मंगलवार, 26 जून 2018

भूमिगत जल की धारा

******************************समृद्धि पर्यावरण संरक्षण अभियान रूठियाई के अन्तर्गत प्रकृति के संकेतों के द्वारा भूमिगत जल की धाराओं का पता लगाने की जानकारी के संबंध में जनहित में प्रेषित 
******************************केदार सिंह सैनी (संचालक- समृद्धि पर्यावरण संरक्षण अभियान रूठियाई और प्रदेश सचिव मिशन 100करोड़ वृक्ष - मध्य प्रदेश) mob-7898915683

*प्राचीन ग्रंथों में गए प्रकृति के संकेतों से जाने भूमिगत जल की धाराएं
*****************************राहमिहिर का उदकार्गल (जल की रुकावट) ********************************

अतृणे सतृणा यस्मिन् सतृणे तृणवर्जिता मही यत्र।
तस्मिन शिरा प्रदष्ठि वक्तव्यं वा धनं तस्मिन्।।52।।

तृणहीन स्थान पर कोई तृणयुक्त स्थान हो या वहाँ सब दूर घास हो पर एक स्थान पर हरी घास न हो तो वहाँ साढ़े चार पुरुष नीचे शिरा होती है। या गड़ा धन होता है।(52) 

कण्टक्यकण्टकानां व्यत्यासेSम्भस्त्रिभिः करैः पश्चात्।
खात्वा पुरुषत्रितयं त्रिभागयुक्तं धनं वा स्यात्।।53।।

काँटे वाले वृक्षों में एक बिना काँटे का या बिना काँटे के पेड़ों में एक काँटे वाला हो तो उसके तीन हाथ पश्चिम में एक तिहाई सहित तीन पुरुष नीचे जल या धन होता है। (53) 

नदति मही गम्भीरं यसमिंश्चरणाहता जलं तस्मिन्।
सार्धेस्त्रिभिर्मनुष्यैः कौबेरी तत्र च शिरा स्यात्।।54।।

पैर से ठोकने पर भूमि में गंभीर ध्वनि हो तो वहीं साढ़े तीन पुरुष नीचे उत्तर से आता पानी होता है। (54) 

वृक्षस्यैका शाखा यदि विनता भवति पाण्डुरा वा स्यात्।
विज्ञातव्यं शाखातले जलं त्रिपुरुषं खात्वा।।55।।

वृक्ष की एक शाखा भूमि की ओर झुके या पीले पड़ गयी हो तो उसके तीन पुरुष नीचे जल होता है। (55) 

फलकुसुमविकारो यस्य तस्य पूर्वे शिरा त्रिभिर्हस्तैः।
भवति पुरुषैश्चतुर्भः पाषाणोSधः क्षितिः पीता।।56।।

किसी पेड़ के फल-फूल में विकार हो तो उस वृक्ष से तीन हाथ पूर्व में चार पुरुष नीचे शिरा होती है। नीचे पत्थर होता है। और मिट्टी पीले रंग की होती है। (56) 

यदि कण्टकारिका कण्टकैर्विना दृश्यते सितैः कुसुमैः।
तस्यास्तलेSम्बु वाच्यंत्रिभिर्नरैरर्धपुरुषे च ।।57।।

कटेरी का पेड़ काँटों से रहित और सफेद फुलों वाला दिखाई दे तो साढ़े तीन पुरुष नीचे पानी निकलता है। (57) 

खर्जूरी द्विशिरस्कायत्र भवेज्जवलविवर्जिते देशे।
तस्याः पश्चिमभागे निर्देश्यं त्रिपुरुषे वारि।।58।।

जलरहित खजूर के दो जुड़वाँ पेड़ हों तो उससे दो हाथ पश्चिम में तीन पुरुष नीचे जल होता है। (58) 

यदि भवति कर्णिकारः सितकुसुमः स्यात्पलाशवृक्षो वा।
सव्येन तत्र हस्तद्वयेSम्बु पुरुषत्रये भवति।।59।।

सफेद फूल की कनेर या ढाक से दो हाथ दक्षिण में तीन पुरुष नीचे पानी होता है। (59) 

ऊष्मा यस्यां धात्र्यां धूमो वा तत्र वारि नरयुग्मे।
निर्देष्टव्या च शिरा महता तोयप्रवाहेण।।60।।

किसी भूमि से भाप या धुआँ निकलता दिखे तो दो पुरुष नीचे बहुत जल वाली आव होती है। (60)

यस्मिन् क्षेत्रोद्देशे जातं सस्यं विनाशमुपयाति।
स्निग्धमतिपाण्डुरं वा महाशिरा नरयुगे तत्र।।61।।

किसी खेत में खेती पैदा होकर नष्ट हो जाए या बहुत चिकनी खेती हो या उत्पन्न होकर पीली पड़ जाएवहाँ दो पुरुष नीचे बहुत जल होता है। (61)

मरूदेशे भवति शिरा यथा तथातः परं प्रवक्ष्यामि।
ग्रीवा करभाणामिव भूतलसंस्थाः शिरा यान्ति।।62।।

अब मरूप्रदेश (मारवाड़) में भूगर्भ जल शिरा बताते हैं। ऊँट की गर्दन के समान भूमि में ऊँची नीची आव होती है। (62)

पूर्वोत्तरेण पीलोर्यदि वल्मीको जलं भवति पश्चात्।
उत्तरगमना च शिरा विज्ञेया पञ्चभिः पुरुषैः।।63।।

पीलू वृक्ष जल के ईशान (उत्तरपूर्व) में बाँबी से साढ़े चार हाथ पश्चिम में पाँच पुरुष नीचे उत्तर वाहिनी धारा होती है। (63)

चिह्नं दुर्दुर आदो मृत्कपिलातः परं भवेद्वरित।
भवति च पुरुषेSधोSश्मा तस्य तले वारि निर्देश्यम्।।64।।

वहाँ पहले पुरुष में मेंढ़कफिर हल्की पीली के बाद हरे रंग की मिट्टी व पत्थर निकलता है। इनके नीचे जल होता है। (64) 

पीलोरेव प्राच्यां वल्मीकोSतोSर्धः पञ्चमैर्हस्तैः।
दिशि याम्यायां तोयं वक्तव्यं सप्तभिःपुरुषैः।।65।।

पीलू पेड़ के पूर्व में बाँबी हो तो उस वृक्ष के चार हाथ दक्षिण में सात पुरुष नीचे जल होता है। (65) 

प्रथमे पुरुषे भुजगः सितसितो हस्तमात्रमूर्तिश्च।
दक्षिणतो वहति शिरा सक्षारं भूरि पानीयम्।।66।।

यहाँ पहले पुरुष में श्वेत-श्याम एक हाथ लम्बा साँपफिर बहुत खारे पानी की दक्षिण धारा प्रकट होती है। (66) 

उत्तर श्च करीरादहिनिलये दक्षिणे जलं स्वादु।
दशभिः पुरुषैर्ज्ञेयं पुरुषे पीतोSत्र मण्डूकः।।67।।

कटीर के पेड़ के उत्तर में बाँबी हो तो पेड़ से साढ़े चार हाथ दक्षिण में दस पुरुष नीचे मधुर जल होता है। एक पुरुष नीचे पीला मेंढक निकलता है। (67)

रोहीतकस्य पश्चादहिवासश्चेस्त्रिभिः करैर्याम्ये।
द्वादश पुरुषान् खात्वा सक्षारा पश्चिमेन शिरा।।68।।

रोहीतक (रूहीड़ा) वृक्ष के पश्चिम में बांबी हो तो वृक्ष से तीन हाथ दक्षिण में बारह पुरुष नीचे खारे जल की पश्चिम धारा निकलती है। (68)

इन्द्रतरोर्वल्मीकः प्राग्देश्यः पश्चिमे शिरा हस्ते।
खात्वा चतुर्दश नरान् कपिला गोधा नरे प्रथमे ।।69।।

अर्जुन वृक्ष के पूर्व में बाँबी होने पर वृक्ष से एक हाथ पश्चिम में चौदह पुरुष नीचे धारा होती है। यहाँ पहले पुरुष में कपिल वर्ण की गोह होती है। (69)

यदि वा सुवर्णनाम्नस्तरोर्भवेद्वामतो भुजंगगृहम्।
हस्तद्वये तु याम्ये पञ्चदशनरावसानेSम्बु।।70।।

धतुरे के बायें बाँबी हो तो उस पौधे से दो हाथ दायें पन्द्रह पुरुष नीचे पानी होता है। (70)

क्षारं पयोSत्र नकुलोSर्धमानवे ताम्रसन्निभश्चाश्मा।
रक्ता च भवति वसुधा वहति शिरा दक्षिणा तत्र।।71।।

यह पानी खारा होता है और आधा पुरुष पर न्योला व ताम्रवर्ण का पत्थर,तब लाल मिट्टी के बाद जलधारा निकलती है। (71)

बदरीरोहितवृक्षौ संपृक्तौ चेद्विना वल्मीकम्।
हस्तत्रयेSम्बु पश्चात् षोडशभिर्मानवैर्भवति।।72।।

बेर और रूहीड़ा एक साथ हों तो उनसे तीन हाथ पश्चिम में सोलह पुरुष नीचे पानी होता है। (72)

सुरसं जलमादौ दक्षिणा शिरा वहति चोत्तरेणान्या।
पिष्टनिभः पाषाणो मृच्छ्वेता वृश्चिकोSर्धनरे।।73।।

यह जल बड़ा मधुर होता है। पहले दक्षिण फिर उत्तर शिरा भी निकलती है। आटे जैसा सफेद पत्थरश्वेत मिट्टी और आधा पुरुष नीचे बिच्छू होता है। (73)

सकरीरा चेद्वदरी त्रिभिः करैः पश्चिमेन तत्राम्भः।
अष्टादशभिः पुरुषैरैशानि बहुजला च शिरा।।74।।

करीर के पेड़ के साथ बेर का पेड़ हो तो उनसे तीन हाथ पश्चिम में अठारह पुरुष नीचे पूर्वोत्तर से बहती बहुत जल की धारा होती है। (74)

पीलुसमेता बदरी हस्तत्रयसमिते दिशि प्राच्याम्।
विशंत्या पुरुषाणामशोष्यमंभोSत्र सक्षारम्।।75।।

पीलू के साथ बेर के तीन हाथ पूर्व में बीस पुरुष नीचे अटूट खारा पानी होता है। (75)

ककुभकरीररावेकत्र संयुतौ यत्र ककुभबिल्वौ वा।
हस्तद्वयेSम्बु पश्चान्नरैर्भवेत्पञ्चविंशत्या।76।।

अर्जुन और करीर अथवा अर्जुन और बेल का पेड़ एक साथ हो तो उनसे दो हाथ पश्चिम में पच्चीस पुरुष नीचे पानी होता है। (76)

वल्मीकमूर्धनि यदा दूर्वा च कुशाश्च पाण्डुराः सन्ति।
कूपो मध्ये देयो जलमत्र नरैकर विंशत्या।।77।।

बाँबी पर दूब और सफेद कुश हो तो उसके इक्कीस हाथ नीचे पानी होता है। (77)

भूमि कदम्बकयता वल्मीके यत्र दृश्यते दूर्वा।
हस्तत्रयेण याम्ये नरैर्जलं पञ्चविंशत्या।।78।।

कदम्ब के पेड़ होंबाँबी पर दूब हो तो कदम्ब से दो हाथ दक्षिण में पच्चीस पुरुष नीचे पानी होता है। (78)

वल्मीकत्रयमध्ये रोहीतक पादपो यदा भवति।
नाना वृक्षैः सहितस्त्रिभिर्जलं तत्र वक्तव्यम्।।79।।

तीन बाँबियों के बीच तीन तरह के तीन पेड़ो वाला रूहीड़े का पेड़ हो तो वहाँ जल होता है। (79)

हस्तचतुष्के मध्यात् षोडशभिश्चांगुलैरुदग्वारि।
चत्वारिंशत्पुरुषान् खात्वाश्मातः शिरा भवति।।80।।

मध्य में वर्तमान रूहीड़े के पेड़ से चार हाथ और सोलह अंगुल उत्तर में चालीस पुरुष पर पत्थर निकलता है। जिसके नीचे जल धारा होती है। (80)

ग्रन्थिप्रचरा यस्मिञ्छमी भवेदुत्तरेण वल्मीकः।
पश्चात्पञ्चकरान्ते शताधसंख्यकैः सलिलम्।।81।।

बहुत गाँव वाले शमी के उत्तर में बाँबी होने पर उस पेड़ से पाँच हाथ पश्चिम में पचास पुरुष नीचे पानी होता है। (81)

एकस्थाः पञ्च यदा वल्मीका मध्यमो भवेच्छेतः।
तस्मिन् शिरा प्रदिष्टा नरषष्ट्या पञ्चवजिंतया।।82।।

एक ही स्थान पर पाँच बाँबी के बीच के सफेद बाँबी पर पचपन पुरुष गहराई पर जलधारा मिलती है। (82)

सपलाशा यत्र शमी पश्चिम भागेSम्बु मानवैः षष्ट्या।
अर्धनरेSहिः प्रथमं सवालुका पीतमृत्परतः।।83।।

पलाश के साथ शमी से पाँच हाथ पश्चिम मे आठ पुरुष नीचे पानी होता है। आधा पुरुष खोदने पर साँपफिर बालू वाली मिट्टी निकलती है। (83)

वल्मीकेन परिवृत्तः श्वेतो रोहीतको भवेद्यस्मिन्।
पूर्वेण हस्तमात्रे सप्तत्या मानवैरम्बु।।84।।

बाँबी से घिरा सफेद रूहीड़ा पेड़ से एक हाथ पूर्व में सत्तर पुरुष नीचे पानी होता है। (84)

श्वेता कण्टकबहुला यत्र शमी दक्षिणेन तत्र पयः।
नरपञ्चकसंयुतया सप्तयाहिर्नरार्धे च ।।85।।

अधिक काँटे वाले शमी से एक हाथ दक्षिण में पचहत्तर पुरुष नीचे पानी होता है। आधे परस पर साँप निकलता है। (85)

मरुदेशे यच्चिह्नं न जाङ्गले तैर्जर्ल विनिर्देश्यम्।
जम्बूवेतसपूर्वे ये पुरुषास्ते मरौ द्विगुणाः।।86।।

मरुदेश के लक्षण जांगल क्षेत्र में नहीं समझने चाहिए। जामुनवेदमंजनूं वृक्षों से पहले जो जल संकेत दिया वह मरू में दिखे तो मरू में वे दुगने पुरुष मानने चाहिए। बहुत जल के देश को अनूप कहते हैं और जलाभाव का देश मरूस्थल कहलाता है। इन दोनों से भिन्न मध्यम देश जांगल देश होता है। (86)

जम्बूस्त्रिवृत्ता मूर्वा शिशुमारी सारिवा शिवा श्यामा।
वीरुधयो वाराही ज्योतिष्मती च गरुडवेगा।।87।।

सूकरिकमाषपर्णी व्याघ्रपदाशेचेति यद्यहेर्निलये।
वल्मीकादुत्तरत्तस्त्रिपुरुषे तोयम्।।88।।

जामुननिसोतमूर्वाशिशुमारशारिवनशिवाश्यामावाराही कंगनी,गरुडवेगासूकरिकामषवनव्याघ्रपदा (बघनखी) औषधियाँ यदि बाँबी पर हों तो वल्मीक से तीन हाथ उत्तर में तीन पुरुष नीचे पानी होता है। (87-88)

एतदनूपे वाच्यं जाङ्गलभूमौ तु पञ्चभिः पुरुषैः।
एतैरेव निमित्तैर्मरुदेशे सप्तभिः कथयेत्।।89।।

एकनिभा यत्र मही तृणतरुवल्मीकगुल्मपरिहीना।
तस्यां यत्र विकारो भवति धरियां जलं तत्र।।90।।

यह तीन पुरुष नीचे पानी की बात अनूप देश की है। ये लक्षण जांगल देश में हों तो पाँच पुरुष नीचे और मरुस्थल में साथ पुरुष नीचे समझें।(89)जिस एक रंगी भूमि में घासपेड़बाँबीझाड़ी (झूँता) न हो और कुछ अलग सी विकार वाली दिखे तो वहाँ पाँच पुरुष पर पानी होता है।(90) 

यत्र स्निग्धा निम्ना सवालुका सानुनादिनी वा स्यात्।
तत्रर्धपञ्चमैर्वारि मानवैः पञ्चभिर्यदि वा।।91।।

चिकनी नीची बालु रेत हो और पैर रखने से ध्वनि हो तो साढ़े चार या पाँच पुरुष नीचे पानी होता है। (91) 

स्निग्धतरूणां याम्ये नरैश्चतुर्भिर्जलं प्रभूतं च।
तरुगहनेSपि ही विकृतो यस्तस्म त्तद्वदैव वदेत्।।92।।

बहुत से स्निग्ध पेड़ों से दक्षिण में चार पुरुष पर पानी होता है। इन पेड़ों में कोई एक अलग प्रकार के फल-फूल का हो तो उस पेड़ से दक्षिण में चार पुरुष नीचे पानी होता है।(92)

नमते यत्र धरित्री सार्धे पुरुषेSम्बु जाङ्गलानूपे।
कीटा वा यत्र विनालयेन वहवोSम्बु तत्रापि।।93।।

किसी जांगल या अनूप देश में पैर रखने से भूमि दबे वहाँ डेढ़ पुरुष नीचे पानी होता है। जहाँ बहुत से कीड़े दिखाई दें परन्तु उनके रहने का कोई दर न हो तो वहाँ भी डेढ़ पुरुष नीचे पानी होता है। (93)

उष्णा शीता च मही शीतोष्णांभस्त्रिभिर्नरैः सार्धेः।
इंद्रधनुर्मत्स्यो वा वल्मीको वा चतुर्हस्तात्।।94।।

सब दूर गरम जमीन हो और एक स्थान पर ठंडी हो या सब दूर ठंडी हो और एक स्थान पर गरम हो तो वहाँ साढ़े तीन पुरुष नीचे पानी होता है। इन जांगल या अनुप में इंद्र धनुषमत्स्य बाँबी दिखे तो चार हाथ नीचे पानी होता है। (94)

वल्मीकानां पंक्त्यां यद्यकोSभ्युच्छ्रिताः शिरा तदधः।
शुष्यति न रोहते वा सस्यं यस्यां च तत्राSम्भः।।95।।

यदि इन देशों में बहुत से बाँबियों की पाँत हो तोएक बाँबी सवेन्नित हो तो उस उँची के चार हाथ नीचे आव होती है। जहाँ खेती जमकर सूख जाय या जमे ही नहीं वहाँ भी चार हाथ नीचे पानी समझें। (95)

न्यग्रोधपलाशोदुम्बरैः समेतैस्त्रिभिर्जलं तदधः।
वटपिप्पलसमवाये तद्वद्वाच्यं शिरा चोदक्।।96।।

जहाँ बड़पीपल व गूलर एकत्र हों तो इनके नीचे तीन हाथ नीचे पानी निकलता है। दोनों पूर्वो्क्त स्थानों पर उत्तर शिरा होती है। (96)

आग्नेये यदि कोणे ग्रामस्य पुरस्य वा भवति कूपः।
नित्यं स करोति भयं दाहं च समानुषं प्रायः।।97।।

बस्ती से ईशान (पूर्वोत्तर) में कुआँ होने पर सदा भय रहता है। और बस्ती में आग लगती रहती है। जिसमें लोग भी जल जाते हैं। (97)

नैर्ऋत्यकोणे बालक्षयं वनिताभयं च वायव्ये।
दिक्त्रयमेततक्त्वा शेषासु शुभावहाः कूपाः।।98।।

नैर्ऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) में कुआं होने पर बालकों का क्षय होता है। वायव्य (उत्तर-पश्चिम) में कूप होने पर स्त्रियों को भय होता है। शेष दिशाएँ शुभ हैं। (98)

सारस्वतेन मनिना दकार्गलं यत्कृतं तदवलोक्य।
आर्याभिः कृतमेतद् वृत्तैरपि मानवं वक्ष्ये।।99।।

यहाँ तक सारस्वत मुनि का उदकार्गल कहा।  
वराहमिहिर की पुस्तक बृहत्संहिता से.............!
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सोमवार, 25 जून 2018

खेलखेलमें बदलो दुनिया की १३९वीं कडी EP 139

खेलखेलमें बदलो दुनिया की १३८वीं कडी EP 138

खेलखेलमें बदलो दुनिया की १३०वीं कडी भाग २ Ep 130 Part 2

*रानभाज्या* --m डॉ प्र के घाणेकर

*रानभाज्या*
वक्ते : *डॉ प्र के घाणेकर*
निसर्गसेवक व जीविधा यांच्या तर्फे व्याख्यान
21 जुन 2018

पूर्वी लोकांना हे ज्ञान झाले की आपण एखादे झाड लावले तर त्याला तशाच प्रकारची फळं येतात. 

केनीकोमेलीना किंवा गुलबक्षी ची भजी खूप छान लागतातपण पावसाळ्याच्या सुरवातीला च करायची.

हे ज्ञान पिढ्यानपिढ्या आपल्याकडे आहे,ते हरवत चालले आहे

हिमालयात सांगला valley मधे जिभी च्या फळांचे सरबत मी पेयले. त्याच्या लाल रंगांच्या पाकळ्यांचे सरबत करतात.

हिपोपे : घोड्याच्या खाण्यात जर ही फळं आली तर घोडे मरतात. हिपोपे च्या फळात व्हिटॅमिन खूप प्रमाणात असतेते DRDO ने विकसित केले आहे.

मोहाच्या बियांचे तेल वापरले जाते.

जीबीला आम्ही एक नेचे टेरिबीलम aqurium गोळा केले ,त्याची भाजी तेथील लोकांनी केली होती
तेच नेचे मदुमलाई च्या जंगलात पण मिळते ,तेथील बाई ने पण तशीच भाजी केली होती

म्हणजे ह्या सगळ्या लोकांना काय करायचे,कसे करायचे ते सगळं कळतं.

गढवाल भागात फापडा चे पीठ मिळतेते वर्षभर टिकतेह्या लोकांना ते कसं टिकवायचे ते पण माहिती असते ह्याच्या नुसत्या बिया ठेवल्या तर टिकत नाहीपण पीठ करून ठेवले तर टिकतेहे सगळं ह्या लोकांना माहिती असते.

मेक्सिको च्या काही भागात लक्षात आले की डायबेटिस ची औषधे अजिबात खपत नाहीतमग research केल्यावर लक्षात आले की तेथील जलाशयात पाण्यात स्पिरुलिना नावाची एक वनस्पती आढळते त्यात खूप औषधी गुणधर्म आहेत

लोणफळ आजकाल पंचतारांकित हॉटेल मधे पण मिळते.

आफ्रिकेत निग्रेटो जमात आहे ते आजही दिगंबर अवस्थेत रहातातकिंवा अगदी ग्रामीण भागात जे रहातातपण त्यांना रानात काय उगवतंकसं खायचं ते त्यांना माहिती आहे.ते त्यावर अनेक महिने काढू शकतात.

मी राजगड ला गेलो होतोतेथील एका माणसाने खाज खोवली च्या बियांची भाजी दिलीअप्रतिम होती.

त्याने मला सांगितले की चुलीमधील एक दगड घ्या आणि तो चघळा. मी तसे केले तर मला खूप पोट भरल्याचे feeling आले. असं होतंत्यांना हे माहिती आहे

हरिहरेश्वर ला सागरी शेवळ्याचे पापुद्रे होतेत्याची आम्ही भजी केली होतीती इतकी चवदार होतीत्याचे नाव अल्वा.

पण मी आता सांगणार नाही कारण आता तिथे प्रचंड प्रदूषण समुद्रात झाले आहे

मला विचारले की फळांचा राजा कोण तर मी सांगतो ताडगोळा. हे रान फळ आहे,  ताड गोळ्याची मुद्दाम कोणीही लागवड करत नाहीतखूप उंचावर लागतो.

ज्याला ताड गोळ्याची माहिती आहे तो छोटे छोटे ताड गोळे निवडतो. ते कोवळे छान लागतात. काय खायचंकेंव्हा खायचं ते ह्या लोकांना माहिती असते.

आंजरले ला साठ्ये म्हणून एक आहेत त्यांच्याकडे छान जेवण असते त्यांच्या कडे आमसूला सारखे एक फळ असते त्याची आमटी करतात,अतिशय चवदार लागते.

ओंट म्हणून फळ आहेआमसुलं रातां ब्या च्या जातीतील हे झाड आहेत्याची आमटी खूप छान लागते.

लाख पेक्षा जास्त वनस्पती खाण्याजोग्या आहेत पण 3000 वनस्पतीच आपल्याला माहिती आहेत.

कोलंबस मुळे आपल्याकडे बटाटे,रताळे वगैरे आल्या. 500 वर्षांपूर्वी आपल्याकडे आल्या.तोवर आपल्याकडे हे बटाटे,रताळे वगैरे मुख्य अन्न नव्हते. Colambean exchange म्हणजे इकडच्या वनस्पती तिकडे गेल्या आणि त्यांच्या वनस्पती आपल्याकडे आल्या.

धान्य आणि कड धान्य ह्यांचा कस कमी होऊ लागला आहे.

आदिवासीवनवासी लोकांना जे ज्ञान आहे त्याचं documentation करणे आवश्यक आहे.

पूर्वी कर्तुळीवाघाटी खायचे. जी बाई ते विकायला आणते  ती पूर्वी झोपडीच्या बाहेरूनच आणायची.  आता तिला डोंगरावर लांब जायला लागते. आणि पूर्वी ते घरी पण ते ठेवायचे आता सगळचं विकायला नेतात.

मी दासबोध वाचतो ,ते धार्मिक पुस्तक नाहीकसं जगावं हे सांगणारं पुस्तक आहे. त्यात अनेक प्रकारच्या आंब्यांचा उल्लेख आहे.

वेगवेगळ्या आंब्याचे जतन आपण केले पाहिजे.

वेगवेगळी वाण जी आहेत ती आपण घालवतो आहे

जुन्नर जवळ रानभाज्या महोत्सव चालतो.

रानभाज्या म्हणजे कडवट,तुरट असं नसतं.

रानभाज्या शेतात लावता येतील का ह्याचा विचार करायला पाहिजे.

रान भाज्यांचा प्रचार प्रसार करताना त्या मुळापासून  काढली जात नाहीत नाआणि पुढच्या वर्षी आपल्याला मिळतील ना ह्याचा पण विचार केला पाहिजे. ह्या  सर्व भाज्या organic च आहेत.  Food analysis करणाऱ्या मंडळींनी रान भाज्यांची therapeutic valueकाय आहे ह्याचा अभ्यास केला पाहिजे

आपला जुना ठेवा आपण हरवत चाललो आहोत

रान भाज्यांचे वर्ग घेतले पाहिजेत.

Barbeque च्या तोंडात मारेल अशी पोपटी म्हणून एक प्रकार आहे ,ती भन्नाट लागते.

कढण म्हणून एक प्रकार आहेते अत्यंत चविष्ट आणि पौष्टिक असते.

दरवर्षी पावसाळ्यात विविध रानभाज्या आपल्या आसपास उगवलेल्या आढळून येतात. या भाज्या चवीला रुचकर असतातचतसेच त्या पौष्टिक आणि औषधीसुद्धा असतात.  
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टाकळा : 
टाकळा सहा पर्णीका असतात 
ही वनस्पती पावसाळ्यात उगवते व ऑक्टोवर ते डिसेंबर या कालावधीत तिला फुले येतात. 
टाकळा ह्या वनस्पतीला उग्र वास किंवा दुर्गंधी असला तरी टाकळ्याच्या कोवळ्या पानांची भाजी करतात.
टाकळ्याच्या पानांची भाजी सर्व प्रकारच्या त्वचारोगात देतात तर त्याच्या बिया वाटून लेप त्वचेवर लावतात.
तसेच भाजी गुणाने उष्ण असल्याने शरीरातील वात व कफदोष कमी होण्यास मदत होते.

आंबुशी : 
पावसाळ्यात रस्त्याच्या कडेला आंबुशी ही नाजूक वनस्पती उगवलेली पाहावयास मिळते.
ही महाराष्ट्रात सर्वत्र आढळते.
आंबुशी गुणाने रूक्ष व उष्ण आहे. ही वनस्पती पचनास हलकी असूनभूक वाढीसाठी उपयुक्त आहे 
तसेच कफवात आणि मूळव्याध यात आंबुशी गुणकारी आहे

मायाळू : 
मायाळू ही बहुवर्षायू वेल असूनया वनस्पतीची बागेतअंगणातपरसात तसेच कुंडीत लागवड करतात.
मायाळूचे वेल कोेकणात सर्वत्र आढळतात. 
मायाळूची कोवळी पाने भाजीसाठी वापरतात. 
रक्ताची किंवा पित्ताची उष्णता अतिशय वाढल्यास मायाळूची भाजी देतात. 
गुणधर्माने ही भाजी थंड स्वरूपाची आहे.
मायाळूची भाजी पालकाप्रमाणे जिरण्यास हलकी आहे.

करटोली : 
करटोलीची वेल कोकणमराठवाडाविदर्भपश्‍चिम घाट व पश्‍चिम महाराष्ट्र परिसरात आढळतात.
करटोलीला जून ते ऑगस्ट महिन्यात फुले व त्यानंतर फळे तयार होतात. 
करटोलीच्या फळांची भाजी कारल्यासारखीच असूनपावसाळ्याच्या अखेरीस ही भाजी बाजारात काही ठिकाणी येते. 
करटोली हे डोकेदुखीवरील उत्तम औषध आहे. तसेच मधुमेहाच्या रुग्णांनी या भाजीचे नियमित सेवन केल्यास रक्तातील साखर कमी होते.

कपाळफोडी : 
ही वेलवर्गीय वनस्पती असूनपावसाळ्यात मोठ्या प्रमाणात आढळते. 
या वनस्पतीची वेल महाराष्ट्रातील जंगलेशेत आणि ग्रामीण भागात आढळते.
सांधेसुजीवर पंचांग पाण्यात किंवा दुधात वाटतात व लेप करतात. यामुळे ठणका कमी होतो व सूज उतरते.
कानदुखीत तसेच कानफुटीत कानात घालतात. यामुळे कानदुखी थांबते म्हणूनच या वनस्पतीला कानफुटी असेही नाव आहे.

शेवळा : 
शेवळा ही वर्षायूकंदवर्गीय वनस्पती आहे. 
महाराष्ट्रामध्ये शेवळा वनस्पती कोकणपश्‍चिम महाराष्ट्र व अकोला येथील जंगलात आढळते.
शेवळ्याचा कंद औषधात वापरतात. याच्या कंदाची पाने दूध आणि साखरेबरोबर वाजीकरणासाठी देतात.
शेवळ्याचे कंद व कोवळी पाने भाजीसाठी वापरतात.

मोरशेंड : 
ही वर्षायू रोपवर्गीय वनस्पती पावसाळ्यात सर्वत्र आढळते.
शेतातजंगल परिसरातरस्त्यांच्या कडेनेओसाड पडीक जमिनीवरगावांतगावाबाहेर सर्वत्र वाढलेली आढळते. 
मोरशेंड वनस्पतीच्या कोवळ्या पानांची भाजी करतात.
या भाजीच्या सेवनामुळे रक्तातील युरिक ऍसिडचे प्रमाण कमी होऊन सांध्यांची सूज कमी होते.

नळीची भाजी : 
नळीची भाजी ही वनस्पती तळी व तलावांच्या शेजारीकाठांवरपाणथळओलसर जमिनीवरदलदलीच्या ठिकाणी वाढलेली आढळते.
महाराष्ट्रात ही वनस्पती सर्वत्र आढळते. या वनस्पतीचे वेल जमिनीवर पसरत वाढतात. 
नागिणीच्या उपचारात ही वनस्पती वापरली जाते. तसेच कावीळश्‍वासनलिका दाह व यकृतविकारात या वनस्पतीचा वापर करतात.

आघाडा : 
आघाडा ही वर्षायू रोपवर्गीय वनस्पती असूनपावसाळ्यात जंगलातओसाडपडीक जमिनीवररस्त्यांच्या कडेनेशेतात सर्वत्र आढळते.
प्रामुख्याने उष्ण कटिबंधीय प्रदेशात भारतातमहाराष्ट्रात सर्वत्र ही वनस्पती आढळते. 
या वनस्पतीची मुळेपानेफुलेफळे (पंचांग) औषधात वापरतात.
अंगातील जास्त चरबी कमी होण्यासाठी आघाड्याच्या बिया उपयुक्त आहेत.
जेवण्यापूर्वी आघाड्याचा काढा दिल्यास पाचक रस वाढतोतर जेवणानंतर दिल्यास आम्लता कमी होते.
रातांधळेपणात आघाड्याच्या मुळाचे चूर्ण देतात.

भुईआवळी : 
भुईआवळी ही वर्षायू रोपवर्गीय वनस्पती असून, 20 ते 50 सें.मी.पर्यंत उंच वाढते. 
भुईआवळी ही वनस्पती "इफोरबिऐसीकुळातील म्हणजेच एरंडाच्या कुळातील आहे. 
याची पानेकोवळी खोडे व फांद्या भाजी करण्यासाठी वापरतात.
फ्ल्यूसारख्या थंडी-तापाच्या आजाराततसेच वरचेवर सर्दी-खोकलाताप येणे अशा लक्षणांत ही भाजी नियमितपणे खावी.


एका झाडाला दोन फळं लागतात म्हणून एक बोटनिस्ट सांगत होता ह्या झाडाला म्हणे फळं लागतात एक कैरी आणि दुसरे आंबा. असे ज्ञान सध्या आजकालच्या या बोटॅनिस्ट्सना आहे. यांच्याकडुन आपण आपल्या या ठेव्याच्या माहितीची काय अपेक्षा ठेवणार?

मंगलवार, 12 जून 2018

आयुर्वेद आणि आधुनिक विज्ञान


|| रवींद्र रुक्मिणी पंढरीनाथ

आपण आयुर्वेद आणि आधुनिक विज्ञान या दोन भिन्न प्रवृत्तींच्या विज्ञानाची सांगड कशी घालता येईल याबद्दल चर्चा करीत आहोत. हे काम सोपे नाही. त्यात अनेक ज्ञानशास्त्रीय (epistemological) पेच दडले आहेत. कारण आयुर्वेद हे एकात्मिक विज्ञान आहे, तर आधुनिक विज्ञानाचे स्वरूप विश्लेषणात्मक आहे. आधुनिक विज्ञान पुराव्यांवर अधिष्ठित आहे, तर आयुर्वेद अनुभवाधारित आहे. आधुनिक आरोग्यविज्ञानात शुद्ध रसायनांचा वापर केला जातो, तर आयुर्वेदात नसर्गिक, प्रामुख्याने वनस्पतीज स्रोतांचा उपयोग होतो. आधुनिक विज्ञानाने वनस्पतींचा वापर केला तरी त्याचा भर त्यांतील सक्रिय घटक वेगळे करून प्रत्येक घटक त्यांच्या रासायनिक शुद्ध स्वरूपात वापरण्यावर असतो, तर आयुर्वेदात अनेक वनस्पतींचा वापर एकाच वेळी केला जातो. म्हणजेच आयुर्वेदिक औषध हे ‘अनेकविध सक्रिय रासायनिक रेणूंचे मिश्रण’ असते. आधुनिक वैज्ञानिक संशोधनात प्रामुख्याने रेषीय तर्कशास्त्राचा व एकास-एक सहसंबंधाचा (one – to – one correlation) उपयोग केला जातो; मात्र अनेक आयुर्वेदीय संकल्पनांच्या बाबतीत असा वापर अप्रस्तुत ठरतो. एखाद्या रोगावर दिले जाणारे आधुनिक औषध त्या रोगाने ग्रस्त असणाऱ्या सर्व रोग्यांना लागू पडेल, असे अ‍ॅलोपॅथीत मानले जाते. याउलट आयुर्वेदाच्या दृष्टीने औषध हे प्रत्येकाच्या ‘प्रकृतीनुसारच दिले गेले पाहिजे’. याशिवाय औषधी वनस्पतीतील औषधी घटकांचे प्रमाण हे ऋतुमान, जमीन, भूगोल अशा अनेक घटकांनुसार बदलते. अशा परिस्थितीत या दोन्ही शास्त्रांचा समन्वय साधणे अशक्य नाही, तरी अवघड बनते. ते यशस्वी करण्यासाठी आपल्या परंपरेची शक्ती व मर्यादा यांचे अचूक भान, योग्य शास्त्रीय निकषांची निवड, दुसऱ्या शास्त्राविषयी समुचित आदर, लवचीक दृष्टिकोन व विवेकवाद या सर्वाची गरज असते. शिवाय असा विचार एकटय़ादुकटय़ा वैज्ञानिकाने करून चालत नाही. असे अनेक वैज्ञानिक चमू उभे राहावे लागतात, त्यांचे प्रशिक्षण करावे लागते, त्यांच्या संशोधनासाठी आवश्यक ती संसाधने उपलब्ध करून द्यावी लागतात.. मुख्य म्हणजे हे घडण्यासाठी त्या क्षेत्रातील व सरकारातील अधिकारी व्यक्तींना एका खुल्या वैचारिक पातळीवर येऊन अशा प्रयत्नांसाठी अवकाश खुले करण्याचा ‘राजकीय’ निर्णय घ्यावा लागतो. असे घडू शकते, याचा वस्तुपाठ चीनने घालून दिला आहे. आपण थोडक्यात त्याचा परामर्श घेऊ.

चिनी पारंपरिक वैद्यकाची घोडदौड

तीन-चार दशकांपूर्वी चिनी पारंपरिक विज्ञानाची स्थिती भारताहून फारशी वेगळी नव्हती. वैद्यकाचाच विचार करायचा झाला तर आयुर्वेदाप्रमाणे त्यांच्याकडेही संचित ज्ञानाचा मोठा साठा होता, पण त्यातील कोणते औषध कोणत्या परिस्थितीत कोणाला लागू पडते, याविषयी गोंधळाची परिस्थिती होती. आधुनिकतेची कास धरलेल्या पिढीचा पारंपरिक वैद्यकावर विश्वास नव्हता. आज पारंपरिक चिनी औषध उद्योगाचे मूल्य १२,१०० कोटी डॉलर इतके आहे. चीनमधील औषध उद्योगातील ३० टक्के भाग या पारंपरिक औषध उद्योगाने व्यापला आहे. गेल्या २० वर्षांत या उद्योगाची वाढ तब्बल ३० पटींनी झाली आहे. हे यश सहजासहजी मिळालेले नाही. त्यामागे पारंपरिक चिनी औषधतज्ज्ञांची संशोधन साधना आहे. दर वर्षी हे संशोधक उच्च दर्जाच्या संशोधन पत्रिकांमधून ३,००० पेपर्स प्रकाशित करतात. व्हिएतनाममध्ये १९६०च्या दशकात मलेरियामुळे हजारो माणसे मृत्युमुखी पडली. तेथील सरकारने चीनचे तत्कालीन सर्वेसर्वा माओ यांना त्यावर त्वरित उपाय शोधून देण्याची विनंती केली. माओंनी पारंपरिक चिनी औषधांच्या ज्ञानसाठय़ाचा शोध घेऊन त्यातून नवे औषध निर्मिण्याची जबाबदारी एका संशोधक चमूवर टाकली. त्यांनी त्या कामात ‘इन्स्टिटय़ूट ऑफ चायनीज मटेरिया मेडिका’ या संस्थेच्या प्रोफेसर यूयू टू यांना सहभागी करून घेतले. प्रोफेसर टू व त्यांच्या चमूने युद्धपातळीवर काम करून मलेरिया किंवा तापावर वापरल्या जाणाऱ्या दोन हजार पारंपरिक औषधांच्या संग्रहातून चाचण्यांच्या आधारावर ६४० औषधांची निवड केली. विविध शास्त्रीय चाळण्या लावल्यावर अखेरीस ‘आर्टेमिशिया अ‍ॅन्युआ’ (Artemisia annua) या वनस्पतीवर लक्ष केंद्रित करण्यात आले. या वनस्पतीतून ‘आर्टेमिसिनीन’ हा औषधी घटक विलग करण्यात आला..

..गेली कित्येक दशके जगातील कोटय़वधी माणसे मलेरियावरील उपचारासाठी आर्टेमिसिनीन व त्याच्या रासायनिक भाऊबंदांचा उपयोग करीत आहेत. ‘या एका औषधामुळे किमान १३ कोटी लोकांचे जीव वाचले’ असा वैज्ञानिकांचा अदमास आहे. पारंपरिक औषधांच्या गुणवत्तेबद्दल साशंक असणाऱ्या पाश्चात्त्य जगाने आर्टेमिसिनीनचा शोध लागल्यावर सुमारे ४५ वर्षांनी त्याची दखल घेऊन प्रोफेसर टू यांना २०१५ साली वैद्यकशास्त्राचे नोबेल पारितोषक देऊन त्यांचा गौरव केला. आज जागतिक पटलावर चिनी औषधांनी आपले विशेष स्थान निर्माण केले आहे. अतिसारापासून मधुमेह, कर्करोग, अवसाद, उच्च रक्तदाबापर्यंत अनेक व्याधींवर चिनी पारंपरिक औषधे किंवा त्यांपासून निर्माण केलेली आधुनिक औषधे जागतिक बाजारावर प्रभाव टाकत आहेत. जगभरातील शास्त्रज्ञ आता या विषयात रुची घेऊन आपल्या संशोधनाच्या कक्षा वाढवीत आहेत. रसायनशास्त्रातील नोबेल पारितोषक विजेते इस्रायली वैज्ञानिक आरॉन सिचानोव्हर यांच्या मते ‘एक दिवस असा येईल जेव्हा पारंपरिक चिनी वैद्यक व आधुनिक वैद्यक यांच्या सीमारेषा पुसट झाल्या असतील.’

आयुर्वेद : आपण तयार आहोत?

या पाश्र्वभूमीवर आयुर्वेदाचा विचार केल्यावर काय चित्र दिसते? केवळ रोगनिवारणासाठी नव्हे, तर साकल्याने आरोग्यपूर्ण जगण्यासाठी आयुर्वेद मौल्यवान मार्गदर्शन करू शकते, यात शंका नाही. एका जीनसँगच्या बळावर चीनने हजारो कोटी डॉलर्सचे साम्राज्य स्थापन केले आहे. आयुर्वेदात तर अशा प्रकारच्या डझनभर तरी औषधी आहेत. आधुनिक विज्ञानाला ज्याचे गुह्य़ आता उलगडू लागले आहे, अशी भस्मासारखी मात्रारूपे आहेत. ‘विपरीतगती औषधक्रियाशास्त्रा’सारख्या गुरुकिल्लीने नवे औषध शोधण्याचा कालावधी व खर्च झपाटय़ाने कमी होण्याची शक्यता आहे. पण हे सारे घडण्यासाठी ज्या अनेक गोष्टी कराव्या लागतील त्यासाठी आपण सर्व – आयुर्वेदतज्ज्ञ, आयुर्वेद शिक्षण देणाऱ्या संस्था, सरकारी यंत्रणा, सीएसआयआर व आयुषसारख्या नियामक संस्था, आधुनिक विज्ञान व आधुनिक आयुर्विज्ञान या क्षेत्रातील संशोधक व परंपरेचा अभिमान असण्याचा दावा करणारे राजकीय नेते – तयार आहोत का, हा कळीचा प्रश्न आहे. प्रश्न आहे आंतरविद्याशाखीय संशोधन करण्यासाठी हजारो अभ्यासकांना तयार करण्याचा, त्यांना संसाधने पुरविण्याचा, आपल्या शैक्षणिक संस्था व प्रयोगशाळा यांमध्ये संशोधनाला पूरक वातावरण निर्मिण्याचा. जुन्या पोथ्या, पिढय़ान्पिढय़ा जपलेली वैद्यांची कागदपत्रे आणि रेकॉर्ड्स यांचा चिकाटीने अभ्यास करण्याचा. आयुर्वेदाच्या अभ्यासक्रमात कालानुरूप बदल घडविण्याचा व जुन्या आयुर्वेदिक ग्रंथांचा नव्याने वेध घेण्याचा. वैद्य-शास्त्रींच्या जागी संस्कृत, आयुर्वेद आणि आधुनिक विज्ञान या तिन्ही विषयांत पारंगत असणारे वैद्य-शास्त्रज्ञ निर्माण करण्याचा. आयुर्वेदाची पदवी घेऊन अ‍ॅलोपॅथीची प्रॅक्टिस करण्याची आकांक्षा बाळगण्याऐवजी आधुनिक विज्ञानाशी नाते जोडून त्याला चार गोष्टी शिकविण्याची महत्त्वाकांक्षा निर्माण करण्याचा.

नास्य चिकित्सेतून अर्धशिशी बरी होऊ शकते. हळदीतून काढलेल्या घटकद्रव्यांच्या मदतीने तंबाखूमुळे होणाऱ्या कॅन्सरवर मात करता येते. गुडूची, एलादि वटी व अन्य वनस्पतिजन्य औषधींच्या साह्य़ाने केमोथेरपीच्या विपरीत परिणामांपासून मुक्तता मिळविता येते. निशा-अमलकी, अर्जुनारिष्ट या औषधी ‘टाइप टू डायबेटिस’वर उपयुक्त ठरल्या आहेत. आतापर्यंतच्या संशोधनातून अशी असंख्य ‘लीड्स’ (संशोधनपूर्व तथ्ये) सापडली आहेत; गरज आहे ती त्यांचा पद्धतशीर पाठपुरावा करण्याची, हे संशोधन पूर्णत्वाला नेण्याची. त्यासाठी सर्व जगाला मान्य होतील अशा पद्धतींचा वापर करण्याची. गरज पडेल तिथे आधुनिक विज्ञानाचे निकष नाकारून, प्राचीन ग्रंथात दिलेल्या निकषांची वैज्ञानिकता सिद्ध करण्याची.

आव्हाने असंख्य आहेत, शक्याशक्यता असंख्य. आपण त्यांना भिडण्यासाठी आज कृती केली नाही, तर जग नावाच्या या वैश्विक खेडय़ातील अन्य लोक ती नक्कीच करतील. आजच्या पंचवीस वर्षांनी आयुर्वेदावर आधारित संशोधनाला नोबेल पारितोषिक नक्कीच मिळू शकेल. पण ते संशोधन व त्याला आधारभूत आयुर्वेदाच्या पोथ्या तेव्हा भारतात असतील की युरोप-अमेरिकेत, हा मोठा कठीण प्रश्न आहे.
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