गोवंश ह्रास की सरकारी नीती
------ लीना मेहेंदळे
अभिव्यक्ति-अनुभूति के १५ अप्रैल २०१३ के अंक में प्रकाशित
------ लीना मेहेंदळे
अभिव्यक्ति-अनुभूति के १५ अप्रैल २०१३ के अंक में प्रकाशित
बहुत कम लोगोंको पता होगा कि जनगणना तरह हर पांच वार्ष बाद सरकारी यंत्रणा
द्वारा देश मे पशुगणना भी कराई जाती है । इसमे गाय, बैल, बछडे, बछडियॉं, भैस, भैसा
गधे, खच्चर, घोडे, ऊँट, बकारी, भेडें, कुत्ते और सुअर मुर्गी तथा बत्तखोंकी गणना
की जाती है । अर्थात जो भी पशु मनुष्य के काम आता है, उसकी गणना की जाती है । इन
पशुओं को “पशुधन” कहा जाता है । अर्थात
ये पशु देशकी धन- संपत्ती बढाने मे हाथ बँटाते है, यह तो निश्चित है ।
यदि हम पिछले 65 वर्षें के अर्थात
दस पशुगणनाओं के ऑंकडे देखे तो पता चलता है कि 1992-97-2003 के दशक मे हमारे गोधन
में तेजी से ह्रास ही हुआ है, वृद्धि नही
। हमारी कई सरकारी नीतियॉं इस ह्रास का कारण रही है । यहॉं हम गोवंश से संबंधित सरकारी नीतियॉं और उनके कारण
होनेवाले गोवंश ह्रास की चर्चा करेंगे । 2007 मे गोवंश मे कुछ वृद्धि दिखती
है, लेकिन 2012 और 2017 की स्थिती जाने बिना इसका माहत्व नही है । 1950 मे देश मे
गायों की संख्या 15 करोड थी, जो 2010 मे बढकर 20 करोड हो गई है । लेकिन केवल इतना
कहना पर्याप्त नही है ।
1970 के आसपास देश में दूध उत्पादन को बढावा देने कें
उद्देश से विदेशी गायोंको लाया गया, जिसमे दो नस्ले प्रमुख रूप से सफल हुईं और
अपनाई गईं । जर्सी तथा होलस्टिन फ्रिशयान नस्ल कि ये गायें थीं । संपूर्ण शुद्धता
वाली गायों को भारतीय जलवायु अनुकूल नही थी अतः इनका संकरण देशी गायों के साथ किया
गया । इस प्रकार देश में संकरित गायों की प्रथा चल पडी । जहॉं देशी गाय औसतन 2 या
3 लीटर दूध देती थी, वाहॉं संकरित गाय 15 से 20 लीटर दूध औसतन देती थी । अतः
संकरित गायों की मांग बढी । साथ ही देश में दूध उत्पादन भी बढा । देश के पशुसंवर्द्धन
विभागने अपना पूरा ध्यान संकरित गायों पर केंद्रित किया ताकी उनकी संख्या में
वृद्धि हो।
अर्थात वर्ष 1995 और 2010 के बीच
जो गोवंश ह्रास दिखता है, उसमें
संकरित गायों की संख्या मे वृद्धि भी दिखई देती है । अर्थात देशी गोवंश का ह्रास जितना दिखता है, उसमे कहीं अधिक ही हुआ है ।
इस ह्रास की विस्तृत चर्चा करनेसे पहले गायों के लिये निश्चित
किये गये आर्टिफिशियाल इन्सेमिनेशन प्रोग्राम (AIP) की बाबत एक आवश्यक जानकारी देखते है । इस प्रोग्राम
के लिये फ्रोझन सीमेन कलेक्शन केंद्र गठित किये गये है । एक केंद्र मे उसकी क्षमता
के अनुसार जर्सी या होलस्टीन प्रजाती के 30 से 50 बैल रखे जाते है । इनक सीमेन
अर्थात वीर्य संपूर्ण वैज्ञानिक तरीके से फ्रीझ करके उसकी थोडी थोडी मात्रा एक
लंम्बी नली मे भरी जाती है, जिसे स्ट्रॉ कहते है । ऐसी स्टॉज का बंडल बनाकर उन्हें
लिक्विड नाइट्रोजन भरे सिलेंडर में अत्यंत कम तापमान में रखकर पशु अस्पतालों मे
रखा जाता है । ग्रामीण किसान जब अपनी गायें वहॉं लाते हैं तब उन्हे इस स्ट्रॉ के
वीर्य की सहायतासे गर्भधारणा करवाई जाती है । ऐसी गाय की बछिया में 50 प्रतिशत
रक्त विदेशी नस्ल का होगा जिसके परिणामस्वरूप उन बछियों की दूध की मात्रा में
वृद्धि हो जाती है । यदि माता गाय 3 लीटर दूध देती है तो यह बछिया 7-8 लीटर दूध दे
सकती है । तुलनात्मक देखें तो मूल विदेशी गाय 40 से 50 लीटर दूध देती है लेकिन उसे
यहॉं की जलवायु रास नही आती । मूल देशी गाय की संकरीत बछिया हो तो 8 लीटर पर अटक
जाती है । इसका उपाय यह सोचा गया की बछिया को भी कृत्रिम गर्भधारणा प्रक्रिया से विदेशी नस्ल
के बैल से गर्भधारणा करवाई जाय । ऐसा करने पर जो बछिया की बछिया अर्थात तृतीय वंशज
(थर्ड जनरेशन) की गाय होगी उसमें विदेशी रक्त की मात्रा 75 प्रतिशत होगी और वाकई
वह 22-25 लीटर तक दूध भी देती है । फिर प्रयोग किया गया कि थर्ड जेनरेशन की बछिया
को भी विदेशी बैल से ही गर्भधारण कराओ तो चौथी वंशजा बछिया के विदेशी रक्त का
प्रमाण 82.5 तक पहुंचा सकेगा । लेकिन इन प्रयोगो में देख गया कि चौथी वंशजा या तो
अल्पायु होती है या फिर बांझ । इसलिये ये प्रयोग तीसरे वंश संक्रमण से आगे नही जा
सकते ।
इन प्रयोगों की चर्चा मै आगे फिर एक बार करने वाली हूँ, देशी गोवंश-वृद्धि के
संबंध में । लेकिन अभी पहले तो यह देखें कि गोवंशह्रास की समस्या क्या है ।
मुझे लगता है कि भारत कृषी-प्रधान
देश है, इस बात की सरकार कबकी भूल चुकी है । अतः यहॉं के पशुधन की प्राथमिक
उपयोगिता अब विदेशों में मांस निर्यात करने के लिये है । इसके लिये सूअर की
उपयोगिता थोडी कम है क्यो की मुस्लिम देशों में निर्यात की संभावना कम होती है ।
अतएव गोवंश ही वह पशुधन है जो विदेशों मे मांस निर्यात के लिये अधिक अच्छा है ।
इसके लिये सरकारी नीति है कि कसाईखानों को बढावा दिया जाये । उनमें अत्याधुनिक
यंत्र प्रणाली लगे ताकि किसी भी जानवर को काटने मे मिनट नही, केवल कुछ सेकंद ही
लगें। साथ ही सरकार उन तंत्रोंको भी बढावा देती है जिससे कोई भी कसाईखाना 24 घंटे x 365 दिन चलाया जा सके । इस प्रकार आज
यदि हम महाराष्ट्र का कुल पशुधन और महाराष्ट्र के कुल 336 कसाईखाने देखें, और उनकी
दैनिक क्षमता को देखें तो अगले 15 वर्षां में महाराष्ट्र का पूरा गोवंश कट चुका
होगा । कमोबेश यही स्थिती पूरे भारत की होगी ।
इस मामले मे देखने लायक है कि कानून क्या कहता है ।
महाराष्ट्र का गोवंश-बचाव का कानून कहता है कि कोई भी गाय जिसकी आयु दूध देने लायक
आयु से ऊपर जा चुकी हो और जिसने दूध देना बंद कर दिया हो, उसे कसाईखाने में भेजा
जा सकता है । साधारण तौर पर कोई भी किसान या गोपालक अपनी दोहती गाय को कसाईखाने
नही भेजता लेकिन जब अकाल की स्थिती आती है और पशु चारोकी महंगाई की मार झेलना
किसान के लिये मुश्किल हो जाता है तब उसकी गायें कसाई के हाथ बिक जाती है । यही
हाल बछिया का भी है, लेकिन उसके बेचे जाने की संभवना कम होती है ।
बैल और बछडे को लेकर सरकारी नीति ऐसी है कि उसमें साफ
तौर से खोट नजर आती है । तीन वार्ष की आयु हो जाने पर वह बैल खेती के लायक माना
जाता है । इसी प्रकार 1 चर्ष से कम आयु के बछडे को काटने पर भी रोक है। लेकिन एक
से तीन वर्ष तक की आयुवले बछडों को धडल्ले से काटा जाता है। तर्क यही दिया जाता है
कि ये बछडे न तो हत्या-निर्बंध की आयुमे है और न कृषि-उपयोगी आयु को पा चुके है । इस
प्रकार जब 1-3 की आयुके बछडेका काटना निषिद्ध नही है, तब 1 वर्षसे कम आयुवाले बछडे
भी काटे जाते हैं क्योंकि इतनी गहराई में जाकर आयुका सर्टिफिकेट नही देखा जाता।
कसाईखाने में आनेवाले हर पशु के
लिये वहाँ नियुक्त सरकारी पशुधन अधिकारी के सर्टिफिकेट की आवश्यकता होती है कि वह
पशु काटने योग्य था, और उसे काटने मे किसी नियम या कानून का उल्लघन नही हुआ है ।
पशुको “पास” कराने के लिये इन सरकारी अफसरोंको
कसाईखाने के मालिकोंकी और से काफी “रिश्वत” ऑफर की जाती है । कसाईखाने वाली पोस्ट पाने के लिए
अफसरों मे होड लगी रहती है । ऐसी हालात मे कसाईखाने लाये जाने वाले बैलोंको या
बछडों को तत्काल “पास” किया जाता हो तो क्या आश्चर्य ! सरकार के सामने कई बार प्रस्ताव आया कि इस कानून
में सुधार किया जाये । यदि 2-3 वर्ष की आयुवाले बछडे कटते रहेंगे तो आगे चलकर खेती
के चलकर खेती के लिये बैल कहॉं से आयेंगे ? लेकिन सरकार का मानना है कि अब हमारा
किसान प्रगतिशील हो गया है। वह ट्रॅक्टर के सहारे खेती करता है, बैलपर निर्भर नही
है, अतः यह तर्क सरकार के पल्ले नही पडता । इस प्रकार 1 वर्ष से अधिक आयु के बैल
धडल्ले से कसाईखानों में कतल किये जाते हैं।
वर्ष 1952 से 1992 तक गोधनमें हर वर्ष वृद्धि होते हुए
15.5 करोडसे बढकर 20.1 करोड हुआ। फिर ह्रास होते हुए वर्ष 2003 मे 18.5 करोड पहुँचा
और वर्ष 2007 मे थोडा बढकर 20 करोड पर पहुँचा । इसमे दूध देने योग्य गायें 7.3
करोड थीं । लेकिन 2003 और 2007 के बीच जो 1.5 करोड की गोधनवृद्धि हुई उसमे 1 से 3
वर्ष की आयु के बछडोंकी संख्या 132 से केवल 136 लाख पर पहुँची और यह 4 लाख की वृद्धि
विदेशी-संकरित बछडोंमें है । देशी गायोंकी संख्या 830 लाखसे 892 लाख और संकरित
गायें 197 से 262 लाख हुई है। इसी दौरान विदेश-संकरित बैलोंकी संख्या 50 लाखसे 65
लाख हो गई । तुलनामें देशी बैल 775 से घटकर 768 लाख पर आ गये है।
संकरीत गायोंमे सबसे आगे तामिलनाडू है जहॉं 2003 से
2007 में इनकी संख्या 51 लाखसे 74 लाख बढी, महाराष्ट्र में 28 से 31 लाख, कर्नाटक
14 से 20 लाख. बंगाल 9 से 20 लाख, बिहार 13 से 20 लाख, और यूपी 16 लाख से 19 लाख
हुई है।
इनकी तुलनामे विभिन्न राज्योमें देशी गायोंकी संख्या
पांच गुना से लेकर 20 गुना तक अधिक है। फिर भी पूरा सरकारी कार्यक्रम मानो या तो
संकरित गायों के लिये है या मांस के निर्यात के लिये।
अब एक दूसरी नीति देखते है। हमारे देश मे हजारों वर्षों से परंपरा चली आ रही है कि गॉंव
का सबसे सशक्त बैल शिवजी के मंदिरमे छोड दिया जाता है। फिर उसके मलिक का हक और
जिम्मेदारी दोनो समाप्त। उस बैल के खाने का प्रबंध पूरा गांव मिलकर करता है। उसपर
कोई रोक-टोक, कोई प्रतिबंध नही होता। न उसपर किसी तरह का कोई अंकुश लगाया जाता है।
जब गायोंको चराने के लिये जंगल में ले जाते है तब अक्सर यह बैल भी उनके साथ जाता
है और प्रायः सभी गायों का गर्भ इसी बैल से आता है - अर्थात गॉंव के सबसे सशक्त
बैल से। प्रायः हर पांच वर्ष के बाद एक नया और युवा बैल शिवजी के नाम पर छोडा जाता
है।
इस प्रकार गॉंव की रीत में ही यह व्यवस्था की गई थी एक
सशक्त बैल के वीर्य से अगली संतानें पैदा हों ताकि वे भी सशक्त उपजें।
लेकिन जब सरकार ने विदेशी बैलों से संकर द्वारा वंश
चलाने की योजना बनाई तो इन शिवजी के बैलों को “खतरा” या “न्यूसेंस” की संज्ञा में डाला गया। यह बैल रहा तो गायकी कृत्रिम
गर्भधारणा करवाने में किसान आलस करेगा। इसलिये सरकारी योजना बनी की गॉंव के बैलों
को निर्वीर्य किया जये। इस प्रकार देश के सबसे अच्छे बैलों को निर्वीर्य करने की
योजना बनी और खूब चली। फिर ऐसे बैलों का बोझ गॉंव क्यो सहे? सो वे भी जल्दी ही
कसाईखने के रास्तेपर जाने लगे।
तो अब हालात यह है कि अपने देश के सशक्त, वीर्यवान
बैलों को तो हम तेजीसे समाप्त करवा हैं और गयोंको तेजीसे कृत्रिम रेतन द्वारा
संकरित करवाया जा रहा है। ये गायें अच्छे माहौल मे दूध तो अधिक देती है लेकिन सूखा
पडने पर सबसे जल्दी कालवश हो जाती है।
इसी सिलसिले में अन्य नीतियों की
चर्चा आवश्यक है।
जब शहरीकरण बढा तो शहरी लोगों के
लिये दूध की समस्या बनी। पहले मुंबई जैसे मेगा सिटीज में भी जगह जगह गोशालाऐ हुआ
करती थिं। फिर शहर में व्यापार बढा, जगह की कमी खलने लगी तो गोशाला को शहर से बाहर
किया गया। अब शहर में सरकारी माध्यम से दूध वितरण की आवश्यकता पडी। चिलींग प्लांट
में बडे पैमाने पर दूध लाकर उसे प्रोसेस कर बोतलों मे बंद कर बेचा जाने लगा। जैसे
जैसे शहरोंकी मॉंग बढी, वैसे वैसे गांवों का सारा दूध कॅन्समे भरकर शहर आने लगा।
गॉंव के दूध की हर बूंद भी शहर में लाई जाय तो भी कम ऐसी स्थिती हो गई। वर्ष बीतते
गये तो सरकार से अलग सहकार व निजी क्षेत्र मे दूध कारखाने खुलने लगे। इन सबका
परिणाम भी यही हुआ कि संकरीत गोवंश की आवश्यकता बढने लगी। व्यावहारिकता के देखते
हुए यह व्यवस्था उचित थी लेकिन इसकी दो मुख्य समस्याएँ हैं। जब तक यह दूध हमतक पहुँचता है, वह पांच छः दिन
बासी हो चुका होता है और उसमे मिलावट भी हो जाती है जो अत्यंत हानीकारक है। आजकी
तारीखमें इसका कोई समाधान नही है।
गाय का दूध मनुष्य समाज के प्राणी
पी जाये इसमे आश्चर्यकारक कुछ नही। हजारों वर्षोंसे गाय ही नही भैंस, बकरी, उंटनी,
भेड आदि का दूध भी मनुष्य प्राणी उपयोग में ला रहा है । गाय का दूध प्रायः मॉं के
दूध के समान होता है। जैसे मनुष्य प्राणी में गर्भ-प्रसव का काल नौ माह और नौ दिन
का होता है, उसी प्रकार गाय का भी गर्भ-प्रसव काल नौ महीने और नौ दिनोंका होता है।
कई तरह से गाय का दूध मनुष्य के अनुकुल भी है, और पोषक दवाई या अमृततुल्य है।
लेकिन जब ऊँची पहाडियोंपर जाते है, या आदिवासी क्षेत्रौं मे जाते है तो वहॉं एक
अलग संस्कृति दिखती है। वहॉं माना जाता है कि गायका दूध केवल बछडे और बछिया के
पीने के लिये है और यदि मनुष्य गाय का दूध निकाल कर पिये तो यह पाप है क्यो कि यह
बछडे का निवाला छिनने जैसा काम है।
लेकिन सरकारमे प्रायः यह विचार
नही किया जाता कि किसी जगह की संस्कृती क्या है और उसके पीछे क्या वैज्ञानिक कारण
है। फिर ये सारी बातें बिना सोचे ही उस संस्कृति या परंपरा को अंधश्रद्धा घोषित कर
उसे नष्ट करवाना, यह सोच भी हमारी सत्ता प्रणाली में ब्रिटिशों के जमाने से आई। सो
महाराष्ट्र मे जो दूध नीति है, उसमें एक योजना ऐसी भी है जिसमे पहाडी और आदिवासी
लोगों को यह समझाया जाता है कि गाय का दूध मनुष्य प्राणी के लिये है, इसलिये तुम
बछडे के हक या पाप का विचार छोडो, गाय का दूध निकालो, उसे शहरमे बेचो, पैसा कमाओ
क्योंकि पैसा ही सर्वोपरि है और बछडे के हक से अधिक श्रेष्ठ पैसा है
मेरी सरकारी ड्यूटी के कारण ऐसे कई इलाके में मेरी
टूर रही है और मैनें एक बात गौर की कि इन लोगोंके लिये दूधकी अपेक्षा खेत के बैल
का महत्व अधिक है। पहडियों में छोटे छोटे टुकडों मे इनकी जमीन बँटी होती है। जंगलो
के अंदरूनी भाग में भी रहने की जगह से दुर्गम राह चलकर खेतों मे पहुंचना पडता है। इतना
चलकर या पहाड चढकर फिर बैल खेतो मे काम करते है, तब इनके सालभर का अनाज जुट पाता
है। बैल जितना कष्ट कर पायेगा, और जितनी लम्बी उसकी आयु होगी उतनी कम ही है। ऐसी
संस्कृति मे बैल आयुष्यमान हो और धष्टपुष्ट रहे, लम्बी उमर तक खेतमे कष्ट का काम
कर पाये, इसके लिये जरूरी है कि उसे बाल्यावस्थामे अच्छा पोषण मिले। इसी लिये
गायका दूध पूरा उसे ही पीने के लिये दिया जाता है।
लेकिन जब सरकार कहती है कि हमारे किसान ट्रॅक्टर से
ही खेत की जोताई करें, तब उसके अफसर भी भूल जाते है कि पहाडी इलाकों में जहॉं
सीढी-दर-सीढी कम चौडी खेत की पट्टियॉं होती है, वहॉं कोई ट्रॅक्टर चल नही सकता
बल्की बैल ही काम आता है। इसके अलावा कई बार इनके बैल गाडीमें जोतने के काम आते
है। ऐसे बैल तभी समुचित काम कर पायेंगे जब उन्हे बचपन में सही पोषण अर्थात गाय का
पूरा दूध मिला हो। अतः यदि उनकी संस्कृति मे कही रच बस गया हो कि गाय का दूध
निकालकर पीना पाप है और बछडे का निवाला छिनने जैसा है, तो इस प्रथा का आदर करते
हुए हमारी नीतियॉं बनानी चहिये। अपने प्रसारसे हम उन्हे दूध बेचना तो सिखा देंगे
लेकिन उनके जमीन की उपज खतरे में आयेगी।
महाराष्ट प्रदेश में 5 विशुद्ध नस्लों की गायें पाई
जाती है । इन नस्लों के नाम है खिल्लार, लाल कंधार, देवनी, डांगी और गौळव । इनकी
प्रजा और संख्या लगातार घटते जा रहे है। लेकिन इन्हे बचाने की या इनके वंशवृद्धि
की कोई नीति हमारे पास नही है। फलसवरूप कुछ ही वर्षों में ये वंश नष्ट होनेकी संभावना
है। आज जब केरल मे धान की दस से अधिक प्रजातियॉं लुप्त हो गई तब कृषि शास्त्रविदों
में हाय हाय मच गई कि काश हमने उन्हें बचाया होता। इसी प्रकार इन गो-प्रजातियों के
बारे में देर से सचेत होने का कोई फायदा नही। चेतना आज ही आनी चहिये।
महाराष्ट्र में कृत्रिम रेतन कार्यक्रम के अंतर्गत
विदेशी बैलो का वीर्य जमा करने वाली पांच लॅबोरेटरीज हैं। अति प्रशिक्षित स्टाफ और
इस काम के अभ्यस्त अधिकारी गण हैं। मैंने एक मीटींग में उनसे पूछा कि किसी बैल को
इस काम के लिये चुनते समय आप उसकी कौनसी खूबियॉं देखते है? तब सिद्धान्त के तौर पर
ये खूबियॉं गिनाई गई --
1. क्या उस बैलका पूर्व
इतिहास बताता है कि उसके वीर्य से अधिकतर बाछिया पैदा होती है? यदि अधिकतर नर
अर्थात बछडे पैद होते है तो उस बैल को स्कीम से हटा दिया जाता है।
2. क्या उसके वीर्य से
उत्पन्न द्वितीय वंशज दीर्घायु होते है?
3. क्या उसके वीर्य से
उत्पन्न गायें अधिक दूध देती है?
मैने चर्चा मे पूछा कि उनके संतानों की सूखे का सामना
करने की क्षमता कैसी होती है, तो पता चला कि सूखा या अकाल पडनेपर सबसे पहला असर
इनके दूध पर पडता है। दूध तेजी से घटता है। दूसरा, ये कोई गायें अकाल में टिक नही
पातीं और उनकी मृत्यु जल्दी हो जाती है। मेरे विचार से कमसे कम महाराष्ट्र की पशु
नीति मे तो अकाल का विचार अवश्य होना चहिये।
साथ ही कृत्रिम रेतन के बाद डेटा की कलेक्शन और स्टडी
होनी चाहिये। वर्ष 1960 और 1970 के दशक में जब ये लॅबोरेटरीज बनीं तब एक सूत्रबद्ध
व्यवस्था थी कि कैसे गांव-गांव से इनकी प्रजाओं की जानकारी हर महीने इन केंद्रोंतक
पहुँचाई जायेंगी और उनके आधार पर वैज्ञानिक तरीके से स्टडी कर निष्कर्ष निकले
जायेंगे। लेकिन आज महाराष्ट्र में इस प्रकार का कोई रिसर्च या स्टडी नही होती। इस
प्रकार महाराष्ट्र में पशु वैद्य तो हो गये है लेकिन रिसर्चर नही बचे।
पिछले दो वर्षों मे महाराष्ट्र मे
लगातार अकाल पडा है और गोवंश की बात करें तो सर्वाधिक हानी संकरित प्रजातियों की
हुई है। ऐसे अकाल का सामना करने के लिये हमारी विशुद्ध नस्ल की गायें और उनसे
उत्पन्न प्रजा अधिक सक्षम है। तो फिर नीतियों में भी हमें उनका विचार करना होगा।
पशु गणना के समय जब गायों की जानकारी नस्ल के आधार पर ली जाती है तो करीब 70
प्रतिशत गायों की नस्ल को “नॉन-डिस्क्रिप्ट” करार दिया
जाता है। अर्थात उनकी पिछली चार-छः पीढियों में अलग-अलग नस्ल का खून है ऐसी
नॉन-डिस्क्रिप्ट गायें दूध तो कम देती है लेकिन उनकी खूबी यह है कि अकाल में भी
टिके रहने की उनकी क्षमता अत्यधिक होती है। ऐसे मे यदि उनका संकरण विदेशी नस्लो के
साथ किया गया तो दूध तो बढ जाता है पर अकाल और रोगों से लडने की क्षमता अत्यल्प हो
जाती है। इसके विपरीत यदि इन नॉन-डिस्क्रिप्ट गायों को विशुद्ध भारतीय प्रजातियों
के साथ संकरित किया गया तो उनकी सुधृढता टिकी रहती है और दूध भी बढ जाता है।
मेरे बाल्याकाल मे मैने दरभंगा के
महाराजा की चलवाई हुई विशाल गोशाला देखी है। उसके एक बडे अधिकारी मेरे पिता के पास
अक्सर आया करते थे। और
पिताजी से विभिन्न नस्लो
के संकरण आदि विषयों पर भी बाते करते थे - संदर्भ-ग्रंथो की भी चर्चा करते थे। उनके प्रयोगों से वे बताते थे कि नॉन-डिस्क्रिप्ट गायों
को विशुद्ध देशी नस्ल के बैल के साथ संकरित करने पर जो द्वितीय वंशजा गाय पैदा
होगी उसे उसे फिर उसी विशुद्ध प्रजाति के बैल के साथ संकरित किया जाता है। उन
दिनों कृत्रिम रेतन या विशुद्ध प्रजाति के बैल का वीर्य निकाल कर रखने जैसी बातें
नही होती थी। लेकिन गायों को अलग अलग रखकर उनके दूसरे, तीसरे, चौथे वंश तक उनका एक ही
विशुद्ध प्रजाति के बैल से संमीलन करवाया जाता था। यहॉं इस अन्तर को समझना पडेगा
कि नॉन-डिस्क्रिप्ट गायोंका विदेश संकर तो तीसरी पीढीसे नही बढ पाता लेकिन देशी
विशुद्ध नस्ल के साथ सात आठ या उससे अधिक पीढीयों तक किया जा सकता है। इस प्रकार
सातवे वंशकी प्रजा ‘विशुद्ध’
की श्रेणी मे आ जाती है। ऐसी ‘विशुद्ध’ प्रजाति की प्रजा बढाने का काम तब दरभंगा
महाराज की गोशाला मे हुआ करता था। लेकिन आधुनिकता, देशकी बदलती हुई सोच आदि के प्रवाह मे वह ज्ञान,
कार्योन्मुखता और लगन कहीं पीछे छूट गये है । इसलिये ऐसे प्रश्नोपर कोई सरकारी नीति
नही है।
इसी कारण मेरा मानना है कि देश कि गोवंश-नीति
केवल कसाईखानोंके या संकरित गायोंके इर्द-गिर्द न हो, बल्कि देशी विशुद्ध नस्ले
बढाना और 1 स 3 साल के बछडोंकी कटाई रोकने जैसी महत्वपूर्ण योजना भी होनी चाहिये।
मिल्क डेअरियों में मिलावटकी समस्या का भी जल्दी ही हल निकालना होगा। मेरे IAS के कार्यकल मे मुझे महाराष्ट्र सरकार में पशुसंवर्द्धन
विभाग की प्रिंसिपल सेक्रेटरी के पद पर एक वर्ष तक कार्य करने का मौका मिला। उस
दौरान जो समस्याएँ देखी उन्हींका यह लेखा जोखा है।
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Indian Express Press Report 15.4.2013:
After an international study highlighted the link between a protein in the milk produced by western breed of cows and a range of serious illnesses, Indian Council of Medical Research is now conducting a systematic study on this aspect.
G C Pati, Union secretary of department of animal husbandry, dairying and fisheries, told reporters during the plenary session of National Workshop on ‘Capacity Building for Skill development and Self-Employment in Livestock Poultry and Fisheries sector’ that the Indian government is giving priority on developing indigenous cattle breed and a systematic research is being conducted by ICMR following reports that health problems are linked to a tiny protein fragment that is formed when one digests A1 beta-casein, a milk protein produced by many cows in the United States and western nations.
Milk that contains A1 beta-casein is commonly known as A1 milk; milk that does not is called A2. Interestingly, the milk from Indian cow is A2.
The book ‘Devil in the Milk Illness, Health, and the Politics of A1 and A2 Milk’ by Keith Woodford examines the link between a protein in the milk we drink and a range of serious illnesses, including heart disease, Type 1 diabetes, autism, and schizophrenia. It brings together the evidence published in more than 100 scientific papers.
Comments(1)
It is a very wise move by Govt of India to at last take note of this matter after it was first brought to the attention of Indian authorities in 2008. Entire world dairy authorities have taken cognizance of this research first made public by NewZealand researchers in 2006. Even USA where the most popular dairy cow breeds Holsteine and Frezian produceA1 type milk has embarked on genetic research to bring about genetic changes in their A1 milk producing Cows to start providing A2 milk. Indian Govt had for the last fifty years allowed cross breeding of A2 milk producing Indian breed with A1 milk producing Holsteine Frezian breeds. This is in direct contravention of the article 48 of the directive principles of Constitution of India , that specifically directs that breeds of Indian cows will be preserved. It is hoped that Shri G.C. Pati Secy. Govt of India will take note & issue orders to stop Xbreeding Indian cows with exotic foreign breeds in contravention of our Constitution.
Posted by SUBODH KUMAR
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Posted by SUBODH KUMAR
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गोवंश ह्रास कि सरकारी नीती, blog by you was received by me a short while ago. I am thrilled by its content. The issues raised by you are very valid.
I manage a Goshala in Delhi with a herd strength of about 700. We have been following the system of forward breeding- backward breeding as referred by you , to improve the milk yield and productivity of Indian breeds of cows. I have been raising many issues with our Govt. about its Veterinary practices . I am taking the opportunity to share some of my concerns. But I find that no veterinary experts have ever answered the issues raised and there is no change in Govt. Veterinary policies.
You having been an insider, I wonder if you will kindly suggest as to how these issues can be raised at a suitable forum in such a manner that Govt Veterinary experts see the light of the day.
Cow should not be considered an issue connected with the sentiments of a particular religious community. Cow is the basic mode for sustainability of economic and social life.
In addition to managing cows in Goshala and writing about it, I study of Vedas to find interpretation to modern life situations. An example I am also sending a few of my Vedic interpretations.
I will be grateful to receive your comments and also seek your permission to put you on my mailing list for future communications about Cows and Vedas.
With best regards,
Subodh Kumar,
C-61 Ramprasth,
Ghaziabad-201011
Mobile-9810612898
C-61 Ramprasth,
Ghaziabad-201011
Mobile-9810612898
Maharshi Dayanand Gosamwardhan Kendra , Delhi-96
Science is belief in the ignorance of Experts- Richard Feynmann
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Breeding to improve Indian Cows-draft (2)NDDB comments.doc 306K View Download |
Adhwaryu RV2.14 Bilingual.docx 1079K View Download |
Education RV10.42 B.doc 43K View Download |
Good Governance AV 20.139 B.docx 16K View Download |
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Dear Leena ji,
I am extremely obliged by your call this morning.
I am taking the opportunity to share with you some of my writings on Vedic topics.
I look forward to great inspirations and your suggestions.
With warm regards,
Subodh Kumar,
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