डेंग्यू से मुकाबला - होमियोपैथीसे
........ लीना मेहेंदळे
डेंग्यू की बाबत कुछ भी कहने से पहले यह स्पष्ट करना उचित है कि मैं कोई डॉक्टर नही हूँ । अर्थात् लैकिक अर्थ में न तो मैने डॉक्टरी की कोई पढाई की है और न मै इसकी प्रॅक्टीस करती हूँ। लेकिन रोगसे अपने बचाव करने लायक पढाई अवश्य करती हूँ और औषध योजना भी उसी के अनुरूप करती हूँ ।
जब डेंग्यू का कहर फैलने लगा तो कुछ लिखने की चाह होते हुए भी यह सोचकर छोड दिया कि डॉक्टर्स व सरकारी अस्पताल तो अपना काम कर ही रहे हैं। लेकिन आज एक महिने से अधिक हो गया जब कि अस्पतालों मे मरीजों की संख्या बढ रही है और योग्य दवाइयों के अभाव मे मृत्यु के गाल में जा रहे हैं । ऐसे समय यही उचित है कि होमियोपैथी से जो डेंग्यूका इलाज संभव है उसकी चर्चा की जाए।
डेंग्यू का फैलाव मच्छरोंसे होता हैं । इसके विषाणू मच्छर के शरीर में आते हैं । जब मच्छर हमें काटता है तो - विषाणू हमारे शरीर मे आ जाते हैं । शरीर के अन्दर ये पनपते है - और जब इनकी मात्रा काफी बढ जाती है तो रोग का संक्रमण हो जाता है । फिर इसके लक्षण दिखने लगते है जैसे सिरदर्द, बुखार, जोडों का दर्द इत्यादि ।
मलेरिया और चिकुन गुनिया रोग भी इसी प्रकार मच्छरों के माध्यम से फैलते है ।
इन रोगोंसे बचने के लिये साधारणतया दो ही तरीके सोचे जाते हैं । मच्छरों के स्थान समाप्त करना जैसे ठहरा पानी या गंदा कचरा हटाना इत्यादी। और रोग जकड ले तब ऍलोपथी में बताई गई दवा के सहारे विषाणुओंको नष्ट करने का प्रयास । लेकिन पिछले महीने भर की खबरों से यही पता चला की ये दोनों ही उपाय लागू नही पड रहे । न तो मच्छर समाप्त हो रहे हैं और न ही ऍलोपैथी की दवाइयाँ विषाणुओं को नष्ट कर रोगीकी त्रासदी को मिटा रही हैं ।
ऐसे में होमियोपैथी एक तीसरे उपाय का सुझाव देती है । इस सिध्दान्त के अनुसार रोग को समाप्त करने का तीसरा तरीका है । हमारे शरीर में जो बॉडी फ्लूइड्स अर्थात् विभिन्न रस और द्रव बनते रहते हैं वे ही इन विषाणूओं के पनपने और बढने का माध्यम होते हैं । यदि हम नेट्रम मूर और नेट्रम सल्फ - ये दो दवाइयाँ एकत्रित रूप से लें तो उनके परिणाम स्वरूप शरीर से बाँडी फ्लूइड्स तेजीसे निकल जाते हैं और विषाणुओं को पनपने के लिये आवश्यक समय नही मिल पाता है । इस प्रकार उन्हें मारकर नही बल्कि शरीर से बाहर निकाल कर उनकी संख्या कम कर दी जाती है और शरीर रोग मुक्त हो जाता है ।
यह नुस्खा मैंने मलेरिया के लिये पढा था और १९७५ में पहली बार अपनी - डॉक्टर बहन पर उसीकी सहमति से आजमाया भी था । उसे मलेरिया की तीव्र अटॅक आया था और आश्चर्यजनक रूप से इन दोन दवाओं ने असर दिखाया । उसने पहले कभी राजस्थान के शेखावट - संभागमें काम किया था । वहीं से वह मलेरिया के चपेट में आई । हर दो तीन महिने में उसकी बिमारी रिलैप्स हो जाती । मेरा नुस्खा भी उसने संयोग से ही स्वीकार किया था । लेकिन इसका असर एक ही दिन में दिख गया । बाद मे एक या दो ही बार उसे रिलैप्स हुआ । आज वह पूरी तरह मलेरिया को पीछे छोड चुकी है और अपने मरीजों को भी - यही इलाज देती है ।
मेरी समझ से किसी भी वैज्ञानिक सिध्दान्त को परखने के लिये दो बातें आवश्यक हैं। एक तो उस सिध्दान्त की तर्क शुध्दता और दूसरा संख्यात्मक अनुभव । उपरोक्त इलाज इन दोनों कसौटियों पर खरा उतरता है।
पिछले तीस वर्षो में मैंने पाया कि उपरोक्त दो दवाइयाँ - हर तरह की वायरल बिमारी में काम आती हैं । चाहे सर्दी जुकाम हो या फिर चिकन पॉक्स और मम्स जैसी तीव्र बीमारी हो।
डेंग्यू के मरीज चाहे जो भी ऍलोपैथी इलाज ले रहे हों, अपनी अपनी सतर्कता के आधार पर, या तो वे दवाइयाँ रोक कर या उनके साथ साथ ही उपरोक्त दवाइयाँ भी आजमा सकते हैं । ये बायोकेमिकल तरीके वाली हों । साधारणतया ६ ज््र पोटेन्सी की दवाई ही लेनी चाहिये । दूसरी पोटेन्सी लेनी हो तो अच्छे बायोकेमिक या होम्योपैथी
- डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिये ।
दवा लेने का तरीका ये है कि आधे गिलास गर्म पानी में चार-चार गोलियाँ डालकर उस पानी को छोटी छोटी चुस्कियोंमें करीब दस मिनट में पिये । दिनभर मे तीन या चार बार। दवा से पहले और बादमे आधा घंटा कुछ न खायें।
अधिक बुखार हो तो इनके साथ फेरम फॉस का भी एक डोस लिया जा सकता है। साथ ही काली फॉस का डोस लेने से नींद लाने में सहयक होता है।
नेट्रम मूर और नेट्रम सल्फ लेने के बाद दो तीन बार मूत्र विसर्जन करना पडता है। अतः प्यास लगती रहेगी। ऐसे में सादा पानी बार बार घूंट घूंट पीना चाहिये।
जैसे ये दवाइयाँ मलेरिया मे असर करती है उसी - सिध्दात से इन्हें डेंग्यू और चिकुनगुनिया में भी असर करना चाहिये। अनः जब दूसरे उपायों से डेंग्यू का कहर नही थम रहा हो तो यह उपाय आजमाने में हर्ज ही क्या है।
जब मैंने अपनी बहन से इस बाबत पूछा तो उसने कहा कि सामान्यतया डॉक्टर चिकुनगुनिया और डेंग्यू के लिये ऍण्टीबायोटिक का इंजेक्शन लगा देते हैं। मरीज को तसल्ली हो जाती है कि सुई लग गई। डॉक्टर को पैसे मिल जाते हैं। दोनो खुश। तो फिर दूसरा उपाय ढूँढने की बात कोई क्यों सोचे। इसीलिये कारगार उपाय सामने नही आ रहे। जहाँ तक दिल्ली का सवाल है, तो वहाँ लोगो ने आजमा लिया कि कई मरीजोंपर ऍलोपैथी असर नही कर रही। उन्हें अवश्य ही दूसरी दवाइयाँ आजमाना चाहिये।
जब बडे पैमाने पर डेंग्यू जैसी बिमारी फैलती है और तो एम्स जैसे बडे सरकारी अस्पताल में एक कण्ट्रोल्ड स्टडी आरंभ की जा सकती है। इसमें अच्छे डॉक्टरो की एक टीम हो जो वैकल्पिक दवाइयों के असर की पढाई कर सकें।
यहाँ डॉ. सेमान्वेलिस की कहानी प्रासंगिक है। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में जब डॉक्टरी अभी तक प्रगत नही हुई थी तबकी यह कहानी है। प्रसव के लिये आनेवाली महिलाएँ अक्सर प्रसूती तक तो ठीक रहतीं लेकिन बाद मे धनुर्वात (टिटॅनस) से उनकी मौत हो जाती। डॉ. सेमन्वेलिस ने ध्यान से देखा और पाया कि यदि प्रसव के पहले डॉक्टर व नर्स अपने हाथों को पोटॅशियम परमैंगनेंट के पानीसे अच्छी तरह धो लें तो मृत्यु का प्रमाण कम हो जाता है। पहले उसकी बातों पर सब हँसते रहे। लेकिन जब उसने अपने वार्ड - और दूसरे वार्डो के आँकडे सबके सामने रखे तब लोगों को धीरे धीरे विश्र्वास होने लगा। ये आँकडे इकठ्ठे करने में उसे पाँच सात महीने लग गये । बाद में उसीके आग्रह से क्लोरिन वॉटर के इस्तेमाल और खौलते पानी में सर्जरी के औजारों को निर्जतुक करने जैसे उपाय अपनाए गए। अपने कार्यकाल में सेमन्वेलिस को पगला डॉक्टर कहा जाता था। लेकिन उसकी शोध प्रवृत्तिने ही डॉक्टरी पेशे को आगे बढाया।
हमारे अस्पतालों में भी थोडी सी शोध - प्रवृति आ जाये तो मरीजों की स्वास्थ रक्षा हेतु हमारे डॉक्टर अपने ढर्रे से बाहर सोचना शुरु करेंगे।
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