पुराणों में भारत के ३ अर्थ हैं-
(१) उत्तर गोलार्ध का नक्शा ४ खण्डों में बनता था जिसे सुमेरु के ४ पार्श्व कहते थे। इसके पार्श्वों के ४ रंग कहे गये हैं, जो नक्शे में दिखाये जाते थे। आज भी नक्शे के लिए ४ रंगों का ही प्रयोग होता है। इसका गणितीय प्रमाण कई लाख पदों में है, जिसे कम्प्यूटर द्वारा ही प्रमाणित किया जा सकता है। इस सुमेरु का आधार विषुव रेखा को स्पर्श करता हुआ वर्ग है तथा इसकी ऊंचाई १ लाख योजन है जो मेरु पर्वत की ऊंचाई कही गयी है। इसकी सतह पर पृथ्वी गोल के सतह विन्दुओं के प्रक्षेप से समतल नक्शा बनता था। आयताकार नक्शा बनने पर ध्रुव प्रदेश का आकार अनन्त हो जाता है। उत्तरी ध्रुव में कोई समस्या नहीं है क्योंकि यहां केवल जल भाग है। दक्षिण गोल में ध्रुव प्रदेश स्थल भाग है जिसका आकार अनन्त हो जाता है। अतः इसे अनन्त द्वीप कहते थे। उत्तरी गोल के ९०-९० अंशों के ४ खण्डों को भू-पद्म का ४ दल कहा गया है। इनके नाम हैं-भारत, पूर्व में भद्राश्व, पश्चिम में केतुमाल, विपरीत दिशा में कुरु वर्ष। यहां भारत का अर्थ हुआ उज्जैन के दोनों तरफ ४५-४५ अंश पूर्व पश्चिम तथा विषुव से ध्रुव प्रदेश तक का भाग है। सूर्य सिद्धान्त के अनुसार उज्जैन से ९० अंश पूर्व यमकोटिपत्तन, ९० अंश पश्चिम रोमक पत्तन, तथा विपरीत दिशा में सिद्धपुर है। पुराणों के अनुसार भारत के पूर्व छोर पर इन्द्र की अमरावती, पश्चिम छोर पर यम की संयमनी (सना, अम्मान, मृत सागर, यमन), अमरावती से ९० अंश पूर्व वरुण की सुखा (हवाई द्वीप या फ्रेञ्च पोलिनेसिया), १८० अंश पूर्व सोम की विभावरी (न्यूयार्क या सूरीनाम) है। भारत भाग को छोड़ कर उत्तर के ३ तथा दक्षिण के ४ खण्ड ७ तल या पाताल हैं।
(विष्णु पुराण २/२)-भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः केतुमालं च पश्चिमे। वर्षे द्वे तु मुनिश्रेष्ठ तयोर्मध्यमिलावृतः॥२४॥
भारताः केतुमालाश्च भद्राश्वाः कुरवस्तथा। पत्राणि लोकपद्मस्य मर्यादाशैलबाह्यतः।४०॥
विष्णु पुराण (२/८)-मानसोत्तर शैलस्य पूर्वतो वासवी पुरी।
दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वारुणस्य च। उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि मे शृणु॥८॥
वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा। पुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च विभावरी॥९॥
सूर्य सिद्धान्त (१२/३८-४२)-भू-वृत्त-पादे पूर्वस्यां यमकोटीति विश्रुता। भद्राश्व वर्षे नगरी स्वर्ण प्राकार तोरणा॥३८॥
याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन् महापुरी। पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता॥३९॥
उदक् सिद्धपुरी नाम कुरुवर्षे प्रकीर्तिता॥४०॥ भू-वृत्त-पाद विवरास्ताश्चान्योऽन्यं प्रतिष्ठिता॥४१॥
स्वर्मेरुर्स्थलमध्ये नरको बड़वामुखं च जल मध्ये (आर्यभटीय, ४/१२)
मेरुः स्थितः उत्तरतो दक्षिणतो दैत्यनिलयः स्यात्॥३॥ एते जलस्थलस्था मेरुः स्थलगोऽसुरालयो जलगः।
(लल्ल, शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र, १७/३-४)
उत्तर में भारत के पश्चिम (अतल, केतुमाल), पूर्व में सुतल, विपरीत दिशा में पाताल है। दक्षिण में भारत के दक्षिण तल या महातल (दोनों कुमारिका खण्ड, वर्तमान काल में भारत देश तथा भारत समुद्र), अतल के दक्षिण तलातल, सुतल के दक्षिण वितल, पाताल के दक्षिण रसातल है।
विष्णु पुराण (२/५)-दशसाहस्रमेकैकं पातालं मुनिसत्तम।
अतलं वितलं चैव नितलं च गभस्तिमत्। महाख्यं सुतलं चाग्र्यं पातालं चापि सप्तमम्॥२॥
शुक्लकृष्णाख्याः पीताः शर्कराः शैल काञ्चनाः। भूमयो यत्र मैत्रेय वरप्रासादमण्डिताः॥३॥
पातालानामधश्चास्ते विष्णोर्या तामसी तनुः। शेषाख्या यद्गुणान्वक्तुं न शक्ता दैत्यदानवाः॥१३॥
योऽनन्तः पठ्यते सिद्धैर्देवो देवर्षि पूजितः। स सहस्रशिरा व्यक्तस्वस्तिकामलभूषणः॥१४॥
(२) भारत वर्ष के ९ खण्ड हिमालय के मध्य भाग (कैलास) को पूर्व-पश्चिम समुद्र तक फैलाने पर उससे दक्षिण समुद्र तक है। भारत या कुमारिका खण्ड वर्तमान भारत (पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, तिब्बत सहित) है। अन्य खण्ड हैं-इन्द्रद्वीप (बर्मा, थाइलैण्ड, कम्बोडिया, वियतनाम, कम्बोडिया जिसमें वैनतेय जिला है ), नागद्वीप (अण्डमान-निकोबार, पश्चिमी इण्डोनेसिया), कशेरुमान् (पूर्व इण्डोनेसिया, बोर्नियो, न्यूगिनी, फिलिपीन), सौम्य (उत्तर में तिब्बत), गन्धर्व (अफगानिस्तान, ईरान), वारुण (इराक, अरब), ताम्रपर्ण (तमिल के निकट सिंहल या वर्तमान श्रीलंका, लंका (लक्कादीव से मालदीव तक)।
मत्स्य पुराण, अध्याय ११४-
अथाहं वर्णयिष्यामि वर्षेऽस्मिन् भारते प्रजाः। भरणाच्च प्रजानां वै मनुर्भरत उच्यते॥५॥
निरुक्तवचनाच्चैव वर्षं तद् भारतं स्मृतम्। यतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यमश्चापि हि स्मृतः॥६॥
न खल्वन्यत्र मर्त्यानां भूमौकर्मविधिः स्मृतः। भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान् निबोधत॥७॥
इन्द्रद्वीपः कशेरुश्च ताम्रपर्णो गभस्तिमान्। नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्धर्वस्त्वथ वारुणः॥८॥
अयं तु नवमस्तेषं द्वीपः सागरसंवृतः। योजनानां सहस्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरः॥९॥
आयतस्तु कुमारीतो गङ्गायाः प्रवहावधिः। तिर्यगूर्ध्वं तु विस्तीर्णः सहस्राणि दशैव तु॥१०॥
(३) भारत पद्म के लोक-भारत नक्शे के ७ लोक आकाश के ७ लोकों के नाम पर हैं-भू (विन्ध्य से दक्षिण), भुवः (विन्ध्य-हिमालय के बीच), स्वः (त्रिविष्टप = तिब्बत स्वर्ग का नाम, हिमालय), महः (चीन के लोगों का महान् = हान नाम था), जनः (मंगोलिया, अरबी में मुकुल = पितर), तपः (स्टेपीज, साइबेरिया), सत्य (ध्रुव वृत) इन्द्र के ३ लोक थे-भारत, चीन, रूस।
ब्रह्माण्ड पुराण, उपसंहार पाद, अध्याय २ (३/४/२)-
लोकाख्यानि तु यानि स्युर्येषां तिष्ठन्ति मानवाः॥८॥
भूरादयस्तु सत्यान्ताः सप्तलोकाः कृतास्त्विह॥९॥
२. नेपाल भाग-नेपाल भारत के उत्तर भाग हिमालय का भाग है। उत्तर-दक्षिण के ३ भागों-भू, भुवः स्वः में भुवः या मैदानी भाग मध्यदेश है जिसे आज भी नेपाल में मधेस कहते हैं। राजा दिलीप तथा पुरुरवा को भी मध्यम-लोक का राजा कहा गया है (रघुवंश, २/१६, विक्रमोर्वशीयम्, अंक १ में मेनका द्वारा पुरुरवा का स्वागत)। बाइबिल में भी इसे सिधु के पूर्व का मेडेस कहा है। एक अन्य मेडेस ईरान पर्वत के पश्चिम मैदानी भाग था।
७ लोकों के अनुसार चीन का महः लोक मध्यम लोक है। अतः चीन को मध्य राज्य कहा जाता था।
स्वः लोक के ३ भाग हैं, जिनको ३ विटप कहा है। विटप का अर्थ वृक्ष है, जिसकी हजारों जड़ें भूमि से जल खींच कर पत्तों तक पहुंचाती हैं। इसी प्रकार भूमि पर जो जल गिरता है, वह हजारों स्रोतों से बह कर एक नदी धारा रूप में निकलता है। समुद्र में मिलने के पहले धारा कई भागों में बंट जाती है जिसे धारा का विपरीत राधा कहते हैं। अतः अंग देश (पश्चिम बंग) के राजा कर्ण को राधा-नन्दन कहते थे। ३ विटपों का केन्द्र कैलास पर्वत है। पश्चिमी भाग विष्णु-विटप है जिसका जल सिन्धु नद द्वारा निकलता है और जिस समुद्र में मिलता है उसे सिन्धु समुद्र तथा तटीय भाग को भी सिन्धु देश कहते हैं। मध्य में शिव-विटप है जिससे गंगा नदी निकलती है। यह गंगा सागर (बंगाल की खाड़ी) में मिलती है। गंगा समुद्र के शासकों को गंग कहते थे (ओड़िशा का राजवंश)। अतः कहते हैं कि शिव जटा से गंगा निकली है। यह ब्रह्मा के कमण्डल में लुप्त होती है। क = जल, इसका मण्डल कमण्डल है। ब्रह्मदेश (बर्मा, अभी म्याम्मार) के पश्चिम तथा दक्षिण भारत के पूर्व तट के बीच कमण्डल है। कमण्डल का पश्चिम तट कर-मण्डल या बंगला उच्चारण में कारोमण्डल है। पूर्व में ब्रह्म विटप है, जिससे ब्रह्मपुत्र नद निकला है। इसकी सीमा पर ब्रह्म देश है। ब्रह्मा को महा-अमर भी कहते थे, जिससे म्याम्मार हुआ।
नेपाल शिव विटप का पूर्व भाग है। केदारनाथ में शिव का पैर तथा पशुपतिनाथ में उनका सिर है।
इत्युक्तस्तु तदा ताभ्यां केदारे हिमसंश्रये। स्वयं च शंकरस्तस्थौ ज्योतीरूपो महेश्वरः॥७॥
तद्दिनं हि समारभ्य केदारेश्वर एव च। पूजितो येन भक्त्या वै दुःखं स्वप्नेऽति दुर्लभम्॥१२॥
यो वै हि पाण्डवान्दृष्ट्वा माहिषं रूपमास्थितः। मायामास्थाय तत्रैव पलायनपरोऽभवत्॥१३॥
धृतश्च पाण्डवैस्तत्र ह्यवाङ्मुखतया स्थितः। पुच्छ चैव धृतं तैस्तु प्रार्थितश्च पुनःपुनः॥१४॥
तद्रूपेण स्थितस्तत्र भक्तवत्सलनामभाक्। नयपाले शिरोभागो गतस्तद्रूपतः स्थितः॥१५॥
भारतीभिः प्रजाभिश्च तथेव परिपूज्यते॥१८॥ (शिव पुराण, कोटि रुद्र संहिता, अध्याय १९)
नेपाल मूलतः गण्डक घाटी का ही क्षेत्र था। मैदानी भागों पर मुस्लिम या ब्रिटिश आक्रमण के समय नेपाल के राजाओं ने पश्चिम के पर्वतीय भाग तथा तराई के निकट मैदानी भागों (मधेस) पर अधिकार कर लिया।
वराह पुराण, अध्याय १४५-
अन्यच्च गुह्यं वक्ष्यामि सालङ्कायन तच्छृणु।
शालग्राममिति ख्यातं तन्निबोध मुने शुभम्॥२८॥
योऽयं वृक्षस्त्वया दृष्टः सोऽहमेव न संशयः॥२९॥
मम तद् रोचते स्थानं गिरिकूट शिलोच्चये।
शालग्राम इति ख्यातं भक्तसंसारमोक्षणम्॥३२॥
गुह्यानि तत्र वसुधे तीर्थानि दश पञ्च च॥३४॥
तत्र विल्वप्रभं नाम गुह्यं क्षेत्र मम प्रियम्॥३५॥
तत्र कालीह्रदं नाम गुह्यं क्षेत्रं परं मम।
अत्र चैव ह्रदस्रोतो बदरीवृक्ष निःसृतः॥४५॥
तत्र शङ्खप्रभं नाम गुह्यं क्षेत्रं परं मम।४९॥
गुह्यं विद्याधरं नाम तत्र क्षेत्रे परं मम।
पञ्च धाराः पतन्त्यत्र हिमकूट विनिःसृताः॥६२॥
याति वैद्याधरान् भोगान् मम लोकाय गच्छति॥६४॥
शिला कुञ्जलताकीर्णा गन्धर्वाप्सरसेविता॥६५॥
गन्धर्वेति च विख्यातां तस्मिन् क्षेत्रं परं मम।
एकधारा पतत्यत्र पश्चिमां दिशोमाश्रिता॥६८॥
गन्धर्वाप्सरसश्चैव नागकन्याः सहोरगैः॥८०॥
देवर्षयश्च मुनयः समस्त सुरनायकाः।
सिद्धाश्च किन्नराश्चैव स्वर्गादवतरन्ति हि।८१॥
नेपाले यच्छिवस्थानं समस्त सुखवल्लभम्॥८२॥
एतद् गुह्यं प्रं देवि मम क्षेत्रे वसुन्धरे॥९७॥
अहमस्मिन् महाक्षेत्रे धरे पूर्वमुखः स्थितः।
शालग्रामे महाक्षेत्रे भूमे भागवतप्रियः॥९८॥
शाल वृक्षों के कारण यह शालग्राम तथा वहां के ऋषि को सालङ्कायन कहा है। गण्डकी नदी के पत्थरों को भी शालग्राम कहते हैं, जिन पर विष्णु का चिह्न चक्र जल प्रवाह में घिसने से अंकित हो जाता है।
कोसल तथा विदेह की सीमा बूढ़ी गण्डक को सदानीरा भी कहते थे। लिखा है कि सूर्य कर्क राशि में रहने से (आषाढ़ मास में) सभी नदियां जल से भरी रहती हैं, किन्तु सदानीरा में सदा जल रहता है।-
तर्हि विदेघो माथव आस । सरस्वत्यां स तत एव प्राङ्दहन्नभीयायेमां पृथिवीं
तं गोतमश्च राहूगणो विदेघश्च माथवः पश्चाद्दहन्तमन्वीयतुः स इमाः
सर्वा नदीरतिददाह सदानीरेत्युत्तराद्गिरेर्निर्घावति -- (शतपथ ब्राह्मण, १/४/१/१४)
अथादौ कर्कटे देवी त्र्यहं गङ्गा रजस्वला। सर्व्वा रक्तवहा नद्यः करतोयाम्बुवाहिनी॥ इति भरतः।
३. अन्य नाम-
(१) गुह्य-गुह्य काली का स्थान होने के कारण यह गुह्य देश था तथा इसके निवासियों को गुह्यक कहते थे (वराह पुराण उद्धरण)। गुह्यक की देव जातियों में गणना है जो हिमालय या स्वः लोक की जातियां थीं।
गुह्यकाल्या महास्थानं नेपाले यत् प्रतिष्ठितम्। (देवी भागवत पुराण, ७/३८/११)
वाराणसी कामरूपं नेपालं पौण्ड्रवर्धनम्॥ (ब्रह्माण्ड पुराण, ३/४/४४/९३-५१ शक्तिपीठ)
पौण्ड्रवर्धन नेपालपीठं नयनयोर्युगे (वायु पुराण, १०४/७९)
दुर्द्धर्षोनाम राजाभून्नेपालविषये पुरा। पुण्यकेतुर्यशस्वी च सत्यसंधो दृढव्रतः॥२॥
क्व गतो हि महीपाल नेपालविषयस्तव॥२९॥ (स्कन्द पुराण, ५/२/७०)
विक्रमादित्य ने शकों के नाश तथा धर्म रक्षा के लिए गुह्य देश में शिव का तप किया था।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व १, अध्याय ७-
शकानां च विनाशार्थमार्यधर्म विवृद्धये। जातश्शिवाज्ञया सोऽपि कैलासाद् गुह्यकालपात्॥१५॥
विक्रमादित्य नामानं पिता कृत्वा मुमोद ह। स बालोऽपि महाप्राज्ञः पितृमातृ प्रियङ्करः॥१६॥
(२) रुरु-रुरु मृगों द्वारा एक तपस्विनी कन्या का पालन हुआ था, अतः इसे रुरु क्षेत्र भी कहा गया।
(वराह पुराण, अध्याय १४६)
(३) गोस्थल-यहां से गायें निकल गयीं थी, जहां महर्षि और्व ने पुनः गायों को बसाया। अतः इसे गो-निष्क्रमण तथा गाय बसाने पर गोस्थलक नाम हुआ। (वराह पुराण, अध्याय १४७) गोरक्ष या गोरखा नाम का यह मूल हो सकता है। यहां के महाभारत पूर्व के राजाओं को भी गोपाल वंश का कहा गया है। कश्मीर के प्राचीन राजा गोनन्द वंश के थे।
(४) नेपाल-नेपाल नाम का उल्लेख गुह्य काली क्षेत्र के वर्णनों में हुआ है। इससे वहां की एक जाति का नाम नेवार हुआ है। नेपाल नाम के विषय में बहुत सी कल्पना हैं।
लेपचा भाषा में ने = पवित्र, दिव्य तथा पाल = गुहा। उस भाषा में यह गुह्य का अनुवाद है।
नेवारी भाषा में ने = मध्य, पाल = देश। यह मध्य के शिव विटप का भाग है।
तिब्बती भाषा में नेपाल का अर्थ ऊन का क्षेत्र है। लिम्बू भाषा में नेपाल का अर्थ है समतल भाग। यह तराई भाग के लिए है।
एक अन्य कथा है कि यहां का राजा २२वें जैन तीर्थंकर नेमि-नाथ का शिष्य था। नेमिनाथ द्वारा पालित होने से भी यह नेपाल हुआ। नेमिनाथ भगवान् कृष्ण के भाई थे। उनके भाइयों में केवल युधिष्ठिर ही राजा बने थे और कृष्ण के परलोकगमन के बाद संन्यासी रूप में २५ वर्ष तक पूरे भारत का भ्रमण किया। भारत में भी ओंकारेश्वर क्षेत्र नेमाळ (नेमाड़) है। ओड़िशा में भी नेमाळ एक सिद्ध पीठ है।
४. देव जातियां-त्रिविष्टप का अर्थ स्वर्ग है तथा उस क्षेत्र की जातियों को देव जातियां कहा गया है।
विद्याधराप्सरो यक्ष रक्षो गन्धर्व किन्नराः।
पिशाचो गुह्यको सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः॥ (अमरकोष, १/१/११)
नेपाल के या गण्डकी क्षेत्र के गुह्यक हुए। भूत देश भूटान है, जहां भूत लिपि प्रचलित थी। यक्ष कैलास के निकट के थे, जहां कुबेर का शासन था। कुबेर का स्थान शून्य देशान्तर पर स्थित था (प्राचीन काल में उज्जैन का देशान्तर), जो कैलास से थोड़ा पूर्व होगा। ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/१८)
मध्ये हिमवतः पृष्ठे कैलासो नाम पर्वतः। तस्मिन्निवसति श्रीमान्कुबेरः सह राक्षसैः॥१॥
अप्सरो ऽनुचरो राजा मोदते ह्यलकाधिपः। कैलास पादात् सम्भूतं पुण्यं शीत जलं शुभम्॥२॥
मदं नाम्ना कुमुद्वत्त्तत्सरस्तूदधि सन्निभम्। तस्माद्दिव्यात् प्रभवति नदी मन्दाकिनी शुभा॥३॥
दिव्यं च नन्दनवनं तस्यास्तीरे महद्वनम्। प्रागुत्तरेण कैलासाद्दिव्यं सर्वौषधिं गिरिम्॥४॥
मत्स्य पुराण (१२१/२-२८)
मध्ये हिमवतः पृष्ठे कैलासो नाम पर्वतः। तस्मिन् निवसति श्रीमान् कुबेरः सह गुह्यकैः॥२॥
अप्सरो ऽनुगतो राजा मोदते ह्यलकाधिपः। कैलास पाद सम्भूतं पुण्यं शीत जलं शुभम्॥३॥
मन्दोदकं नाम सरः पयस्तु दधिसन्निभम्। तस्मात् प्रवहते दिव्या नदी मन्दाकिनी शुभा॥४॥
शून्य देशान्तर पर होने के कारण अलका, उज्जैन या लंका का समय पृथ्वी का समय था। कुबेर नाम का यही अर्थ है-कु = पृथ्वी, बेर = समय।
कुबेर के अनुचरों को यक्ष तथा ऊपर के श्लोकों में अप्सर कहा है। आजकल भी राजा के अनुचरों को अफसर कहते हैं, जो संस्कृत, पारसी मूल से अंग्रेजी में गया है।
विद्याधर तथा सिद्ध लासा तथा उसके पूर्व के भाग के हैं। पिशाच कैलास से पश्चिम के थे जिनकी पैशाची भाषा मंअ बृहत्-कथा थी। किन्नर कैलास के दक्षिण पश्चिम के थे। हिमाचल का उत्तरी भाग किन्नौर है।
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