकंदरके पहले इस देशमें
विकसित समाज था या ज्ञानी लोग
रहते थे या रामकृष्णादि
इतिहासपुरुष वास्तवमें
इस देशमें जन्मे
थे। यह निश्चय न कर
पानेके कारण १९५७
की सरकारने पुरातन युगाब्द
गणनाके स्थानपर नवीनतम शक
गणनाको स्वीकार किया।
तो
आज यदि हम राष्ट्रीय सौर
कॅलेण्डरको लाना चाहते हैं
तो हमें इन दो मुद्दोंपर तत्काल
निर्णय कर कार्यन्वित करनेकी
दिशामें आगे बढना होगा।
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