शनिवार, 6 अप्रैल 2013

Rishi-Krishi Sanskriti

Rishi-Krishi Sanskriti    A 3-tier Eco-friendly life-style with sustained societal progress

भारतीय ऋषि-कृषि संस्कृति के आयाम

Also read vijay sardana on food security and strategic importance of seed-banking

वेदोंमें वानप्रस्थ https://drive.google.com/drive/my-drive (सुबोध कुमार)

गोवंश ह्रास की सरकारी नीती


गोवंश ह्रास की सरकारी नीती
------ लीना मेहेंदळे
अभिव्यक्ति-अनुभूति के १५ अप्रैल २०१३ के अंक में प्रकाशित
बहुत कम लोगोंको पता होगा कि जनगणना तरह हर पांच वार्ष बाद सरकारी यंत्रणा द्वारा देश मे पशुगणना भी कराई जाती है । इसमे गाय, बैल, बछडे, बछडियॉं, भैस, भैसा गधे, खच्चर, घोडे, ऊँट, बकारी, भेडें, कुत्ते और सुअर मुर्गी तथा बत्तखोंकी गणना की जाती है । अर्थात जो भी पशु मनुष्य के काम आता है, उसकी गणना की जाती है । इन पशुओं को पशुधन” कहा जाता है । अर्थात ये पशु देशकी धन- संपत्ती बढाने मे हाथ बँटाते है, यह तो निश्चित है ।

      यदि हम पिछले 65 वर्षें के अर्थात दस पशुगणनाओं के ऑंकडे देखे तो पता चलता है कि 1992-97-2003 के दशक मे हमारे गोधन में तेजी से ह्रास ही हुआ है, वृद्धि नही । हमारी कई सरकारी नीतियॉं इस ह्रास का कारण रही है । यहॉं हम गोवंश से संबंधित सरकारी नीतियॉं और उनके कारण होनेवाले  गोवंश ह्रास की चर्चा करेंगे । 2007 मे गोवंश मे कुछ वृद्धि दिखती है, लेकिन 2012 और 2017 की स्थिती जाने बिना इसका माहत्व नही है । 1950 मे देश मे गायों की संख्या 15 करोड थी, जो 2010 मे बढकर 20 करोड हो गई है । लेकिन केवल इतना कहना पर्याप्त नही है ।

1970 के आसपास देश में दूध उत्पादन को बढावा देने कें उद्देश से विदेशी गायोंको लाया गया, जिसमे दो नस्ले प्रमुख रूप से सफल हुईं और अपनाई गईं । जर्सी तथा होलस्टिन फ्रिशयान नस्ल कि ये गायें थीं । संपूर्ण शुद्धता वाली गायों को भारतीय जलवायु अनुकूल नही थी अतः इनका संकरण देशी गायों के साथ किया गया । इस प्रकार देश में संकरित गायों की प्रथा चल पडी । जहॉं देशी गाय औसतन 2 या 3 लीटर दूध देती थी, वाहॉं संकरित गाय 15 से 20 लीटर दूध औसतन देती थी । अतः संकरित गायों की मांग बढी । साथ ही देश में दूध उत्पादन भी बढा । देश के पशुसंवर्द्धन विभागने अपना पूरा ध्यान संकरित गायों पर केंद्रित किया ताकी उनकी संख्या में वृद्धि हो।
      अर्थात वर्ष 1995 और 2010 के बीच जो गोवंश ह्रास दिखता है, उसमें संकरित गायों की संख्या मे वृद्धि भी दिखई देती है । अर्थात देशी गोवंश का ह्रास जितना दिखता है, उसमे कहीं अधिक ही हुआ है ।

      इस ह्रास की विस्तृत चर्चा करनेसे पहले गायों के लिये निश्चित किये गये आर्टिफिशियाल इन्सेमिनेशन प्रोग्राम (AIP) की बाबत एक आवश्यक जानकारी देखते है । इस प्रोग्राम के लिये फ्रोझन सीमेन कलेक्शन केंद्र गठित किये गये है । एक केंद्र मे उसकी क्षमता के अनुसार जर्सी या होलस्टीन प्रजाती के 30 से 50 बैल रखे जाते है । इनक सीमेन अर्थात वीर्य संपूर्ण वैज्ञानिक तरीके से फ्रीझ करके उसकी थोडी थोडी मात्रा एक लंम्बी नली मे भरी जाती है, जिसे स्ट्रॉ कहते है । ऐसी स्टॉज का बंडल बनाकर उन्हें लिक्विड नाइट्रोजन भरे सिलेंडर में अत्यंत कम तापमान में रखकर पशु अस्पतालों मे रखा जाता है । ग्रामीण किसान जब अपनी गायें वहॉं लाते हैं तब उन्हे इस स्ट्रॉ के वीर्य की सहायतासे गर्भधारणा करवाई जाती है । ऐसी गाय की बछिया में 50 प्रतिशत रक्त विदेशी नस्ल का होगा जिसके परिणामस्वरूप उन बछियों की दूध की मात्रा में वृद्धि हो जाती है । यदि माता गाय 3 लीटर दूध देती है तो यह बछिया 7-8 लीटर दूध दे सकती है । तुलनात्मक देखें तो मूल विदेशी गाय 40 से 50 लीटर दूध देती है लेकिन उसे यहॉं की जलवायु रास नही आती । मूल देशी गाय की संकरीत बछिया हो तो 8 लीटर पर अटक जाती है । इसका उपाय यह सोचा गया की बछिया को  भी कृत्रिम गर्भधारणा प्रक्रिया से विदेशी नस्ल के बैल से गर्भधारणा करवाई जाय । ऐसा करने पर जो बछिया की बछिया अर्थात तृतीय वंशज (थर्ड जनरेशन) की गाय होगी उसमें विदेशी रक्त की मात्रा 75 प्रतिशत होगी और वाकई वह 22-25 लीटर तक दूध भी देती है । फिर प्रयोग किया गया कि थर्ड जेनरेशन की बछिया को भी विदेशी बैल से ही गर्भधारण कराओ तो चौथी वंशजा बछिया के विदेशी रक्त का प्रमाण 82.5 तक पहुंचा सकेगा । लेकिन इन प्रयोगो में देख गया कि चौथी वंशजा या तो अल्पायु होती है या फिर बांझ । इसलिये ये प्रयोग तीसरे वंश संक्रमण से आगे नही जा सकते ।
     
इन प्रयोगों की चर्चा मै आगे फिर एक बार करने वाली हूँ, देशी गोवंश-वृद्धि के संबंध में । लेकिन अभी पहले तो यह देखें कि गोवंशह्रास की समस्या क्या है ।

      मुझे लगता है कि भारत कृषी-प्रधान देश है, इस बात की सरकार कबकी भूल चुकी है । अतः यहॉं के पशुधन की प्राथमिक उपयोगिता अब विदेशों में मांस निर्यात करने के लिये है । इसके लिये सूअर की उपयोगिता थोडी कम है क्यो की मुस्लिम देशों में निर्यात की संभावना कम होती है । अतएव गोवंश ही वह पशुधन है जो विदेशों मे मांस निर्यात के लिये अधिक अच्छा है । इसके लिये सरकारी नीति है कि कसाईखानों को बढावा दिया जाये । उनमें अत्याधुनिक यंत्र प्रणाली लगे ताकि किसी भी जानवर को काटने मे मिनट नही, केवल कुछ सेकंद ही लगें। साथ ही सरकार उन तंत्रोंको भी बढावा देती है जिससे कोई भी कसाईखाना 24 घंटे x 365 दिन चलाया जा सके । इस प्रकार आज यदि हम महाराष्ट्र का कुल पशुधन और महाराष्ट्र के कुल 336 कसाईखाने देखें, और उनकी दैनिक क्षमता को देखें तो अगले 15 वर्षां में महाराष्ट्र का पूरा गोवंश कट चुका होगा । कमोबेश यही स्थिती पूरे भारत की होगी ।
     
इस मामले मे देखने लायक है कि कानून क्या कहता है । महाराष्ट्र का गोवंश-बचाव का कानून कहता है कि कोई भी गाय जिसकी आयु दूध देने लायक आयु से ऊपर जा चुकी हो और जिसने दूध देना बंद कर दिया हो, उसे कसाईखाने में भेजा जा सकता है । साधारण तौर पर कोई भी किसान या गोपालक अपनी दोहती गाय को कसाईखाने नही भेजता लेकिन जब अकाल की स्थिती आती है और पशु चारोकी महंगाई की मार झेलना किसान के लिये मुश्किल हो जाता है तब उसकी गायें कसाई के हाथ बिक जाती है । यही हाल बछिया का भी है, लेकिन उसके बेचे जाने की संभवना कम होती है ।






     
बैल और बछडे को लेकर सरकारी नीति ऐसी है कि उसमें साफ तौर से खोट नजर आती है । तीन वार्ष की आयु हो जाने पर वह बैल खेती के लायक माना जाता है । इसी प्रकार 1 चर्ष से कम आयु के बछडे को काटने पर भी रोक है। लेकिन एक से तीन वर्ष तक की आयुवले बछडों को धडल्ले से काटा जाता है। तर्क यही दिया जाता है कि ये बछडे न तो हत्या-निर्बंध की आयुमे है और न कृषि-उपयोगी आयु को पा चुके है । इस प्रकार जब 1-3 की आयुके बछडेका काटना निषिद्ध नही है, तब 1 वर्षसे कम आयुवाले बछडे भी काटे जाते हैं क्योंकि इतनी गहराई में जाकर आयुका सर्टिफिकेट नही देखा जाता।
      कसाईखाने में आनेवाले हर पशु के लिये वहाँ नियुक्त सरकारी पशुधन अधिकारी के सर्टिफिकेट की आवश्यकता होती है कि वह पशु काटने योग्य था, और उसे काटने मे किसी नियम या कानून का उल्लघन नही हुआ है । पशुको पास कराने के लिये इन सरकारी अफसरोंको कसाईखाने के मालिकोंकी और से काफी रिश्वतऑफर की जाती है । कसाईखाने वाली पोस्ट पाने के लिए अफसरों मे होड लगी रहती है । ऐसी हालात मे कसाईखाने लाये जाने वाले बैलोंको या बछडों को तत्काल पास किया जाता हो तो क्या आश्चर्य !  सरकार के सामने कई बार प्रस्ताव आया कि इस कानून में सुधार किया जाये । यदि 2-3 वर्ष की आयुवाले बछडे कटते रहेंगे तो आगे चलकर खेती के चलकर खेती के लिये बैल कहॉं से आयेंगे ? लेकिन सरकार का मानना है कि अब हमारा किसान प्रगतिशील हो गया है। वह ट्रॅक्टर के सहारे खेती करता है, बैलपर निर्भर नही है, अतः यह तर्क सरकार के पल्ले नही पडता । इस प्रकार 1 वर्ष से अधिक आयु के बैल धडल्ले से कसाईखानों में कतल किये जाते हैं।

वर्ष 1952 से 1992 तक गोधनमें हर वर्ष वृद्धि होते हुए 15.5 करोडसे बढकर 20.1 करोड हुआ। फिर ह्रास होते हुए वर्ष 2003 मे 18.5 करोड पहुँचा और वर्ष 2007 मे थोडा बढकर 20 करोड पर पहुँचा । इसमे दूध देने योग्य गायें 7.3 करोड थीं । लेकिन 2003 और 2007 के बीच जो 1.5 करोड की गोधनवृद्धि हुई उसमे 1 से 3 वर्ष की आयु के बछडोंकी संख्या 132 से केवल 136 लाख पर पहुँची और यह 4 लाख की वृद्धि विदेशी-संकरित बछडोंमें है । देशी गायोंकी संख्या 830 लाखसे 892 लाख और संकरित गायें 197 से 262 लाख हुई है। इसी दौरान विदेश-संकरित बैलोंकी संख्या 50 लाखसे 65 लाख हो गई । तुलनामें देशी बैल 775 से घटकर 768 लाख पर आ गये है।



     













संकरीत गायोंमे सबसे आगे तामिलनाडू है जहॉं 2003 से 2007 में इनकी संख्या 51 लाखसे 74 लाख बढी, महाराष्ट्र में 28 से 31 लाख, कर्नाटक 14 से 20 लाख. बंगाल 9 से 20 लाख, बिहार 13 से 20 लाख, और यूपी 16 लाख से 19 लाख हुई है।

     

इनकी तुलनामे विभिन्न राज्योमें देशी गायोंकी संख्या पांच गुना से लेकर 20 गुना तक अधिक है। फिर भी पूरा सरकारी कार्यक्रम मानो या तो संकरित गायों के लिये है या मांस के निर्यात के लिये।
     
अब एक दूसरी नीति देखते है। हमारे देश मे  हजारों वर्षों से परंपरा चली आ रही है कि गॉंव का सबसे सशक्त बैल शिवजी के मंदिरमे छोड दिया जाता है। फिर उसके मलिक का हक और जिम्मेदारी दोनो समाप्त। उस बैल के खाने का प्रबंध पूरा गांव मिलकर करता है। उसपर कोई रोक-टोक, कोई प्रतिबंध नही होता। न उसपर किसी तरह का कोई अंकुश लगाया जाता है। जब गायोंको चराने के लिये जंगल में ले जाते है तब अक्सर यह बैल भी उनके साथ जाता है और प्रायः सभी गायों का गर्भ इसी बैल से आता है - अर्थात गॉंव के सबसे सशक्त बैल से। प्रायः हर पांच वर्ष के बाद एक नया और युवा बैल शिवजी के नाम पर छोडा जाता है।
     
इस प्रकार गॉंव की रीत में ही यह व्यवस्था की गई थी एक सशक्त बैल के वीर्य से अगली संतानें पैदा हों ताकि वे भी सशक्त उपजें।
     
लेकिन जब सरकार ने विदेशी बैलों से संकर द्वारा वंश चलाने की योजना बनाई तो इन शिवजी के बैलों को खतरा”  या “न्यूसेंस की संज्ञा में डाला गया। यह बैल रहा तो गायकी कृत्रिम गर्भधारणा करवाने में किसान आलस करेगा। इसलिये सरकारी योजना बनी की गॉंव के बैलों को निर्वीर्य किया जये। इस प्रकार देश के सबसे अच्छे बैलों को निर्वीर्य करने की योजना बनी और खूब चली। फिर ऐसे बैलों का बोझ गॉंव क्यो सहे? सो वे भी जल्दी ही कसाईखने के रास्तेपर जाने लगे।
     
तो अब हालात यह है कि अपने देश के सशक्त, वीर्यवान बैलों को तो हम तेजीसे समाप्त करवा हैं और गयोंको तेजीसे कृत्रिम रेतन द्वारा संकरित करवाया जा रहा है। ये गायें अच्छे माहौल मे दूध तो अधिक देती है लेकिन सूखा पडने पर सबसे जल्दी कालवश हो जाती है।

      इसी सिलसिले में अन्य नीतियों की चर्चा आवश्यक है।
      जब शहरीकरण बढा तो शहरी लोगों के लिये दूध की समस्या बनी। पहले मुंबई जैसे मेगा सिटीज में भी जगह जगह गोशालाऐ हुआ करती थिं। फिर शहर में व्यापार बढा, जगह की कमी खलने लगी तो गोशाला को शहर से बाहर किया गया। अब शहर में सरकारी माध्यम से दूध वितरण की आवश्यकता पडी। चिलींग प्लांट में बडे पैमाने पर दूध लाकर उसे प्रोसेस कर बोतलों मे बंद कर बेचा जाने लगा। जैसे जैसे शहरोंकी मॉंग बढी, वैसे वैसे गांवों का सारा दूध कॅन्समे भरकर शहर आने लगा। गॉंव के दूध की हर बूंद भी शहर में लाई जाय तो भी कम ऐसी स्थिती हो गई। वर्ष बीतते गये तो सरकार से अलग सहकार व निजी क्षेत्र मे दूध कारखाने खुलने लगे। इन सबका परिणाम भी यही हुआ कि संकरीत गोवंश की आवश्यकता बढने लगी। व्यावहारिकता के देखते हुए यह व्यवस्था उचित थी लेकिन इसकी दो मुख्य समस्याएँ हैं।  जब तक यह दूध हमतक पहुँचता है, वह पांच छः दिन बासी हो चुका होता है और उसमे मिलावट भी हो जाती है जो अत्यंत हानीकारक है। आजकी तारीखमें इसका कोई समाधान नही है।

      गाय का दूध मनुष्य समाज के प्राणी पी जाये इसमे आश्चर्यकारक कुछ नही। हजारों वर्षोंसे गाय ही नही भैंस, बकरी, उंटनी, भेड आदि का दूध भी मनुष्य प्राणी उपयोग में ला रहा है । गाय का दूध प्रायः मॉं के दूध के समान होता है। जैसे मनुष्य प्राणी में गर्भ-प्रसव का काल नौ माह और नौ दिन का होता है, उसी प्रकार गाय का भी गर्भ-प्रसव काल नौ महीने और नौ दिनोंका होता है। कई तरह से गाय का दूध मनुष्य के अनुकुल भी है, और पोषक दवाई या अमृततुल्य है। लेकिन जब ऊँची पहाडियोंपर जाते है, या आदिवासी क्षेत्रौं मे जाते है तो वहॉं एक अलग संस्कृति दिखती है। वहॉं माना जाता है कि गायका दूध केवल बछडे और बछिया के पीने के लिये है और यदि मनुष्य गाय का दूध निकाल कर पिये तो यह पाप है क्यो कि यह बछडे का निवाला छिनने जैसा काम है।

      लेकिन सरकारमे प्रायः यह विचार नही किया जाता कि किसी जगह की संस्कृती क्या है और उसके पीछे क्या वैज्ञानिक कारण है। फिर ये सारी बातें बिना सोचे ही उस संस्कृति या परंपरा को अंधश्रद्धा घोषित कर उसे नष्ट करवाना, यह सोच भी हमारी सत्ता प्रणाली में ब्रिटिशों के जमाने से आई। सो महाराष्ट्र मे जो दूध नीति है, उसमें एक योजना ऐसी भी है जिसमे पहाडी और आदिवासी लोगों को यह समझाया जाता है कि गाय का दूध मनुष्य प्राणी के लिये है, इसलिये तुम बछडे के हक या पाप का विचार छोडो, गाय का दूध निकालो, उसे शहरमे बेचो, पैसा कमाओ क्योंकि पैसा ही सर्वोपरि है और बछडे के हक से अधिक श्रेष्ठ पैसा है
     
मेरी सरकारी ड्यूटी के कारण ऐसे कई इलाके में मेरी टूर रही है और मैनें एक बात गौर की कि इन लोगोंके लिये दूधकी अपेक्षा खेत के बैल का महत्व अधिक है। पहडियों में छोटे छोटे टुकडों मे इनकी जमीन बँटी होती है। जंगलो के अंदरूनी भाग में भी रहने की जगह से दुर्गम राह चलकर खेतों मे पहुंचना पडता है। इतना चलकर या पहाड चढकर फिर बैल खेतो मे काम करते है, तब इनके सालभर का अनाज जुट पाता है। बैल जितना कष्ट कर पायेगा, और जितनी लम्बी उसकी आयु होगी उतनी कम ही है। ऐसी संस्कृति मे बैल आयुष्यमान हो और धष्टपुष्ट रहे, लम्बी उमर तक खेतमे कष्ट का काम कर पाये, इसके लिये जरूरी है कि उसे बाल्यावस्थामे अच्छा पोषण मिले। इसी लिये गायका दूध पूरा उसे ही पीने के लिये दिया जाता है।
     
लेकिन जब सरकार कहती है कि हमारे किसान ट्रॅक्टर से ही खेत की जोताई करें, तब उसके अफसर भी भूल जाते है कि पहाडी इलाकों में जहॉं सीढी-दर-सीढी कम चौडी खेत की पट्टियॉं होती है, वहॉं कोई ट्रॅक्टर चल नही सकता बल्की बैल ही काम आता है। इसके अलावा कई बार इनके बैल गाडीमें जोतने के काम आते है। ऐसे बैल तभी समुचित काम कर पायेंगे जब उन्हे बचपन में सही पोषण अर्थात गाय का पूरा दूध मिला हो। अतः यदि उनकी संस्कृति मे कही रच बस गया हो कि गाय का दूध निकालकर पीना पाप है और बछडे का निवाला छिनने जैसा है, तो इस प्रथा का आदर करते हुए हमारी नीतियॉं बनानी चहिये। अपने प्रसारसे हम उन्हे दूध बेचना तो सिखा देंगे लेकिन उनके जमीन की उपज खतरे में आयेगी।
     
महाराष्ट प्रदेश में 5 विशुद्ध नस्लों की गायें पाई जाती है । इन नस्लों के नाम है खिल्लार, लाल कंधार, देवनी, डांगी और गौळव । इनकी प्रजा और संख्या लगातार घटते जा रहे है। लेकिन इन्हे बचाने की या इनके वंशवृद्धि की कोई नीति हमारे पास नही है। फलसवरूप कुछ ही वर्षों में ये वंश नष्ट होनेकी संभावना है। आज जब केरल मे धान की दस से अधिक प्रजातियॉं लुप्त हो गई तब कृषि शास्त्रविदों में हाय हाय मच गई कि काश हमने उन्हें बचाया होता। इसी प्रकार इन गो-प्रजातियों के बारे में देर से सचेत होने का कोई फायदा नही। चेतना आज ही आनी चहिये।
     
महाराष्ट्र में कृत्रिम रेतन कार्यक्रम के अंतर्गत विदेशी बैलो का वीर्य जमा करने वाली पांच लॅबोरेटरीज हैं। अति प्रशिक्षित स्टाफ और इस काम के अभ्यस्त अधिकारी गण हैं। मैंने एक मीटींग में उनसे पूछा कि किसी बैल को इस काम के लिये चुनते समय आप उसकी कौनसी खूबियॉं देखते है? तब सिद्धान्त के तौर पर ये खूबियॉं गिनाई गई --
1.       क्या उस बैलका पूर्व इतिहास बताता है कि उसके वीर्य से अधिकतर बाछिया पैदा होती है? यदि अधिकतर नर अर्थात बछडे पैद होते है तो उस बैल को स्कीम से हटा दिया जाता है।
2.       क्या उसके वीर्य से उत्पन्न द्वितीय वंशज दीर्घायु होते है?
3.       क्या उसके वीर्य से उत्पन्न गायें अधिक दूध देती है?

मैने चर्चा मे पूछा कि उनके संतानों की सूखे का सामना करने की क्षमता कैसी होती है, तो पता चला कि सूखा या अकाल पडनेपर सबसे पहला असर इनके दूध पर पडता है। दूध तेजी से घटता है। दूसरा, ये कोई गायें अकाल में टिक नही पातीं और उनकी मृत्यु जल्दी हो जाती है। मेरे विचार से कमसे कम महाराष्ट्र की पशु नीति मे तो अकाल का विचार अवश्य होना चहिये।
साथ ही कृत्रिम रेतन के बाद डेटा की कलेक्शन और स्टडी होनी चाहिये। वर्ष 1960 और 1970 के दशक में जब ये लॅबोरेटरीज बनीं तब एक सूत्रबद्ध व्यवस्था थी कि कैसे गांव-गांव से इनकी प्रजाओं की जानकारी हर महीने इन केंद्रोंतक पहुँचाई जायेंगी और उनके आधार पर वैज्ञानिक तरीके से स्टडी कर निष्कर्ष निकले जायेंगे। लेकिन आज महाराष्ट्र में इस प्रकार का कोई रिसर्च या स्टडी नही होती। इस प्रकार महाराष्ट्र में पशु वैद्य तो हो गये है लेकिन रिसर्चर नही बचे।
  
पिछले दो वर्षों मे महाराष्ट्र मे लगातार अकाल पडा है और गोवंश की बात करें तो सर्वाधिक हानी संकरित प्रजातियों की हुई है। ऐसे अकाल का सामना करने के लिये हमारी विशुद्ध नस्ल की गायें और उनसे उत्पन्न प्रजा अधिक सक्षम है। तो फिर नीतियों में भी हमें उनका विचार करना होगा। पशु गणना के समय जब गायों की जानकारी नस्ल के आधार पर ली जाती है तो करीब 70 प्रतिशत गायों की नस्ल को नॉन-डिस्क्रिप्ट करार दिया जाता है। अर्थात उनकी पिछली चार-छः पीढियों में अलग-अलग नस्ल का खून है ऐसी नॉन-डिस्क्रिप्ट गायें दूध तो कम देती है लेकिन उनकी खूबी यह है कि अकाल में भी टिके रहने की उनकी क्षमता अत्यधिक होती है। ऐसे मे यदि उनका संकरण विदेशी नस्लो के साथ किया गया तो दूध तो बढ जाता है पर अकाल और रोगों से लडने की क्षमता अत्यल्प हो जाती है। इसके विपरीत यदि इन नॉन-डिस्क्रिप्ट गायों को विशुद्ध भारतीय प्रजातियों के साथ संकरित किया गया तो उनकी सुधृढता टिकी रहती है और दूध भी बढ जाता है।
  
मेरे बाल्याकाल मे मैने दरभंगा के महाराजा की चलवाई हुई विशाल गोशाला देखी है। उसके एक बडे अधिकारी मेरे पिता के पास अक्सर आया करते थे। और पिताजी से विभिन्न नस्लो के संकरण आदि विषयों पर भी बाते करते थे - संदर्भ-ग्रंथो की भी चर्चा करते थे। उनके प्रयोगों से वे बताते थे कि नॉन-डिस्क्रिप्ट गायों को विशुद्ध देशी नस्ल के बैल के साथ संकरित करने पर जो द्वितीय वंशजा गाय पैदा होगी उसे उसे फिर उसी विशुद्ध प्रजाति के बैल के साथ संकरित किया जाता है। उन दिनों कृत्रिम रेतन या विशुद्ध प्रजाति के बैल का वीर्य निकाल कर रखने जैसी बातें नही होती थी। लेकिन गायों को अलग अलग रखकर  उनके दूसरे, तीसरे, चौथे वंश तक उनका एक ही विशुद्ध प्रजाति के बैल से संमीलन करवाया जाता था। यहॉं इस अन्तर को समझना पडेगा कि नॉन-डिस्क्रिप्ट गायोंका विदेश संकर तो तीसरी पीढीसे नही बढ पाता लेकिन देशी विशुद्ध नस्ल के साथ सात आठ या उससे अधिक पीढीयों तक किया जा सकता है। इस प्रकार सातवे वंशकी प्रजा विशुद्ध’ की श्रेणी मे आ जाती है। ऐसी ‘विशुद्ध’ प्रजाति की प्रजा बढाने का काम तब दरभंगा महाराज की गोशाला मे हुआ करता था। लेकिन आधुनिकता, देशकी  बदलती हुई सोच आदि के प्रवाह मे वह ज्ञान, कार्योन्मुखता और लगन कहीं पीछे छूट गये है । इसलिये ऐसे प्रश्नोपर कोई सरकारी नीति नही है।

इसी कारण मेरा मानना है कि देश कि गोवंश-नीति केवल कसाईखानोंके या संकरित गायोंके इर्द-गिर्द न हो, बल्कि देशी विशुद्ध नस्ले बढाना और 1 स 3 साल के बछडोंकी कटाई रोकने जैसी महत्वपूर्ण योजना भी होनी चाहिये। मिल्क डेअरियों में मिलावटकी समस्या का भी जल्दी ही हल निकालना होगा। मेरे IAS  के  कार्यकल मे मुझे महाराष्ट्र सरकार में पशुसंवर्द्धन विभाग की प्रिंसिपल सेक्रेटरी के पद पर एक वर्ष तक कार्य करने का मौका मिला। उस दौरान जो समस्याएँ देखी उन्हींका यह लेखा जोखा है।
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Laxmi Narain Modi Tue, May 28, 2013 at 7:49 AM
To: Leena Mehendale

excuse me for sending my comments in English as I do not know hindi typing will try to learn . congratulations for your analysis for reduction of native breedsof cattle . latest findings by Newzeland  & our own NBAGR Govt of India's instt confirm that milk of our native cows is good for health & mental faculties whereas Jersy & HF milk cause many severe diseases I will send their brochure on line & if u need hard copy hence xbreeding is nothing but a serious consipiracy to spoil our health . Bulls are used for service & bullocks are used for Draft Power as such we should not confuse readers . Use of Tractors & agrochemicals have degraded our soils to critical stage , water bodies polluted with high toxics leading to diseases like Criplling of children & CANCER , WHERE our policy makers are leading the country to ? regards
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Indian Express Press Report 15.4.2013:
After an international study highlighted the link between a protein in the milk produced by western breed of cows and a range of serious illnesses, Indian Council of Medical Research is now conducting a systematic study on this aspect.
G C Pati, Union secretary of department of animal husbandry, dairying and fisheries, told reporters during the plenary session of National Workshop on ‘Capacity Building for Skill development and Self-Employment in Livestock Poultry and Fisheries sector’ that the Indian government is giving priority on developing indigenous cattle breed and a systematic research is being conducted by ICMR following reports that health problems are linked to a tiny protein fragment that is formed when one digests A1 beta-casein, a milk protein produced by many cows in the United States and western nations.
Milk that contains A1 beta-casein is commonly known as A1 milk; milk that does not is called A2. Interestingly, the milk from Indian cow is A2.

The book ‘Devil in the Milk Illness, Health, and the Politics of A1 and A2 Milk’ by Keith Woodford examines the link between a protein in the milk we drink and a range of serious illnesses, including heart disease, Type 1 diabetes, autism, and schizophrenia. It brings together the evidence published in more than 100 scientific papers.
Comments(1)
It is a very wise move by Govt of India to at last take note of this matter after it was first brought to the attention of Indian authorities in 2008. Entire world dairy authorities have taken cognizance of this research first made public by NewZealand researchers in 2006. Even USA where the most popular dairy cow breeds Holsteine and Frezian produceA1 type milk has embarked on genetic research to bring about genetic changes in their A1 milk producing Cows to start providing A2 milk. Indian Govt had for the last fifty years allowed cross breeding of A2 milk producing Indian breed with A1 milk producing Holsteine Frezian breeds. This is in direct contravention of the article 48 of the directive principles of Constitution of India , that specifically directs that breeds of Indian cows will be preserved. It is hoped that Shri G.C. Pati Secy. Govt of India will take note & issue orders to stop Xbreeding Indian cows with exotic foreign breeds in contravention of our Constitution.
Posted by SUBODH KUMAR

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 गोवंश ह्रास कि सरकारी नीती, blog by you was received by me a short while ago. I am  thrilled by its content. The issues raised by you are very valid. 
I manage a Goshala in Delhi with a herd strength of about 700. We have been following the system of forward breeding- backward breeding as referred by you , to improve the milk yield and productivity of Indian breeds of cows. I have been raising many issues with our Govt. about its  Veterinary practices .  I am taking the opportunity to share some of my concerns. But  I find that no veterinary experts have ever answered  the issues raised and  there is no change in Govt. Veterinary policies. 
You having been an insider, I wonder if you will kindly suggest as to how these  issues  can be raised at a suitable forum in such a manner that Govt Veterinary experts see the light of the day.
Cow should not be considered an issue connected with the sentiments of a particular  religious community.  Cow is the basic mode for sustainability of economic and social life.
In addition to managing cows in Goshala and writing about it, I   study of Vedas to find interpretation to modern life situations. An example I am also sending a few of my Vedic interpretations.

I will be grateful to receive your comments and also seek your permission to put you on my mailing list for future communications about Cows and Vedas.
With best regards, 

Subodh Kumar,
C-61 Ramprasth,
Ghaziabad-201011
Mobile-9810612898
Maharshi Dayanand Gosamwardhan Kendra , Delhi-96
Science is belief in the ignorance of Experts- Richard Feynmann 
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Good Governance AV 20.139 B.docxGood Governance AV 20.139 B.docx
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Dear Leena ji,
I am extremely obliged by your call this morning.
I am taking the opportunity to share with you some of my  writings on Vedic topics.
I look forward to great inspirations and your suggestions.
With warm regards,
Subodh Kumar,
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Dear Friends,

Greetings from the Art of Living!

Please find attached the Landmark Gauchar Bhumi Supreme Court Judgement along with all other related Orders / Judgement.

Warm regards

Gautam Vig

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मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

संभव है भारत में देसी गाय की नस्ल भी खत्म हो





भारत इस समय विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है, लेकिन हो सकता है आने वाले दस साल में यह हालत हो जाए कि हमें दूध का आयात करना पड़े. और संभव है तब भारत में देसी गाय की नस्ल भी खत्म हो जाए. जॉय मजूमदार की रिपोर्ट.
भारतीय साहित्य के कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कई रचनाओं में गोधूलि बेला का अलौकिक वर्णन है. उनमें बहुतेरी जगह गाय परिवार के एक आत्मीय सदस्य की तरह भी दिखती है. यह शायद इसलिए है कि ग्रामीण भारतीय परिवारों का यह सबसे प्यारा-दुलारा पशु शताब्दियों से हमारी धर्म-संस्कृति और अर्थव्यवस्था का अभिन्न हिस्सा रहा. लेकिन इस समय भारत में जिस तेजी से देसी गायों की संख्या घट रही है, एक अनुमान के मुताबिक उससे आने वाले सिर्फ दस साल में हमारे आस-पास भारतीय गाय की आम मौजूदगी खत्म होने का खतरा पैदा हो गया है. इस संकट का एक भयावह पहलू यह भी है कि तब हमारे पास ऐसी किसी विदेशी संकर नस्ल की गाय भी नहीं होगी जो उसका स्थान ले सके. नौबत यहां तक आ सकती है कि वर्तमान में सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक हमारे देश को दूध का आयात करना पड़े. लाखों लोगों के जीवन पर इसका कितना त्रासद असर होगा इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता.
पारंपरिक तौर पर भारत में गायों की विविध जातियां मौजूद हैं. एक ओर जहां सूखे दिनों में भी दूध देने वाली साहीवाल नस्ल की गाय है, वहीं तलवार जैसी सींगों वाली अमृत महल तथा कुत्ते से भी कम कद वाली वेचुर नस्ल की गाय भी यहां मिलती है. अलग-अलग किस्म की ये गायें देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही हैं. इनकी देखरेख पर जहां बहुत अधिक खर्च नहीं होता वहीं ये गरीब परिवारों को पोषण देती हैं. इस लिहाज से देश की अर्थव्यवस्था में गायों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है. इन दुधारू पशुओं में से 68 फीसदी छोटे और भूमिहीन किसानों के पास हैं, जो इनका दूध एक लाख गांवों में फैली सहकारी समितियों में बेचते हैं. इन समितियों के 1.1 करोड़ से ज्यादा सदस्य हैं. इस तरह देखा जाए तो देश की कृषि अर्थव्यवस्था में धान, गेहूं अथवा चीनी की तुलना में दूध अधिक महत्वपूर्ण उत्पाद के रूप में उभर कर सामने आता है. लेकिन पिछले पांच दशकों में इस क्षेत्र में सरकार की अदूरदर्शी नीतियों का नतीजा यह रहा है कि पोषण की कमी के चलते इन गायों से निकलने वाले दूध की मात्रा बेहद कम हो चुकी है. यह साबित करने के लिए किसी विशेष शोध की जरूरत नहीं है. देश में अभी भी जहां गायों को महज ढंग का और पर्याप्त चारा-भूसा दिया जा रहा है वहां उनकी दूध उत्पादन क्षमता अच्छी है. कम से कम इसी एक उपाय से देसी गायों का दूध उत्पादन बढ़ाया जा सकता है. इसका एक सबसे उपयुक्त उदाहरण ब्राजील में मिलता है जहां भारतीय नस्ल की गायें काफी दूध दे रही हैं. वर्ष 2011 में गिर नस्ल की किंबांडा काल गाय ने वर्ष 2010 का अपना ही रिकॉर्ड तोड़ते हुए साल भर में 10,230 लीटर दूध दिया था. यानी उसने हर रोज 56 लीटर से भी ज्यादा दूध दिया. जबकि इसके उलट हमारे यहां विडंबना रही कि सरकार ने इन गायों के कमजोर उत्पादन की वजह तलाशने के बजाय 60 के दशक से ही नई संकर नस्ल विकसित करने तथा बाहर से अच्छी नस्ल के बैल तथा उनका वीर्य आयात करने की नीति को वरीयता दे दी.
ब्राजील में भारत की गिर नस्ल की किंबांडा काल गाय ने वर्ष 2011 में हर रोज औसतन 56 लीटर से भी ज्यादा दूध देकर रिकॉर्ड कायम किया, लेकिन भारत में गिर गाय से यह उत्पादन क्षमता हम आज तक हासिल नहीं कर पाए हैं
आगे चलकर इसकी वजह से दो तरह का संकट पैदा हुआ. एक ओर जहां देसी गायें विलुप्ति की कगार पर पहुंचने लगीं तो वहीं दूसरी ओर नई संकर नस्ल की गायों का भारतीय परिस्थितियों में अनुकूलन नहीं हो पाया. सैद्धांतिक रूप से तो ये गायें बहुत अधिक दूध देने में सक्षम हैं लेकिन स्थानीय बीमारियों और मौसम की मार झेल रही ये गायें अपनी क्षमता के आसपास भी नहीं पहुंचा पाती. इन गायों को रखने के लिए ऊंची लागत वाली वातानुकूलित व्यवस्था बनानी होती है. इसके अलावा इनके खानपान और देखरेख पर भी सामान्य की तुलना में कई गुना खर्च होता है.
जाहिर-सी बात है कि एक ओर छोटे किसानों के पास इन विदेशी संकर नस्ल की गायों की लागत का बोझ उठा पाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं तो दूसरी ओर कम देखरेख की जरूरत वाली तथा हर तरह का मौसम झेल सकने वाली देसी गायों की स्थिति सरकारी उपेक्षा के चलते लगातार बद से बदतर होती जा रही है. नतीजतन छोटे किसानों के लिए पशुपालन का काम लगातार दूभर होता जा रहा है. लेकिन यह समस्या यहीं तक सीमित नहीं है. देसी गायों की संख्या में आ रही निरंतर कमी शहरी उपभोक्ताओं पर भी असर डालेगी.
औद्योगिक डेयरी उत्पादों के बढ़ते चलन के बीच अगले दस साल के दौरान देश में दूध की बढ़ती मांग की आपूर्ति के लिए उसका आयात करना पड़ सकता है. इतना ही नहीं, उत्कृष्ट पशुओं के विदेशी वीर्य से लेकर संकर नस्ल के पशुओं के चारे तक तमाम चीजों का आयात करना पड़ सकता है. चूंकि इन पर विदेशी कंपनियों का नियंत्रण है, इसलिए वे अपने हिसाब से इसकी कीमत तय करेंगे. एक आशंका यह भी है कि देसी गायों के दूध से इतर यह विदेशी दूध कहीं डायबिटीज तथा दिल की बीमारियों के मरीजों के लिए नुकसानदेह न साबित हो. विदेशी संकर नस्ल की गायों से होने वाले लाभ भी दीर्घकालिक नहीं हैं. इन गायों से ज्यादा मात्रा में दूध मिल सकता है लेकिन देसी गायों की तुलना में इनका दूध जल्दी सूख जाता है. विदेशी बैल भी देसी के मुकाबले कम हष्ट-पुष्ट होते हैं.
इससे एक अलग तरह का संकट खड़ा हो रहा है. संकर नस्ल की गायों को बेकार हो जाने पर इनके मालिक लाखों की संख्या में यूं ही भटकने के लिए छोड़ देते हैं क्योंकि एक बार दूध देना बंद करने के बाद वे इनकी खुराक, देखरेख और चिकित्सा आदि की लागत नहीं उठा पाते. जाहिर है इन अनुत्पादक पशुओं पर होने वाला खर्च देश के सीमित संसाधनों पर और बोझ बढ़ा देता है. पंजाब गौसेवा बोर्ड द्वारा हाल ही में कराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक राज्य के तकरीबन एक लाख आवारा पशुओं में विदेशी संकर पशुओं की तादाद 80 फीसदी के करीब है. इस बात से सचेत होने के बाद बोर्ड के अध्यक्ष कीमती भगत राज्य सरकार की विदेशी और संकर नस्ल के प्रति लगाव वाली नीति के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं.
विदेशी संकर नस्लों को प्रोत्साहन देने और उनके फायदों पर विरोधाभासी तथ्य मौजूद होने के बावजूद किसी सरकार ने अब तक हालात में सुधार लाने की कोशिश नहीं की. इसके उलट देसी गायों के बारे में जान-बूझकर तथ्यों को गलत ढंग से पेश किया गया. भारत में दूध उत्पादन के बारे में जो कुछ बुनियादी आंकड़े दिए जाते हैं वे भी काफी भ्रामक हैं. जैसे एक तथ्य है कि सन 1951 के बाद से देश में दूध का उत्पादन 1.7 करोड़ टन से बढ़कर 12.2 करोड़ टन तक पहुंच गया. यह आंकड़ा देखने में सकारात्मक नजर आता है लेकिन इसके एक और पहलू पर गौर करें तो सरकारों को चिंता करने की कई वाजिब वजहें मिलती हैं. दरअसल हमारे देश में 20 करोड़ दुधारू पशु हैं जो दुनिया में सबसे अधिक हैं. इस तरह देखा जाए तो हर पशु हर रोज महज 3.23 किलो दूध देता है. जबकि वैश्विक स्तर पर औसत उत्पादन 6.68 किलो है. अगले दस साल के दौरान देश में दूध की अनुमानित मांग के बढ़कर 18 करोड़ टन पहुंच जाने की उम्मीद है. राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड ने चेतावनी दी है कि अगर हम समय के साथ कदम नहीं मिला सकते तो हमें दूध आयात करना पड़ेगा, जिसका बोझ उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ेगा.
इस समय देश भर की राज्य सरकारें लगातार देसी गाय की जगह विदेशी संकर नस्ल की गायें ला रही हैं. पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल मोहाली में इजरायल के साथ मिलकर डेयरी फार्मिंग का एक उन्नत संस्थान स्थापित करने की योजना बना रहे हैं. इससे पहले राज्य सरकार ने एक अमेरिकी कंपनी से बैलों की अच्छी गुणवत्ता वाला वीर्य मंगाने की कवायद की थी. केरल में पशुपालन विभाग डेनमार्क से अच्छी नस्ल के पशु आयात करना चाहता है ताकि स्थानीय देसी गायों के साथ उनकी संकर नस्ल तैयार की जा सके. वहीं राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड भी अगले पांच साल के दौरान दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए 100 होल्स्टीन फ्रीजियन और 300 जर्सी बैल मंगाने की योजना बना रहा है.
सरसरी तौर पर देखने पर ये कोशिशें अच्छा विकल्प प्रतीत होती हैं. लेकिन हरियाणा में करनाल के निकट एक डेयरी फार्म चलाने वाले मझोले किसान राजबीर सिंह शायद ही ऐसा सोचते हों. वर्ष 2009 में होल्स्टीन फ्रीजियन सांड से संकर की गई उनकी दो गायें गंगा और यमुना करनाल में राष्ट्रीय डेयरी शोध संस्थान में प्रदर्शित की गई थीं. क्रमशः 51.5 और 59.5 किलो रोजाना के हिसाब से वे देश की सबसे दुधारू गायें थीं. लेकिन पिछले साल यमुना की अचानक मौत हो गई. इसके कारण अब तक अज्ञात हैं. हालांकि गंगा अभी तक पर्याप्त दूध दे रही है. इस इलाके में संकर गायों से रोजाना 30 से 35 लीटर दूध प्राप्त करना आम बात है. पिछले दशकों के दौरान सरकारों का लगातार यह मानना रहा है कि आयातित विदेशी नस्ल की गाय या संकर गाय के जरिए 30 किलो या इससे ज्यादा दूध हासिल किया जा सकता है. हालांकि व्यापक परिदृश्य में देखें तो जमीनी हकीकत कुछ और ही इशारा करती है. करनाल की गंगा जैसी दुर्लभ कहानियां छोड़ दें तो देश में संकर गायों से दूध उत्पादन औसतन 6.62 लीटर प्रतिदिन से ज्यादा नहीं है.
भारत के सरकारी संस्थानों के पास आज भी ऐसे आंकड़े नहीं हैं जिनके आधार पर विदेशी संकर नस्ल और देसी गायों  के रखरखाव की तुलना की जा सके
अब जरा इसकी तुलना इजरायल से करें. महज चार दशक में दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में संकट से जूझ रहे इजरायल ने अपनी खुद की फ्रीजियन संकर नस्ल तैयार की है जो लगातार रोजाना 26 किलो दूध दे रही है. जबकि पांच दशक के महंगे प्रयासों के बाद भारत में विदेशी संकर नस्ल की गायें बमुश्किल इसका चौथाई हिस्सा ही उत्पन्न कर पा रही हैं. इसके बावजूद सरकार इसी नीति पर आगे बढ़ने पर जोर दे रही है. उसका कहना है कि संकर गायें 6.62 किलो भले ही दे रही हों लेकिन यह देसी गायों के 2.2 किलो के औसत से तो तीन गुना है. इसमें रंचमात्र भी सच्चाई होती तो गनीमत थी लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है. देश की अदूरदर्शी दूध नीति की एक बड़ी कमी है विदेशी संकर नस्लों के फायदों को बढ़ा-चढ़ाकर आंकना और इसके ऊपर देसी गायों की क्षमताओं को कम करके देखना.
देसी नस्ल की गायें भारत की पारिस्थितिकी विरासत का महत्वपूर्ण और बुनियादी हिस्सा रही हैं. शताब्दियों पहले से प्रायद्वीप के अलग-अलग हिस्सों में गाय की अलग-अलग नस्लें विकसित की जा रही हैं. हर क्षेत्र की भौगोलिक विशेषताओं के आधार पर गायों की दूध देने की क्षमता, ढुलाई की क्षमता, उनके चारे-भूसे की जरूरत, स्थानीय मौसम में अनुकूलन, रोग प्रतिरोधक क्षमता इत्यादि के हिसाब से ये नस्लें विकसित की गई थीं. खास विशेषताओं के बैलों और ऐसी ही गायों के संसर्ग से इन विशिष्ट क्षेत्रों में नस्लों की शुद्धता का काफी ध्यान रखा जाता था.
लेकिन कालांतर में नस्लों की शुद्धता बनाए रखने की यह सामुदायिक सतर्कता खत्म हो गई. पशुधन बढ़ाने के लिए एक ही नस्ल और अलग-अलग नस्लों के उन गाय-बैलों का संसर्ग कराया गया जो श्रेष्ठ नहीं थे. इस नतीजा यह रहा कि जेनेटिकली कमजोर गुणों वाले पशु बहुतायत में हो गए. आज भारत में पाए जाने वाले गाय-बैल इसका अस्सी फीसदी हिस्सा हैं. पिछले 65 साल में किसी भी सरकार ने संकर नस्ल विकसित करने की उस सामुदायिक कुशलता को बचाने का काम नहीं किया.
यह परिस्थिति भयावह जरूर है लेकिन फिर भी देसी गाय के बारे में यह पूरी तस्वीर नहीं दिखाती. भारत में अभी 37 देसी नस्लें हैं. इनमें से पांच – साहीवाल, गिर, लाल सिंधी, थारपारकर और राठी को उनकी भरपूर दूध देने की क्षमता की वजह से जाना जाता है. इसके अलावा कांकरेज, ओंगेले और हरियाणा नस्ल के गाय-बैल, जो दोहरी नस्ल वाले हैं, दुधारू होने के साथ-साथ ढुलाई आदि के काम में भी उपयुक्त रहते हैं. बाकी शुद्ध रूप से दुधारू पशु की श्रेणी में शामिल हैं.
एक विडंबना यह है कि आधिकारिक आंकड़े में देसी गाय की दूध उत्पादन क्षमता 2.2 किग्रा प्रतिदिन है. लेकिन इस आंकड़े में पास सबसे दुधारू गायों के साथ दोहरी नस्ल और डेयरी से बाहर घरों में पालतू गायों को भी शामिल किया गया है. इससे देश की सबसे उत्तम नस्ल वाली गायों जैसे गिर और राठी की दूध उत्पादन क्षमता अपने आप ही कम दिखने लगती है. यह एक तरह से विदेशी नस्लों की श्रेष्ठता साबित करने की कोशिश है.
केंद्रीय कृषि मंत्रालय में पशुपालन विभाग के एक अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, 'सालों से चल रहे इस गड़बड़झाले की वजह से देसी गायों की विदेशी नस्ल के सामने लगातार उपेक्षा की गई. और अब खालिस नस्ल की देसी गायें दुर्लभ हो गई हैं, इसलिए डेयरी मालिक आसानी से विदेशी नस्ल की तरफ आकर्षित हो जाते हैं. पर ये गाएं शुरुआत में तो ठीक-ठाक दूध देती हैं लेकिन जल्दी ही इनकी क्षमता घट जाती है.'
मुंबई में एक सरकारी पशुचिकित्सालय के वरिष्ठ डॉक्टर अफसोस जताते हुए इस बात से सहमति जताते हैं, 'पहले हम बिना ये ध्यान दिए कि उन्हें किन परिस्थितियों में रखा है अपनी गायों के बारे में कहते हें कि वे कम दूध देती हैं. फिर उनके बदले विदेशी नस्ल की गायें ले आते हैं जिनके लिए वे परिस्थितियां और मुश्किल हैं. इस बीच में हमारी देसी नस्ल की गायें विदेशों में दूध देने के नए रिकॉर्ड कायम कर लेती हैं.'
डॉक्टर भारत की गिर गाय की बात कर रहे हैं जिसने ब्राजील में दूध उत्पादन में चमत्कारिक प्रदर्शन किया है. यह गाय उचित माहौल में देश में भी कमाल कर रही है. उदाहरण के लिए, गुजरात के जासदान में सत्यजीत खाचड़ के गिर फार्म को ही लें तो हमें पता चलता है कि यहां उनकी एक गाय प्रतिदिन अधिकतम 30 किलो के हिसाब से दूध देती है. और औसतन हर गाय प्रतिदिन 18 – 20 किलो दूध दे देती है. सत्यजीत अपन­े फार्म से ब्राजील को सांड भी निर्यात करते हैं. ऐसा नहीं है कि यह फार्म भारत में अपवाद हो. सरकार की केंद्रीय पशु पंजीयन योजना के तहत हर साल जमा होने वाले आंकड़े बताते हैं कि गिर गायों की दूध उत्पादन क्षमता 10-14 किलो प्रतिदिन है. राजस्थान में उर्मुल ट्रस्ट गंगानगर और बीकानेर जिलों के दस-दस गांवों में देसी नस्ल की राठी गाय के संरक्षण और प्रोत्साहन में लगा हुआ है. इन गायों का दैनिक दूध उत्पादन 8-10 किलो है. यहां सबसे अच्छी राठी गाय प्रतिदिन 25 किलो तक दूध दे देती है. इसमें कोई संदेह नहीं कि इन देसी गायों की नस्ल का उनके फायदे मसलन उनके रखरखाव में कम खर्च, दूध उत्पादन क्षमता और मौसम के हिसाब से ढल जाने की विशेषता को ध्यान में रखकर विकास किया जाता तो आज देश इस क्षेत्र में काफी बेहतर हालत में होता. लेकिन सबसे हैरानी की बात है कि बीते पांच दशक में विदेशी नस्ल के बैलों का वीर्य और विदेशी संकर नस्ल की गायें आयात करने के बाद भी संस्थानों के पास ऐसे तुलनात्मक आंकड़े नहीं हैं जिनके आधार पर विदेशी बनाम देसी गायों के रखरखाव में खर्च का अनुमान लगाया जा सके. अब जाकर पिछले साल केंद्र सरकार के पशुपालन विभाग ने एनडीआरआई (राष्ट्रीय डेरी शोध संस्थान ) में दो साल की एक परियोजना शुरू की है. इसमें दूध उत्पादन की लागत तय करने की प्रविधियों पर शोध किया जाएगा.
संकर नस्ल की विदेशी गाय अपने पूरे जीवनकाल में 18,000 किलो तक दूध देती है जबकि देसी गाय 25-30,000 किलो तक दूध दे देती है
यह जरूरी कदम सालों पहले उठाया जाना चाहिए था. यदि ऐसा होता तो काफी पहले ही हमें देसी गायों की उपेक्षा करके विदेशी गायों को प्रोत्साहन देने के खतरनाक नतीजे देखने को मिल जाते. लेकिन यह अब हो रहा है. उत्तर प्रदेश के गौतम बुद्ध नगर जिले में एक छोटी-सी डेयरी चलाने वाली अम्मो की विदेशी नस्ल वाली दो गायों की हाल ही में मौत हो गई. इनमें हर एक की कीमत 70,000 रुपये थी. इन्हें खुरपका-मुंहपका बीमारी हो गई थी. अम्मो ने इनके इलाज पर 5 हजार रुपये भी खर्च किए लेकिन वे इन्हें बचा नहीं पाईं. अम्मो के पड़ोसी शीशपाल ने भी एक 'अमेरिकी गाय' 7 हजार रुपये में खरीदी है. वे बताते हैं, ' ये अभी दूध नहीं देती, इसलिए पहले वाले मालिक ने इतने कम में बेच दिया. पर मुझे लगता है देसी बैलों से कुछ चमत्कार हो सकता है. '
अम्मो और शीशपाल की कहानियों से यह तो साफ हो ही जाता है कि विदेशी नस्ल की गायों की कीमत अधिक है और उनका रखरखाव कहीं महंगा है साथ ही भारतीय मौसम के हिसाब से उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कमजोर है. लेकिन यह पूरी तस्वीर का एक छोटा-सा हिस्सा भर है. यदि उचित परिस्थितियां मिलें तो संकर नस्ल की गाय प्रतिदिन अधिकतम 30 किलो तक दूध दे सकती है. लेकिन भारत में उनका औसत उत्पादन 6.63 किलो है. जाहिर है इनमें से ज्यादातर गायें उन किसानों के पास हैं जो उनकी महंगी देखरेख नहीं कर सकते. ऐसे में अच्छी नस्ल की देसी गाय जो प्रतिदिन 8-10 किलो की औसत से दूध देती है, फायदेमंद विकल्प है. यहां एक बात पर और ध्यान देना जरूरी है. विदेशी नस्ल की गाय का एक साल का लेक्टेशन (बछड़ा जनने के बाद कुल दूध उत्पादन) 4,500 किलो होता है जबकि देसी गाय के लिए यह बमुश्किल 2,500 किलो हो पाता है. पर इसका दूसरा पक्ष है कि विदेशी नस्ल की गाय अपने जीवनकाल में मुश्किल से चार बार ही लेक्टेट हो सकती है जबकि देसी गाय 10-12 बार. अब हिसाब लगाएं तो विदेशी गाय अपने पूरी जीवनकाल में 18,000 किलो दूध दे सकती है जबकि देसी गाय इससे कहीं ज्यादा यानी  25-30,000 किलो दूध देती है.
गाय की विचूर नस्ल को दोबारा विकसित करने वाले और केरल कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके प्रोफेसर सोसम्मा आयपे सरकारी नीतियों पर कहते हैं कि सरकार इस हद तक लापरवाह है कि नस्ल के हिसाब से भारत में कभी गायों की गणना ही नहीं की गई. आइपे द्वारा विकसित विचूर नस्ल की गाय को 'जीरो मेंटेनेंस' वाली गाय कहा जाता है. यह दुनिया में सबसे अधिक दूध देने वाला सबसे कम ऊंचाई का पालतू पशु है. मुख्य देसी नस्लों के धीरे-धीरे विलुप्त होने के बीच अभी तक कोई विदेशी नस्ल इनकी बराबरी नहीं कर पाई है. एनडीआरआई के पास आज भी विदेशी नस्लों जैसे करण फ्राइस या करण स्विस के भारत में दूध उत्पादन के आंकड़े नहीं हैं. इसके अलावा 1965 में विकसित की गई सुनंदिनी, फ्राइसियन-साहीवाल या सिंधी जरसी के प्रदर्शन पर भी संस्थान की चुप्पी दिलचस्प है. डॉ आइपे कहते हैं, 'सीधे-सीधे कहें तो संकर नस्लें भारत में सफल नहीं हैं. अभी तक कोई भी विदेशी नस्ल की गाय स्थायी नहीं हो पाई है.  जब तक हम आयातित बैलों पर निर्भर रहेंगे तब तक इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती.'
यदि शुरुआत में ही ध्यान दिया जाता तो स्थितियां इतनी खराब नहीं होतीं. जब 1965 में एक विशेषज्ञ समूह को पशु प्रजनन नीति बनाने के लिए कहा गया था तो उसने वैज्ञानिक रूप से मजबूत एक बहुआयामी नीति सुझाई थी. विशेषज्ञों का कहना था कि सबको एक लट्ठ से हांकने वाली नीति से बचते हुए अलग-अलग इलाकों में जो सबसे अच्छी नस्ल की गायें हैं, पहले उनका प्रजनन करवाया जाए. फिर उनसे विकसित उन्नत नस्ल का इस्तेमाल करके बाकी बची दूसरी कम गुणवत्ता वाली नस्लों को सुधारा जाए. इसके अलावा इस समूह का सुझाव था कि आयातित वीर्य का इस्तेमाल करके साधारण नस्ल वाली गायों को उन्नत नस्ल में बदलने का काम सिर्फ शहरी इलाकों के पास किया जाए जहां डेयरी मालिक उन्नत नस्ल की देखभाल का खर्च उठाने में सक्षम हों. ये विशेषज्ञ देसी दुधारू नस्ल की गायों में विदेशी वीर्य के इस्तेमाल से प्रजनन शुरू करने के सख्त खिलाफ थे. मवेशी पालकों को भी इस पर एतराज था. वर्गीस कुरियन की अगुवाई में जब नेशनल डेरी डेवलपमेंट बोर्ड शुरू हुआ तो गुजरात में गिर नस्ल की गायें रखने वाले जो किसान थे उन्होंने कई साल तक विदेशी नस्ल का विरोध किया. उस समय का एक किस्सा है कि जिस दिन कुरियन की बेटी की शादी थी उस दिन स्थानीय किसानों का एक झुंड उनके घर कुछ विदेशी नस्ल की गायें लेकर पहुंच गया था. सरकारी नीति के विरोधी ये किसान चाहते थे कि कुरियन ये गायें अपनी बेटी के दहेज में दें. हालांकि उन जैसों की चली नहीं. कृत्रिम गर्भाधान के प्रचलन में आते ही विदेशी नस्ल की बाढ़-सी आ गई.
विदेशी नस्ल की मदद से पैदा की गई संकर नस्ल को एक स्थानीय प्रजाति की तुलना में चार गुना ज्यादा पानी की जरूरत होती है
भारत में होने वाली दूसरी चीजों की तरह गहराता दुग्ध संकट भी बड़ी योजनागत चूक का नतीजा है. उदाहरण के लिए, 2002-05 के बीच राजकोट जिले का सरकारी रिकॉर्ड बताता है कि बिना सोचे-विचारे काम करने के रवैये के चलते बढ़िया दूध देने वाली गिर नस्ल की गायें अपने ही मूल इलाके में विदेशी संकर नस्ल की गायों से पीछे छूट गई हैं. इन तीन साल के दौरान कृत्रिम गर्भाधान के लिए गिर नस्ल के 62,095 नमूने तैयार किए गए. विदेशी और संकर नस्ल की गायों के लिए यह आंकड़ा 1,63,435 था. यानी दोगुने से भी ज्यादा.
शुरुआत में ही खतरे की बहुत-सी चेतावनियां दिख गई थीं. लेकिन दुर्भाग्य से ज्यादातर ने उन्हें अनदेखा कर दिया. जैसे 1980 के दशक में इजरायल से होल्सटीन फ्रेजियन नामक नस्ल की गायों का एक झुंड खरीदा गया जो एक चक्र (करीब 300 दिन की अवधि) में 8,000 किलो दूध देती थीं. लेकिन बेंगलुरू आते ही गाय ने खाना बंद कर दिया. काफी कोशिशों के बाद भी उसने भारतीय चारा नहीं खाया नतीजतन उसका चारा भी इसराइल से आयात करना पड़ा. आखिरकार जब यह गाय दूध देने लगी तो इसका आंकड़ा 2,200 किलोग्राम प्रति चक्र पर सिमट गया. लगभग इसी समय डेनमार्क से उड़ीसा के कोरापुट लाई गई जर्सी गायों की कहानी भी कुछ ऐसी ही रही.
'फिर भी पश्चिम में ट्रेनिंग पाए हमारे नीति निर्माताओं का यूरोपीय नस्लों के प्रति प्यार जारी रहा', ऑपरेशन फ्लड टीम का हिस्सा रहे एक रिटायर्ड नौकरशाह बताते हैं. वे आगे कहते हैं, 'अधिकारी इसलिए खुश रहते थे क्योंकि पशु लाने की आड़ में उन्हें कई बार विदेश प्रवास का मौका मिल जाता था. हम इजरायल की सफलता यहां दोहराना चाहते थे लेकिन हम उस मेहनत और सावधानी से बचना चाहते थे जो इजरायल ने अपनाई. भारत एक विशाल देश है. बेहतर होता कि हम पहले कोई एक जिला लेते और वहां प्रयोग करके उसके परिणाम देखते. लेकिन हमने इतनी जहमत उठाने की जरूरत नहीं समझी.'
इस लापरवाही की देश को बड़ी कीमत चुकानी होगी. दो प्रजातियों के बीच संसर्ग की प्रक्रिया के दौरान बहुत सावधानी और कड़ी निगरानी की व्यवस्था ही चाहिए. इजरायल में अलग-अलग नस्लों और उनके बीच संसर्ग के पैटर्न का रिकॉर्ड रखा जाता है. लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ है. इसलिए बेतरतीब तरीके और विदेशी मदद से पैदा की गई संकर नस्ल की पहली पीढ़ी ने तो उत्साहजनक नतीजे दिखाए लेकिन अब इसके बाद प्रक्रिया उल्टी दिशा में जाती दिखने लगी.
दो साल पहले आखिरकार एनडीडीबी ने अपना एक सॉफ्टवेयर विकसित किया. इनफॉरमेशन नेटवर्क फॉर एनिमल प्रोडक्टिविटी (इनैफ) नाम के इस सॉफ्टवेयर को वंशावली की जमीनी सूचनाओं और प्रजनन के लिए सही बैल के चयन के लिए बनाया गया है. अभी तक इसके तहत आठ राज्यों में 12 लाख पशुओं को पंजीकृत किया गया है. हालांकि यह भारत के कुल पशुधन का छोटा-सा ही हिस्सा है और जमीन पर यह पहल कितनी सफल हुई है, यह देखा जाना अभी बाकी है.
लेकिन अविवेक के साक्ष्य हर जगह बिखरे पड़े हैं. 11वीं पंचवर्षीय योजना में हर साल चार करोड़ वीर्य के डोज निर्मित करने का भारी-भरकम लक्ष्य निर्धारित किया गया. इसमें स्वदेशी का हिस्सा इस आंकड़े के पांचवें हिस्से से भी कम था. मात्रा पर ज्यादा जोर देने का वीर्य की जैविक और आनुवंशिक गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ा. विदेशी नमूनों पर इतना जोर देने का मतलब यह हुआ कि गर्भाधान की दर भी गिर गई. आंध्र प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश पर नाबार्ड की एक रिपोर्ट का 11वीं पंचवर्षीय योजना में जिक्र है. इसमें कहा गया है कि भारत के मवेशियों में गर्भधारण की दर 35 फीसदी है. अंतरराष्ट्रीय पैमाना 50 फीसदी का है.
होल्सटीन फ्रेजियन नस्ल के पशुओं से मिले वीर्य का पूरी दुनिया में प्रजनन के लिए बहुत ज्यादा इस्तेमाल हुआ है. लेकिन जिन पशुओं से ये नमूने लिए गए थे उनकी आबादी का दायरा 100 से भी कम है. इस कारण से इस नस्ल का जीन और कमजोर हुआ है. उष्णकटिबंधीय जलवायु गर्भाधान को और मुश्किल बनाती है और भ्रूणों की मौत की आशंका भी इससे बढ़ जाती है.
विदेशी नस्लों की गायों पर आंख बंदकर भरोसा करने का नतीजा यह भी हुआ कि देश में ढुलाई के लिए जरूरी देसी बैलों की संख्या काफी कम हो गई है
2011 में फॉर्मर्स फोरम में प्रकाशित एक लेख में डॉ. ओपी ढांडा और डॉ. केएमएल पाठक ने आगाह करने वाला एक लेख लिखा था. इसमें उन्होंने कहा था कि संकर नस्लों के लिए होने वाले संसर्ग की वजह से प्रजनन क्षमता संबंधी रोग बढ़े हैं. डॉ. ढांडा इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च में असिस्टेंट डायरेक्टर जनरल रह चुके हैं. डॉ. पाठक इसी संस्था में डिप्टी डायरेक्टर जनरल हैं. इसके अलावा और भी कारण हैं जिनके चलते संकर नस्लें भारत के लिए ठीक नहीं. पशु डॉक्टर और हैदराबाद में एक गैरसरकारी संस्था के निदेशक डॉ एस रामदास बताते हैं कि विदेशी नस्ल की मदद से पैदा की गई संकर नस्ल को एक स्थानीय प्रजाति की तुलना में चार गुना ज्यादा पानी की जरूरत होती है. वे कहते हैं, 'उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में संकर नस्लों की वजह से भूजल का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है.'
विलुप्ति का यह खतरा कोई हवा-हवाई बात नहीं है. विदेशी खून के लिए भारत की छटपटाहट के कई और नुकसान भी हुए हैं. अब प्रजनन के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले कुछ ही देसी बैल बचे हैं. अगर भविष्य में वातावरण में आया कोई बदलाव या फिर कोई महामारी पहले से ही लड़खड़ा रही भारत की संकर नस्लों को चपेट में ले ले तो सिर्फ देसी जीन ही हमें बचा सकते हैं. लेकिन अगले एक दशक में हमारी शुद्ध देसी नस्लों में से ज्यादातर पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है.
विदेशी खून की तरफ भागने की वजह से देसी दुधारू गायों का ही नुकसान नहीं हुआ है बल्कि बैलों की उन नस्लों पर भी असर पड़ा है जिन्हें वजन खींचने की अपनी क्षमता के कारण गाड़ी में जोता जाता है. नौवीं पंचवर्षीय परियोजना में पशुओं द्वारा होने वाली ढुलाई के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा गया था कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उनका बहुत महत्व है क्योंकि उनसे बड़ी तादाद में रोजगार सृजित होते हैं. लेकिन केरल जैसे कई राज्यों ने मजबूत मानी जाने वाली कई नस्लों को लगभग खत्म कर दिया है.
विदेशी नस्लों की मदद से तैयार संकर नस्ल के बैलों की स्थिति तो और भी बुरी है. भारत का मौसम उन्हें रास नहीं आता और वे ढुलाई के लिहाज से बेकार होते हैं. इसका मतलब यह है कि अगर उनका चयन प्रजनन के काम के लिए नहीं होता तो या तो उन्हें पैदा होने के बाद तुरंत मार दिया जाता है या भूखा मरने के लिए छोड़ दिया जाता है. जो इससे बच जाते हैं वे अवैध रूप से भारत या विदेश के बूचड़खानों में भेजे जाते हैं. भारत में गोमांस का कारोबार सालाना 6,000-10,000 करोड़ रु का है. कई लोग मानते हैं कि गोवध पर लगी अप्रभावी रोक का नतीजा एक तो यह हुआ है कि राजस्व को नुकसान हुआ है और दूसरा यह है कि अवैध रूप से बूचड़खानों में भेजे जाने के दौरान इन पशुओं की जो दुर्गति होती है वह बहुत ज्यादा हुई है. लेकिन रोक हटाने की तो बात करना ही पाप है. पवित्र गाय सुरक्षित रहनी चाहिए. कम से कम कागजों पर तो रहे ही.
जब वर्गीस कुरियन ने अमूल की शुरुआत की थी तो उनकी सोच यह नहीं थी कि दूध का औद्योगिक स्तर पर उत्पादन हो. उनका सपना यह था कि आम लोग दूध का उत्पादन करें और आत्मनिर्भर बनें. चेतावनी देते हुए डा आयपे कहते हैं, 'लेकिन अब ट्रेंड दुग्ध व्यापार के औद्योगीकरण की तरफ जा रहा है. इससे आखिरकार ग्रामीण इलाकों के गरीब लोग और छोटे खिलाड़ी इस क्षेत्र से बाहर हो जाएंगे.'
इसका मतलब यह है कि अगर उनका चयन प्रजनन के काम के लिए नहीं होता तो या तो उन्हें पैदा होने के बाद तुरंत मार दिया जाता है या भूखा मरने के लिए छोड़ दिया जाता है. जो इससे बच जाते हैं वे अवैध रूप से भारत या विदेश के बूचड़खानों में भेजे जाते हैं. भारत में गोमांस का कारोबार सालाना 6,000-10,000 करोड़ रु का है.
तमिलनाडु सरकार ने 2011-12 में गरीबों में 12,000 जर्सी और एचएफ क्रॉसब्रीड्स बांटी थीं. सवाल यह है कि उपयोगिता खत्म होने के बाद ये गरीब अपने घर के बाहर बंधे इन सफेद हाथियों का क्या करेंगे. डॉ. रामदास कहते हैं, 'सरकारी नीतियां हमें खुदकुशी की तरफ ले जा रही हैं. अगर आप ब्रॉइलर पोल्ट्री का व्यापार देखें तो ब्राजील से लेकर भारत तक सारी दुनिया में दो कंपनियां इस पर कब्जा कर चुकी हैं. अगर हमने खेती और दुग्ध उद्योग में भी यह होने दिया तो हमारे किसानों की संप्रुभता दांव पर होगी.’
यह स्थिति अब भी रोकी जा सकती है. अगर हम समय रहते नीति में बदलाव करें और सरकार स्थानीय नस्लों पर पैसा खर्च करे तो इस क्षेत्र में हमारी समृद्ध जैव विविधता को मवेशियों की चार-पांच पीढ़ियों या कहें कि आने वाले 20-25 साल में बहाल किया जा सकता है. रामदास कहते हैं, 'हमारे पास अब भी स्थानीय नस्लें हैं. वीर्य के नमूने हैं और हमारे किसानों का ज्ञान है. ज्ञान और नस्ल ऐसी चीजें हैं जो एक बार खो जाएं तो उन्हें वापस पाने में कई पीढ़ियों का वक्त लग जाता है. '
यानी अब भी बहुत कुछ हो सकता है. लेकिन दुर्भाग्य से संकेत बहुत उत्साहजनक नहीं हैं. यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से हुए मुक्त व्यापार समझौते और इन देशों को कर में दी जा रही छूट के चलते पूरी संभावना है कि हमारे बाजार सब्सिडाइज्ड डेयरी उत्पादों से पट जाएं. भारत के डेयरी प्रोसेसर इसका स्वागत करेंगे क्योंकि उन्हें सस्ते दामों पर दूध मिल जाएगा. लेकिन छोटे डेयरी किसान जो पहले ही संघर्ष कर रहे हैं, शायद इस हमले का मुकाबला न कर पाएं क्योंकि उन्हें पहले से ही अपना दूध कम दामों पर बेचना पड़ रहा है.
हालांकि इसके उलट उम्मीद जताने वालों के पास अपने तर्क और तैयारियां हैं. अमूल के एक पूर्व अधिकारी कहते हैं, 'भारत में उत्पाद हमेशा प्रतिस्पर्धा में रहेंगे क्योंकि यहां उत्पादन में लगने वाले कारकों की लागत कम है जैसे श्रम. जो किसान महंगी संकर नस्लों का खर्च नहीं उठा सकते उन्हें बड़ी डेयरियों में काम पर रखा जा सकता है. ग्रामीण इलाकों का जो आदमी दूध की थैलियां वहन नहीं कर सकता, उसके लिए हम छोटे-छोटे पैक लाएंगे जो चाय की कुछ प्यालियों में सफेदी लाने के लिए काफी होंगे.' यह एक संकेत है कि कामधेनु के पारंपरिक पालकों का आखिरकार क्या होने वाला है.    

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Ishwar Sharma 21/03/2013 02:48:02
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शुक्रिया, जॉय मजूमदार.
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आपकी ये रपट पढकर हैरत और कोफ्त, दोनों होती हैं.

मैंने बचपन में अपने गांव में गायों का दूध दूहे जाते खूब देखा है और खुद भी खूब दूहा है। तब हमारे गांव में एक भी विदेशी नस्ल की गाय नहीं थी। गांव में भरपूर दूध होता था और लगभग हर घर में पर्याप्त दूध और दूध से संबंधित उत्पाद जैसे छाछ, मठा आदि होते थे.
बाद में गांव के एक 'उन्नत' समझे जाने वाले किसान पाटीदारजी, पंजाब से दो गायें खरीदकर लाए. गांव में बाकायदा ढोल—ढमाकों और हार—फूल पहनाकर उनका स्वागत किया गया. दरअसल, ये गांव में आने वाली पहली विदेशी नस्ल की गायें थीं. मुझे याद है कि इन्हें देखने के लिए गांव के चौक पर भारी हुजूम जुटा था और आसपास के गांवों से भी विदेशी नस्ल की इन गायों को देखने आए थे. पाटीदारजी ने उनके नाम रंभा और राधा रखे थे. तब पाटीदारजी ने सीना चौडा करके गांव के लोगों को बताया था कि ये गायें सुबह 18 और शाम को 12 लीटर, यानी दिनभर में 30 लीटर दूध देती हैं.
यह सुनकर भोले—भाले गांव वालों की आंखें फटी की फटी रह गई थीं क्योंकि उन्होंने देसी गायों में ज्यादा से ज्यादा 6—8 लीटर दूध देने वाली गायें देखी थीं.
यहां तक तो सब ठीक था मगर बाद कुछ ही महीनों बाद ये हुआ कि रंभा बीमार रहने लगी, उसकी दूध देने की क्षमता भी लगातार कम होती गई. उधर राधा की साज—संभाल और उसके खर्चे—पानी पाटीदारजी के लिए बडी मुश्किल बनने लगे. देसी गायों को तो वे उनके ही खेत से नि:शुल्क निकला भूसा खिला देते थे और वे 6 लीटर तक दूध दे देती थीं, मगर राधा, रंभा के लिए उन्हें शहर से खली के साथ पता नहीं कौन—सा तेल भी लाना पडता था, जो उन्हें खली ​में मिलाकर दिया जाता.
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डेढ साल बाद रंभा की मौत हो गई और राधा का दूध भी कम हो गया. आखिरकार 'उन्नत किसान' पाटीदारजी को राधा को बेचना पडा.
उसके बाद से हमारे और आसपास के किसी गांव में कोई विदेशी नस्ल की गाय नहीं देखी गई.
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जॉय, आपकी रपट इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान दौर का कोई अखबार, कोई पत्रिका इस बात को नहीं उठाएगा. 'एक तो गाय, वो भी देसी. इसमें टीआरपी कहां है भाई' कहकर इस कंसेप्ट को ही खारिज कर दिया जाएगा.
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गायों के बीच बचपन बिताने वाले मुझ जैसे कई लोगों को इस बात से खुशी हुई होगी कि एक राष्ट्रीय पत्रिका ने इस बेहद महत्वपूर्ण मसले को इतनी तथ्यपरक पडताल के साथ उठाया.

आपको धन्यवाद.
ईश्वर शर्मा
डिप्टी न्यूज एडिटर, नईदुनिया, इंदौर