विषय -- राष्ट्रिय सौर दिनदर्शिकाकी वैज्ञानिकता तथा उसके सुधारसहित प्रचारहेतु राष्ट्रकी भूमिका
-- लीना मेहेंदळे
ब्रिटिशोंने भारतमें ग्रेगोरियन कैलेण्डर चलाया था। उससे पहले देशके अपने पंचांग चलते थे। भारतसे ब्रिटिशोंके जानेके बाद १९५२ में संसदमें विचार हुआ कि जैसे विश्वके कई देशोंके अपने अपने कैलेण्डर हैं वैसे ही भारतका भी अपना कैलेण्डर होना चाहिये।
इस विषयका उहापोह कर सुझाव देनेके लिये साहा कमेटी बनी। इसके सात सदस्य थे प्रा. अ.च.बॅनर्जी, डाॅ.के.एल. दफ्तरी, श्री. ज.स.करंदिकर, पंडित गोरख प्रसाद, प्रा. सत्येंद्र बोस, प्रा. र.बि. वैद्य, तथा डाॅ. अकबर अली। ये सातों या तो वैज्ञानिक थे या फिर पंचांगोंके अच्छे ज्ञाता। 1956 में कमिटीके सुझावोंको केंद्रीय मंत्रीमंडलमें स्वीकृति मिली और 22 मार्च १९५७ से राष्ट्रीय कैलेंडर १ चैत्र, शक १८७९ उद्घोषित हुआ।
यह सूर्यको प्रमाण मानकर बनाया, उत्तम वैज्ञानिक खूबियोंवाला कैलेण्डर है जिसमें ध्यान रखा गया कि उसका ग्रेगोरियनके साथ तालमेल बैठाना सरलतम हो। परन्तु इसकी दो बडी कमियाँ हैं जिन्हें हटाये बिना इसेे जनमानसमें स्वीकार्य कराना संभव नही। ये कमियाँ १९५७ के शासकीय निर्णयमें दो स्वल्प संशोधन करनेमात्रसे हटाई जा सकती हैं। पहला संशोधन कि इसमें वर्णित मासोंके चैत्रादि नाम बदलकर मधु-माधव आदि सांवत्सरिक नाम दिये जायें। दूसरा ये कि यह गणना शकसंवत के आधारपर न होकर इसे युगाब्दके आधारपर किया जाये।
आज पूरा विश्व यह समझता है कि भले ही आर्यन इन्वेजन थियरीवाले भारतकी सभ्यताको मात्र 3500 वर्ष पहलेकी बताते हों परन्तु वास्तवमें यह अत्यंत पुरातन है। किसी भी हिंदू समाजमें जब पूजा-हवन-यज्ञ आदि होता है तब उस दिवसका वर्णन करनेेेहेतु यह प्रार्थना पढी जाती है-
"श्रीमद् भगवतो महत्पुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्री श्वेतवराह कल्पे सप्तमे वैवस्वतमन्वंतरे अष्टाविंशतितमे युगचतुष्ट्ये कलियुगे प्रथम चरणे -- नाम संवत्सरे -- वासरे ......” । यह प्रार्थना बताती है कि हिंदू लोग समयको ब्रह्माकी आयुके एकावनवें वर्षके पहले दिनमें, सातवें मन्वंतरमें और अठ्ठाइसवीं चतुर्युगीके कलियुगके आरंभसे गिन रहे हैं।
तब भी आर्यन इन्वेजन थियरी ही विश्वमान्य है क्योंकि उसका खंडन करनेहेतु भारतियोंके प्रयास अत्यल्प होते हैं। फिर भी भारतकी कालगणनाको विश्वमान्य करनेहेतु हमारे पास जो संसाधन उपलब्ध हैं उनमेंसे एक राष्ट्रीय सौर दिनदर्शिका हो सकती है। इसलिये इसका स्वयंका महत्व है।
इसके नाममें जो सौर शब्द है उसका औचित्य ये है कि वर्तमानमें भारतमें प्रचलित अधिकांश पंचांग चंद्रमाकी गति एवं तिथिपर आधारित हैं, केवल कहीं-कहीं सूर्य आधारित पंचांग चलते हैं। ग्रेगोरियन कैलेण्डर भी सूर्य आधारित ही कहा जाएगा क्योंकि उसमें भी ३६५ दिनोंमें एक वर्ष पूर्ण करनेकी सूर्यकी गतिको आधार बनाया गया है। इसी कारण दोनोंका तालमेल बैठाना सरल है। परन्तु इस एक बातको छोड़ दें तो अन्य कई अर्थोंमें ग्रेगोरियन कैलेंडर अवैज्ञानिक है, इसीसे विश्वस्तरपर भी भारतीय सौर कैलेण्डरको स्वीकार्य करानेका उद्देश्य भविष्यमें सोचा जा सकता है।
पहले हम सौर एवं चंद्र पंचांगोंके विशेष महत्वकी चर्चा करते हैं। आजसे लगभग ५००० वर्ष पूर्व महाभारत युद्धके पश्चात युगाब्द पंचांग चलाया गया। सन १७०० से पहलेतक भारतमें जितने ग्रंथ लिखे गये हैं उनमें इसीको आधार माना गया। इसके प्रमाण आर्यभट्ट और वराह मिहिरके ग्रंथोंसे मिलते हैं। उनकी पुस्तकोंमें वर्णित शब्दप्रमाण देखें तो स्वयं आर्यभट्टका वर्णन है कि उसने युगाब्दके ३०२३ वें वर्षमें अपना ग्रंथ आर्यभट्टीय लिखा। वराह मिहिरके पुस्तकोंमें बताया है कि विक्रम पंचांगके साथ युगाब्द पंचांगका क्या संबंध है। इन तथ्योंको हमें अपने इतिहासमें दृढ़तापूर्वक रखना पडेगा।
अब देशमें प्रचलित दिनदर्शिकाको समझते हैं। वेदकालमें ऋतु या संवत्सर आधारित सौर पंचांग भी व्यवहारमें थे और नक्षत्रोंके बीच चंद्रमाकी गतिके आधारपर चांद्र पंचांग भी देखे जाते थे। यज्ञ हवन इत्यादि कार्योंके हेतु मुहूर्त गणनाके लिए दोनों पंचांगोंकी आवश्यकता पड़ती थी। खेतीके लिए हमें संवत्सर पंचांगकी आवश्यकता अधिक थी जबकि व्यापार, घुमक्कडी और समुद्र प्रवासके लिए चांद्रपंचांग अधिक उपयोगी थे।
ऋग्वेदके पहले मंडलमें दीर्घतमस ऋषिका सूक्त (१-१६४- ४८) कहता है कि पृथ्वीका नाम चला है क्योंकि वह चलती है, स्थिर नहीं है। वह एक दीर्घाकार वृत्त बनाती हुई घूमती है। उसके दीर्घवृत्तीय गतिको ३६० घूर्णोंमें (अंशोंमें) विभाजित करनेसे हम उसे ठीकठीक समझ सकते हैं।
आगे इस सूक्तमें पृथ्वीकी गतिकी तीन नाभियाँ कही गई हैं, मध्यनाभि, उत्तरनाभि और दक्षिणनाभि। पृथ्वीके चलनेके कारण सूर्यका भासमान चलन आकाशमें पूर्वसे पश्चिम दिखता है। उसी प्रकार सूर्यके उदय होनेका भासमान स्थान भी उत्तर-दक्षिण सरकता हुआ प्रतीत होता है। वर्षमें एक बार सूर्य अत्यंत उत्तरी छोरपर उदित होता है, वहांसे वापस मध्यनाभिमें अर्थात ठीक पूर्व दिशामें, वहांसे आगे चलकर आत्यंतिक दक्षिणी छोर पर और वहांसे वापस मुड़कर पुनः मध्यनाभि अर्थात ठीक पूर्व दिशामें सूर्य उदित होता है। जब सूर्य मध्यनाभि पर आता है तो वर्षके वे दो दिन क्रमशः वसंत-संपात और शरद-संपात कहलाते हैं।
पृथ्वीकी गतिके ३० दिनोंको एक सौर मास कहते हैं। यजुर्वेदमें इन ६ ऋतुओंके व १२ मासोंके प्रचलित नाम इस प्रकार हैं -- वसंत ऋतुमें मधु-माधव, ग्रीष्ममें शुक्र-शुचि, वर्षामें नभ-नभस्य, शरदमें इष-ऊर्ज, हेमंतमें सह-सहस्य तथा शिशिरमें तप-तपस्य इस प्रकार वर्णित हैं। कालान्तरमें यह प्राचीन सौर पंचांग किसी कालखंडमें लुप्त हो गया जबकि चांद्र पंचांग चलता रहा जिसमें मासोंके नाम चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ आदि हैं।
यह स्पष्ट है कि वेदोंका यह सारा विवेचन उत्तरी गोलार्धके परिप्रेक्ष्यमें है। सूर्य जब मध्य व उत्तर नाभिके अन्तरालमें होगा तब हमारे लिए दिनका मान रात्रिके मानकी अपेक्षा बड़ा होगा। जब सूर्य दक्षिणकी तरफ होगा तब रात्रिका मान बड़ा होगा। हम जानते हैं कि पृथ्वीके दैनिक घूर्णनका अक्ष उसके दीर्घवृत्तीय मार्गपर लम्बरूप न होकर झुका होनेके कारण ऐसा होता है।
पृथ्वीकी गति दीर्घवृत्तीय होनेके कारण पूरे वर्षभर सूर्यसे उसकी दूरी घटती-बढती है। जब वह सूर्यसे दूर होगी, अर्थात वसंतसंपातसे शरदसंपात तकके कालखंडमें उसे तीस अंशोंकी दूरी तय करनेमें (एक मास पूरा करनेमें) अधिक समय लगेगा। जब वह सूर्यके पास होगी तब समय कम लगेगा।
साहा कमिटीने जिस सौर कॅलेण्डरकी अनुशंसा करी उसमें इन वैज्ञानिक तथ्योंको आधार बनाया। नये संवत्सरका आरंभ वसंतसंपातसे किया जो २२ मार्च है। यहाँसे ३ महीनोंतक सूर्योदयका स्थान उत्तरको सरकता है और सबसे बडा दिवस २१ जून है, इसलिये चौथे महीनेका आरंभ २२ जूनसे हुआ। शरदसंपात २३ सितम्बरसे सातवाँ महीना आरंभ होता है। यहाँसे दिवसमान घटते घटते सबसे छोटा दिन २१ दिसंबरका होता है। अतः दसवाँ मासारंभ २२ दिसंबरसे होगा। इस प्रकार साहा कमिटीने सौर कॅलेण्डरका सीधा संबंध ऋुतुचक्रके साथ जोडा जो ग्रेगोरियनमें नही दीखता।
दूसरा महत्वपूर्ण ज्योतिषीय तथ्य यह है कि वसंतसंपातसे शरदसंपातके अन्तरालमें अपना मार्गक्रमण करते हुए पृथ्वीको हर महीने अधिक दिनोंकी आवश्यकता है इसलिये दूसरेसे छठे मासतक ३१ दिन रखे गये जबकि शरदसंपातसे आगे ३० दिन रखे गये। लीप इयरमें पहिले महीनेके भी ३१ रखनेसे सारे मुद्दे स्थिर हो जाते हैं। ग्रेगोरियन कैलेण्डरमें किस महीनेके दिन ३१ हैं और क्यों इसका कोई औचित्य नही होनेके कारण वह अवैज्ञानिक सिद्ध होता है। परन्तु दोनोंमें ही वर्षके दिवस ३६५ रहेंगे अतः उनका तालमेल (इंटर-कनवर्टिबिलिटी) सालोंसाल एक ही फॉर्म्यूलेसे चलेगा जो अंतर्राष्ट्रीय व्यवहारोंके लिये सरल हो जाता है।
संसद द्वारा नये भारतीय कैलेण्डरकी स्वीकृतीकी जानकरी “सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय” द्वारा 1957 को प्रेषित की गई। दिनदर्शिकाको राष्ट्रिय प्रतीकोंमे सम्मिलित करते हुए दैनंदिन व्यवहारमे इसका प्रचलन होने हेतु गृहमंत्रालयने एक परिपत्र (F/42/16/57 PUB I, Dt. 11-12-57) जारी किया। यह स्वीकृत दिनदर्शिका 1 चैत्र 1879 (22-03-1957) से लागू हुई। सभी राज्य सरकारोंको तथा केंद्रशासित प्रदेशोंको आदेश है कि वे भी इसका दैनंदिन व्यवहारमे प्रयोग करें तथा इसके विषयमे जनजागृती करायें।
राष्ट्रिय दिनदर्शिकाका उपयोग अधिकतम मात्रामे विदेश मंत्रालयद्वारा किया जाता है। सभी अंतरराष्ट्रीय समझौतोंमे ग्रेगोरियन दिनांकके साथ राष्ट्रिय दिनांक लिखना अनिवार्य है।
सौर गतिका इतना योग्य विचार करनेके पश्चात भी दुर्भाग्यवश राष्ट्रिय दिनदर्शिकाका चलन अभीतक जनमानस के बीच नही पहुँचा है। कदाचित यह कारण है कि साहा कमिटीने महीनोंके नाम वही चैत्र-वैशाख आदि रखे जिन्हें हम चांद्रमास कहते हैं। कमिटीने सोचा होगा कि इन नामोंके कारण भारतीय जनता नये सौर कैलेण्डरको शीघ्रतासे स्वीकारेगी। लेकिन परिणाम उलटा हुआ। प्रचलित चांद्र नामोंके साथ चांद्रतिथियाँ भी अभिन्न रूपसे जुडी हैं जिनके आधारपर सारे पर्वत्यौहार पूजा-व्रत मनाये जाते हैं। आकाशमें चंद्रमाको देखकर यह तिथियाँ जानी जा सकती हैं। परन्तु ये उसउस महीनेके सौर दिनांकसे मेल नही खातीं। अतः ८ श्रावण (सौर) कहनेसे सामान्यजनको लगता है कि श्रावण अष्टमीकी बात हो रही है जबकि आकाशमें उस दिन शायद एकादशीका चंद्र होता है।
नया भारतीय कैलेण्डर बनानेका एक पर्याय यह था कि चांद्र कैलेण्डरको ही स्वीकारें जैसा बांङ्गलादेशने १९७१ में किया है। लेकिन भारतीय भी रखना है और ग्रेगोरियनके साथ तालमेल भी सरलतम रखना है तो कैलेण्डरको सूर्य आधारित रखना होगा। यही सोचकर कमिटीने एक वैज्ञानिक सौर कैलेण्डर प्रस्तावित किया। तो फिर सौर कैलेण्डरमें चांद्रनाम क्यों।
इस कन्फ्यूजनसे निपटनेका सरलतम उपाय यही है कि सौर मासोंको हम यजुर्वेदमें प्रस्थापित नाम मधु-माधव इत्यादिके अनुसार ही गिनें। इसे संसदमें एक छोटासा संशोधन प्रस्ताव लाकर किया जा सकेगा। या कदाचित उसकी भी आवश्यकता ना हो, केवल मंत्रीमंडलके निर्णयसे इसे लागू किया जा सकता है।
दूसरा मुद्दा है कि साहा कमिटिने भारतीय पुरातनताको नकारते हुए सौर गणनाके लिये शकसंवतको प्रमाण माना। किन्तु हमारा आग्रह है कि यह प्रमाण युगाब्दके आधारपर हो, और यह बात भी उसी संशोधन प्रस्तावसे की जा सकती है। अर्थात वर्तमान भारतीय वर्षको शक १९४३ (ग्रेगोरियन 2021) कहनेकी जगह हम उसे युगाब्द ५१२३ कहें जो कि सभी पंचांगकर्ताओंको मान्य है। इससे हमारे चांद्रपंचांगोंकी महत्ता भी बनी रहेगी और सूर्य आधारित कैलेण्डरसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवहारोंमें आसानी रहेगी।
अन्तमें पाठकोंको यह भी बता दें कि रिजर्व बँकके द्वारा जारी किये गये निर्देश तथा बँकर्स असोसिएशनके निर्देशानुसार सौर दिनांकके साथ लिखे गये चेक भुनाना बँकोंपर बंधनकारी है। इसी प्रकार आकाशवाणी व दूरदर्शनपर प्रतिदिनकी घोषणा करते हुए, साथ ही स्कूलमें नाम लिखवाने या छोडनेके समय दाखिलेपर सौर दिनांक लिखनेके लिये भी शिक्षाविभागके निर्देश हैं। अतः जनतासे विनती है कि इन सभीके लिये वे आग्रही रहें।
प्रस्तुति-- राष्ट्रीय दिनदर्शिका प्रचार मंच के माननीय सदस्य द्वारा प्रस्तावित पदयात्रामे लोगोंको संदेश देनेहेतु।