रविवार, 1 जून 2008

निसर्गोपचार -- एक आवश्यक फलसफा

निसर्गोपचार -- एक आवश्यक फलसफा

दि. २५ फरवरी 1996 को महाराष्ट्र के सभी आकाशवाणी केंद्रों के प्रोग्रॅम निर्देशकोंके लिये पुणे आकाशवाणीने निसर्गोपचार सेमिनार का आयोजन किया था। इसका अधयक्षीय भाषण श्रीमती लीना मेहेंदले, IAS भूतपूर्व निर्देशक राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान पुणे ने किया जो यहाँ प्रस्तुत है। श्रीमती मेहेंदले फिलहाल महाराष्ट्र सरकार की सचिव श्रेणी में भूमि अभिलेख संचालक के पदपर कार्यरत हैं। इसके पूर्व वे नाशिक मुक्त विद्यापीठ की कुलगुरु भी रह चुकी हैं।


निसर्गोपचार-- एक आवश्यक फलसफा
--लीना मेहेंदले

निसर्गोपचार या प्राकृतिक चिकित्सा अगली शताब्दी के लिये एक आवश्यक फलसफा बनेगी इसमें कोई संदेह नही। इस कारण देशकी नीतियाँ बनाने में या देशमें जनजागरण करने में जिस जिस सरकारी संस्था का योगदान है, सबके लिये यह समझ लेना आवश्यक होगा कि प्राकृतिक चिकित्सा क्या है।

आइये, पहले कुछ आंकडे देखते हैं। हमारे देशकी जनसंख्या सौ करोड के आसपास है जो विश्व- आबादी का करीब छठवाँ हिस्सा है। इतने लोगोंको स्वास्थ्य सेवा देने के लिये आज देशमें कुल पांच लाख ऍलोपथी डॉक्टर और करीब पांच लाख अन्य प्रणालियोंके डॉक्टर हैं यथा आयुर्वेद, होमियोपथी, युनानी, निसर्गोपचार इत्यादि। इसका औसत हुआ करीब हजार व्यक्तियोंके लिये एक डॉक्टर। लेकिन घने शहरोंमें यह अनुपात बहुत अधिक है जबकि देशकी करीब बीस से तीस करोड जनता ऐसी है जिनके पास कोई डॉक्टर, कोई चिकित्सा- सुविधा नही पहुँच पाती। दूसरी ओर डॉक्टर बनकर देशमें हर वर्ष जितने विद्यार्थी कॉलेजसे बाहर निकलते हैं उसमें मे कई प्रतिशत तो प्रॅक्टीस के लिये विदेश ही चले जाते हैं। इसलिये भी यह चिकित्साकी समस्या दूर होती नही दिखती। इसका असल उपाय तो यही होगा कि स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएँ जनता के पास अधिक अच्छी तरह पहुँचाई जायें।

यहाँ आवश्यक है कि हम स्वास्थ्य सुविधा और चिकित्सा सुविधा के अंतर को समझें। अपने स्वास्थ्य के प्रति जनता स्वयम् ही जागरुक हो, निरोगी रहने के उपायको जानती हो, छोटी मोटी बिमारियों में अपना इलाज स्वयं करने को सक्षम हो, तो उस हद तक उसकी आत्मनिर्भरता बढ जाती है। इसके लिये निसर्गोपचारको सीख लेना एक आसान तरीका हो सकता है।

केंद्र शासन द्वारा स्थापित राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान के पहले निर्देशक के रुपमें मैने १९९० से १९९४ तक काम किया। तब जो मासिक “निसर्गोपचार वार्ता” हमने शुरु किया उसका ध्येय वाक्य चुना था-- प्रकृति आद्य शिक्षक, आद्य चिकित्सक”! इसका अर्थ हुआ कि प्रकृति ही हमें सिखाती है कि हम अपने आपको किस प्रकार स्वस्थ व निरागी रख्खें। लेकिन आधुनिक जगत की कृत्रिमताने हमारी यह समझ नष्ट कर दी है। प्राकृतिक चिकित्सा में यह सिखाया जाता है कि प्रकृति के साथ, प्राकृतिक नियमोंका पालन करते हुए हम स्वास्थ्य रक्षा कैसे करें।

मोटे तौर पर यह समझ लेना आवश्यक है कि प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली क्या है और ऍलोपथीसे यह
किस प्रकार भिन्न है। प्राकृतिक चिकित्सा का मूल सिध्दान्त है सीखो और करो। मराठी में गुरु रामदास का एक कथन है-- केल्याने होत आहे रे, आधी केलेचि पाहिजे--- अर्थात करनेसे हो जाता है, लेकिन उठकर तुम शुरु तो करो। प्राकृतिक चिकित्सा में चूँकि अपने आपको जानना आवश्यक माना गया है, इसलिये अपने आपपर प्रयोग करके देखना आवश्यक है। इसका दूसरा भी कारण है-- जो प्रयोग हम करेंगे उसका मुख्य असर तो सबपर एक जैसा होगा लेकिन सूक्ष्म असर हरेक पर अलग अलग होगा और प्राकृतिक चिकित्सा में यह सूक्ष्म असर ही अधिक महत्वपूर्ण है।

आज के शिबिर में प्राकृतिक चिकित्सा कैसे की जाती है, कैसे असर करती है, अनुभव क्या क्या हैं, मूल सिध्दान्त क्या हैं इत्यादि कई प्रश्नोंकी चर्चा हो सकती है और अगले दो दिनों में होने वाली भी है। इसलिये मेरे एक घंटे के अध्यक्षीय कार्यक्रम में मै उन बातोंको विस्तारसे तो नही बताऊंगी लेकिन कुछ मुख्य बातें आवश्य कहूँगी।

निसर्गोपचार में आहार-विहार और आचार-विचार का बडाही महत्व है। यहाँ मुख्य सोच यह है कि शरीर को रोग क्यों हुआ और इस कारण को, साथ ही रोगके परिणाम को कैसे दूर किया जाय! इसमें मान्यता यह है कि हम शरीर में जो भी ग्रहण करते हैं, उसमें से अपने काम लायक रस या द्रव्य शरीर रख लेता है, बाकि सब कचरा है जिसे शरीर निकालकर बाहर कर देता है। यदि शरीर कचरे को निकाल नही पाया तो शरीर के अंदर बिमारी पैदा होती है। इसलिये शरीर की उत्सर्जन क्रियाएँ कार्यक्षम होनी चाहिये। कचरा चार प्रकारसे बाहर आता है-- मल, मूत्र, पसीना और उच्छ्वास के माध्यम से। अतः ये चारों क्रियाएँ कारगर हो तो शरीर निरोगी रहेगा। यदि कोई भी रोग हो जाता है तो पहले इन चार क्रियाओं को कार्यक्षम करो।

इस कार्यक्षमता बढाने के जो तरीके हैं उनमें उपवास, एनिमा, मिट्टी की पट्टी, चादर स्नान, जलपान या उषःपान, सूर्य स्नान, शाकाहार इत्यादि कई उपाय हैं और प्रत्येक के अपने अपने लाभ हैं। आसन, प्राणायम ध्यान इत्यादी का भी महत्व है। फिर भी कुछ सूक्ष्म बातें रह जाती हैं, जो संस्कार का रुप धारण कर लेती हैं। विचारणीय बात है कि हम अपने शरीर के अंदर जो भी कुछ ग्रहण करते हैं, वही हमारे शरीर पर असर करता है। इसलिये इधर पर्यावरण का दूषित होना भी हमपर असर करता है और उधर क्रोध करना, झूठ बोलकर या लालसासे या किसी अन्य कारणसे तनाव बढाना भी शरीर को अपाय करता है जो हम अपने आसपास अक्सर रक्तचाप, हृदयविकार, स्पॉण्डिलायटिस, पार्किन्सन्स डिसीज और ऐसे कई रोगों में देखते हैं। इनसे मुक्ति पानी है तो हमें अपने आचार-विचार का भी ध्यान रखना होगा। यदि कोई इन बातोंको धार्मिक कहना चाहे तो कहना पडेगा कि यह आरोग्यधर्म की बाते हैं। वैसे भी हमारे देशमें शरीरका आरोग्य टिकाये रखना ही प्रथम धर्म माना गया है-- शरीरम् आद्यम् खलु धर्मसाधनम्।

निसर्गोपचार में दूसरा मुख्य सूत्र यह है कि रोगका असर पूरे शरीरपर होता है और पूरा शरीर एकत्रित रुपसे रोगका सामना करता है। यदि शरीर का मैल या कचरा बहुतायतसे निकल चुका हो तो रोगका सामना करनेकी शरीरकी क्षमता बढ जाती है। इसलिये प्राकृतिक चिकित्सामें स्पॉण्डिलायटिस के लिये भी चादर स्नान, मिट्टी की पट्टी, एनिमा जैसे मैल निकालने वाले उपाय करवाये जायेंगे और रक्तचाप के लिये भी। इसमें आश्चर्य की कोई बात नही।

निसर्गोपचार में जलोपचार की कई विधियाँ हैं और मुख्य उपाय वही है। इसके अलावा सादा भोजन, उबली हुई सब्जियाँ, फलाहार, भोजन करने के तरीके उदाहरण रातको जल्दी भोजन करना या हाथपांव धोकर भोजन करना इत्यादि कई बाते हैं। मेरे, एक परिचितने बताया कि जब वे किसी महत्वपूर्ण काम के लिये निकलते हैं तो पहले तीन-चार घंटे मौन रहने की उनकी आदत है। एक वेट- लिफटिंग चॅम्पियन अपने खेल के एक दिन पहले एनिमा लेकर, एक दिन उपवास कर फिर स्पर्धा में हिस्सा लेने जाता और नॅशनलतक की चॅम्पियनशिप जीतकर आता है। 

ऐसे कई उदाहरण हैं। मेरा स्वयं का उदाहरण है कि अपनी बाईस वर्ष की सर्विस में मैंने मेडिकल बिल क्लेम नही किये क्यों कि बिमार ही कम पडे और जब पडे तो उपवास और पानी पीकर ही ठीक हुए। मेरी छोटी बहन जो खुद डॉक्टर है, एक बार मलेरिया से बिमार हुई तो एक पुस्तक में पढकर हमने उसे नेट्रम सल्फ नामक बायोकेमिक दवाई दी। पुस्तक में वर्णन यों था कि  हमारे शरीर के अंदर जो बॉडी फल्युइड्स हैं, उन्हींपर मलेरियाके जिवाणु पनपते हैं । तो नेट्रम सल्फ से टिश्यू और सेल्सके भी बॉडी फल्युइड्स को निकालकर शरीर के बाहर किया जाता है जिससे जिवाणु भी निकल जाते हैं। इस प्रक्रियामें प्यास बहुत लगेगी और मूत्र विसर्जन भी खूब होगा-- दोनों को रोकना नही चाहिये। हमे यह बात तर्कसंगत लगी तो बहनने इस दवाको खानेके लिये स्वीकृती दे दी। बुखार जो १०२ डिग्रीतक चढा हुआ था वह आधे घंटे में  उतर गया। उसे पहले कई बार मलेरिया रिलॅप्स हुआ था लेकिन इस घटना के बाद नही हुआ। अब अपने पेशंटको मलेरिया हो तो महंगी दवाइयोंके बजाय  वह नेट्रम सल्फ ही देती है। यह एक नमूना है तर्क प्रमाणको मानने का। निसर्गोपचार में कई बार ऐसे तर्क को समझने की क्षमता बढाना जरुरी है।

इसी लिये एक और आवश्यक बात सोचनी होगी। आज स्कूल कॉलेजों में विद्यार्थी को नही बताया जाता कि स्वास्थ रक्षा के लिये ऍलोपथी के अलावा कई और भी प्रणालियाँ हैं जिनकी बेसिक फिलॉसफी अलग है- और यह दूसरी फिलॉसफी अतार्किक या तर्क- विसंगत नही है। इस न बताने का नुकसान यह है कि विद्यार्थी के मनमें अप्रत्यक्ष रुपसे यह बात बैठा दी जाती है कि ऍलोपथी के अलावा जो कुछ है वह अंधश्रध्दा है, या अवैज्ञानिक है। फिर जब कभी उसका इन प्रणालियों से पहला परिचय होता है- चाहे वह आयुर्वेद या होमियोपॅथी कॉलेजमें प्रवेश लेने के कारण हो या इलाज करनेवाले के लिये हो, लेकिन वह संदेह में पड जाता है। इस स्थिती को बदलना आवश्यक है।

आज अमेरिका और पश्चिम देशभी मानते हैं कि ऍलोपथी की कई कमियाँ हैं। इमर्जेन्सी के लिये शायद
सर्वोत्तम है लेकिन लम्बी बिमारियोंके लिये नही। पश्चिमी डॉक्टर्स और अस्पताल अब शाकाहार, निसर्गोपचार, योग, नशाबंदी इत्यादि उपायोंपर रिसर्च कर रहे हैं। यही रिसर्च का और जागरण का माहौल हमारे यहाँ भी निर्माण करना आवश्यक है। इसमें अखबार, आकाशवाणी और दूरदर्शन जैसे प्रसार माध्यमोंकी निश्चित ही बडी भूमिका है।


---लीना मेहेंदले
पता-
लोकमान्य कॉलनी,
५०, भाई बंगला,
पौडरोड, पुणे ३८

PIN- 411038



1 टिप्पणी:

HAREKRISHNAJI ने कहा…

सविस्तर या लेखात लिहीले नाही आहे का ?

मी कधीकाळी निसर्गोपचाराचा अभ्यास केला होता, उरळीकांचनला ही दोन आठवडॆ जावुन राहीलो होता.