शनिवार, 27 सितंबर 2008

02- शमन आणि दमन - The preventive VS curative methods in treatment

शमन आणि दमन
मंगळवार दि. 4 फेब्रुवारी, 1997
गांवकरी - लेखांक 2.

प्रयोगः शमयेद्व्याधिं योऽन्यमन्यमुदीरयेत् / 


नासौ विशुद्धः शुद्धस्तु शमयेद्यो न कोपयेत् //



caraka samhita nidana sthana 8 apasmara  nidana

निसर्गोपचाराचे मर्म भाग २
४ फेब्रु. १९९७ दे. गावकरी मधील माझा लेख
निसर्गोपचार ही जर उपचाराची एक पद्धत आहे तर तिचा आयुर्वेदाशी काय संबंध आहे? किंबहुना उपचारांच्या इतर सर्व पद्धतींशी तिचा काय संबंध अथवा त्यांचा आपापसात काय संबंध? असे प्रश्न साहजिकच आहेत. उपचारांच्या प्रचलित पद्धती आहेत आयुर्वेद, ऍलोपॅथी, होमिओपॅथी, निसर्गोपचार, बाराक्षार पद्धती, योग, चुम्बक चिकित्सा, ऍक्युपंक्चर, ऍक्युप्रेशर इ.
यापैकी आयुर्वेदाचे नाव मी सर्वात आधी घेते कारण आयुर्वेद सोडून इतर सर्व उपचारांच्या पद्धती आहेत. म्हणजे तुम्ही आजारी पडल्यानंतर घडणाऱ्या गोष्टींबाबत आहेत. आयुर्वेद हे मात्र आयुष्यमान वाढवण्याचे, निरोगी राहण्याचे, आरोग्य टिकवून ठेवण्याचे व रोग झाला तर उपचार करण्याचे असे सर्वसमावेशक शास्त्र आहे. आयुर्वेदाचे तीन भाग आपण करू शकतो. रोग न होऊ देणे, शरीराचा कणखरपणा व बल वाढवणे याबाबत सांगितलेले सर्व उपाय स्वस्थवृत्त या विभागात मोडतात. रोग झाल्यानंतर करायचे उपाय चिकित्सा या विभागात मोडतील, पण त्यातही मला दोन भेद दिसतात. रोग झाला तर त्याला दूर करण्यासाठी शरीर स्वत:च काही उपाय योजना करीत असते. या उपायांना बळकटी देणारा व औषधांचा अगदी सौम्य वापर करणारा, पण पथ्यावर जास्त भर देणारा असे चिकित्साप्रकार (ज्याला ढोबळ मानाने आपण शमन पद्धती म्हणू या.) मात्र रोगावर तीव्रतेने प्रभाव करून प्रसंगी शरीराला इतर बाबतीत थोडा त्रास देऊन रोग घालवण्यासाठी जी औषध योजना केली जाईल तिला दमन चिकित्सापद्धती म्हणायला हरकत नाही.
मी आयुर्वेदाचे असे तीन भाग पाडते. कारण त्यामुळे मला इतर चिकित्सा पद्धतींची विचार सरणी पटकन कळते. ऍलोपॅथी पूर्णपणे दमन चिकित्सा आहे. तर निसर्गोपचार हे स्वस्थवृत्त आणि शमन चिकित्सा पद्धती वापरणारे शास्त्र आहे. योग हे पूर्णपणे स्वस्थवृत्त वापरणारे शास्त्र आहे. तर इतर सर्व पद्धतीत आयुर्वेदाच्या शमन या विचारसरणी सारखाच विचार मांडलेला आहे. इथे मला हे नमूद करणे भाग आहे की आरोग्य किंंवा चिकित्सा पद्धतीचे प्रदीर्घ, विस्तृत व सैद्धांतिक विवेचन फक्त आयुर्वेद व ऍलोपॅथी मध्येच झालेले आहे. इतर चिकित्सा पद्धतींमध्ये ते थोडक्यातच मांडलेले आहे. त्यांची एकमेकांशी तुलना फारशी कोणी केलेली नाही. इतकेच नाही तर आयुर्वेदातही चिकित्सेमध्ये शमन आणि दमन हे दोन भाग जुन्या ग्रंथकारांनी पाडलेले नाहीत, पण मी तसे पाडते. ते तसे पाडले जाऊ शकतात कारण इतर कित्येक पद्धतींची विचारसरणी आणि आयुर्वेदातून शमनासाठी वापरलेल्या निरनिराळया उपायांमागची जी वैचारिक बैठक दिली आहे त्यात खूप साम्य आहे. त्यामुळे आयुर्वेदात विस्ताराने केलेले विवेचन ज्याने समजून घेतले असेल त्याला इतर पद्धतींचा कार्यकारणभाव पटकन समजून येईल.
हा कार्यकारणभाव असा की, आपल्या शरीराला नको असलेल्या गोष्टींचे म्हणजेच कचऱ्याचे उत्सर्जन, मल, मूत्र, घाम आणि उच्छ्वास या चार मार्गांनी होत असते. आपला कचरा या चार मार्गांनी बाहेर टाकला जातो. यापैकी उत्सर्जनाची एखादी पद्धत नीट काम करेनाशी झाली की काही तरी रोग होतात म्हणून सर्व प्रथम या पद्धती कशा तंदुरूस्त राहतील आणि आपले काम चोख करतील ते बघा. दुसरा महत्त्वाचा मुद्दा असा की रोग म्हणजे काय? तर शरीर आपल्याकडे अधिक आलेला कचरा उत्सर्जन करण्याचा प्रयत्न करीत असते. प्रत्येकाच्या शरीरप्रकृतीप्रमाणे उत्सर्जनाचा क्रम पण ठरलेला असतो. ताप येणे म्हणजेच त्वचेतून उत्सर्जन सुरू होणे ही पहिली पायरी. पुढच्या पायऱ्या म्हणजे वेगवेगळे त्वचारोग व श्वासाचे रोग. असे हे विवेचन बरेच पुढे नेता येईल. थोडक्यात शरीराचा खरा रोग म्हणजे कुठे तरी साठलेला कचरा. पण दृश्य रोग म्हणजे तो घालवायला शरीराने जी पध्दत अंमलात आणली तो. हे दृश्य रोग पटकन बरे करायचे असतील तर अॅलेपथीत ती दृश्य पद्धत थांबवणारी औषधे दिली जातात. मात्र आपण दुसरा विचारही करू शकतो. शरीराने कचरा घालवण्यासाठी जो रोग निर्माण केला तीच पद्धत जास्त प्रभावीपणे वापरा आणि सगळा कचरा पटकन बाहेर काढा. हा सिद्धांत होमिओपॅथीमध्ये प्रकर्षाने वापरला जातो.
या विवेचनावरून असे म्हणता येईल की, आरोग्याचे मूळ सूत्र म्हणजे अवांछित कचरा साठू देऊ नका. या संदर्भात स्वस्थवृत्तामधे हे करा आणि हे करू नका असे बरेच काही नियम सांगितलेले आहेत. तरी पण कचरा साठला गेला तर तो बाहेर काढण्याच्या नेहमीच्या चार पद्धती अधिक कार्यक्षम करा किंवा शरीराने जी नवी पद्धत वापरली असेल ती तरी जास्त प्रभावी करा. इथे एक लक्षात ठेवले पाहिजे की, ऍलोपॅथीतील इम्युनायझेशन किंवा बॅक्टेरियालॉजींमधील विवेचन यापेक्षा हे विवेचन थोडे वेगळे आहे.

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शनिवार, 30 अगस्त 2008

Naturopathy_SPP_4 --Dec 93

Naturopathy_SPP_3 --Nov 93

Fighting AIDS through Naturopathy - Mar93

Naturopathy SPP_ prastavana --Feb 93

naturopathy SPP_5 --Training --Feb 94

NIN an appraisal --Jan94

NIN an appraisal --Jan 94













fare well -jun 94

Importance of educating masses reg.Health --May94

naturopathy SPP_7 --Apr 94

naturopathy SPP_6 --Mar 94

रविवार, 17 अगस्त 2008

शीतला माता -- 17th century Indian system of vaccination- book Review by me

शीतला माता का इलाज, तीनसौ वर्ष पूर्व
मेरी पुस्तक शीतला माता
सन्‌ १८०२ में इंग्लंड के श्री जेनर ने चेचक के लिए वैक्सीनेशन खोजा। यह गाय पर आए चेचक के दानोंसे बनाया जाता था। लेकिन इससे दो सौ वर्ष पहले से भारत में बच्चों पर आए चेचक के दानोंसे वैक्सीन बनाकर दूसरे बच्चों का बचाव करने की विधी थी। इस बाबत दसेक वर्ष पहले विस्तार से खोजबीन और लेखन किया है इंग्लंड के श्री आरनॉल्ड ने। उसी की यह संक्षिप्त प्रस्तुति है।

शीतला माता के प्रसंगसे

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शीतला माता के प्रसंग से — संपूर्ण
सन्‌ १८०२ में इंग्लंड के श्री जेनर ने चेचक के लिए वैक्सीनेशन खोजा। यह गाय पर आए चेचक के दानोंसे बनाया जाता। लेकिन इससे दो सौ वर्ष पहले से भारत में बच्चों पर आए चेचक के दानोंसे वैक्सीन बनाकर दूसरे बच्चों का बचाव करने की विधी थी। इस बाबत दसेक वर्ष पहले विस्तार से खोजबीन और लेखन किया है इंग्लंड के श्री आरनॉल्ड ने। उसी की यह संक्षिप्त प्रस्तुति है।

ॐ--------------------------------
 शीतला माता
……….लीना मेहेंदळे
कुछ वर्षों पहले मुझे पुणे से डॉ देवधर का फोन आया — यह बताने के लिए वे American Journal for Health Sciences के लिए एक पुस्तक समीक्षा कर रहे हैं। पुस्तक थी लंदन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर आरनॉल्ड लिखित Colonising Body । पुस्तक का विषय है कि प्लासी की लड़ाई अर्थात्‌ १७५६ से लेकर १९४७ तक अपने राजकाल में अंग्रेजी राज्य कर्ताओं ने भारत में प्रचलित कतिपय महामारियों को रोकने के लिए क्या-क्या किया। इसे लिखने के लिए लेखक ने अंग्रेजी अफसरों के द्वारा दो सौ वर्षों के दौरान लिखे गये कई सौ डिस्ट्रिक्ट गझेटियर और सरकारी फाइलों की पढ़ाई की और जो जो पढ़ा उसे ईमानदारी से इस पुस्तक में लिखा। पुस्तक के तीन अध्यायों में चेचक, प्लेग और कॉलरा जैसी तीन महामारियों के विषय में विस्तार से लिखा गया है। अन्य अध्याय विश्लेषणात्मक हैं।
डॉ० देवधर की सूचना थी कि मैं चेचक से संबंधित अध्याय अवश्य पढूं और अपना मत लिखूं जो उनकी पुस्तक समीक्षा में मेरे नाम के साथ शामिल किया जाएगा। बाद में अपनी समीक्षा के अन्त में उन्होंने लिखा था — मेरा डॉक्टरी ज्ञान केवल ऍलोपैथी से है। इस पुस्तक में वर्णित कुछ घटनाएँ — जो शायद उस जमाने की आयुर्वेदिक पद्धतियों को उजागर करती है, मेरी समझ से बाहर है। इसलिय मैंने ऐसे व्यक्ति को पूरक समीक्षा लिखने के लिए कहा जिसे आयुर्वेद की समझ के साथ यह भी ज्ञान है कि समाज के लिए स्वास्थ्य — विचार कैसे किया जाता है। इन शब्दों के आगे मेरी समीक्षा को जोड़कर उसे जर्नल में छापा गया।
मेरी समीक्षा केवल चेचक के अध्याय के लिए ही सीमित थी, लेकिन उस अध्याय में लेखक ने जो कुछ लिखा है वह इतना महत्वपूर्ण है कि मेरे कई मित्रों ने उसके विषय में विस्तार के लिखने का आग्रह किया है।
सत्रहवीं, अठारवीं और उन्नीसवीं सदी में या शायद उससे कुछ सदियों पहले भी चेचक की महामारी से बचने के लिए हमारे समाज में एक खास व्यवस्था थी। उनका विवरण देते हुए लेखक ने काशी और बंगाल की सामाजिक व्यवस्थाओं के विषय में अधिक जानकारी दी है। चेचक को शीतला के नाम से जाना जाता था और यह माना जाता था कि शीतला माता का प्रकोप होने से बीमारी होती है। लेकिन इससे जूझने के लिए जो समाज व्यवस्था बनाई गई थी उसमें धार्मिक भावनाओं का अच्छा खासा उपयोग किया गया था। शीतला माता को प्रेम और सम्मान से आमंत्रित किया जाता था, उसकी पूजा का विधि विधान भी किया गया था। चैत्र के महीने में शीतला उत्सव भी मनाया जाता था। यही महीना है जब नई कोंपलें और फूल खिलते हैं, और यही महीना है जब शीतला बीमारी अर्थात्‌ चेचक का प्रकोप शुरू होने लगता है। शीतला माता को बंगाल में बसन्ती — चण्डी के नाम से भी जाना जाता है।
काशी के गुरूकुलों से गुरू का आशीर्वाद लेकर शिष्य निकलते थे और अपने-अपने सौंपे गये गाँवों में इस पूजा विधान के लिये जाते थे। चार-पांच शिष्यों की टोली बनाकर उन्हें तीस-चालीस गांव सौंपे जाते थे। गुरू के आशीर्वाद के साथ-साथ वे अन्य कुछ वस्तुएं भी ले जाते थे — चाँदी या लोहे के धारदार ब्लेड और सुईयाँ, और रुई के फाहों में लिपटी हुई कोई वस्तु
इन शिष्यों का गाँव में अच्छा सम्मान होता था और उनकी बातें ध्यान से सुनी व मानी जाती थीं। वे तीन से पन्द्रह वर्ष की आयु के उन सभी बच्चों और बच्च्िायों को इकट्ठा करते थे जिनहें तब तक शीतला का आशीर्वाद न मिला हो (यानि चेचक की बीमारी न हुई हो)। उनके हाथ में अपने ब्लेड से धीमे धीमे कुरेदकर रक्त की मात्र एकाध बूंद निकलने जितनी एक छोटी सी जख्म करते थे। फिर रूई का फाहा खोलकर उसमें लिपटी वस्तु को जख्म पर रगड़ते थे। थोड़ी ही देर में दर्द खतम होने पर बच्चा खेलने कूदने को तैयार हो जाता। फिर उन बच्चों पर निगरानी रख्खी जाती। उनके माँ-बाप के साथ अलग मीटिंग करके उन्हें समझाया जाता कि बच्चे के शरीर में शीतला माता आने वाली है, उनकी आवभगत के लिये बच्चे को क्या क्या खिलाया जाय। यह वास्तव में पथ्य विचार के आधार पर तय किया जाता होगा।
एक दो दिनों में बच्चों को चेचक के दाने निकलते थे और थोड़ा बुखार भी चढ़ता थ। इस समय बच्चे को प्यार से रख्खा जाता और इच्छाएं पूरी की जाती। ब्राम्हण शिष्यों की जिम्मेदारी होती थी कि वह पूजा पाठ करता रहे ताकि जो देवी आशीर्वाद के रूप में पधारी हैं, वह प्रकोप में न बदल पाये। दाने बड़े होकर पकते थे और फिर सूख जाते थे — यह सारा चक्र आठ-दस दिनों में सम्पन्न होता था। फिर हर बच्चे को नीम के पत्तों से नहलाकर उसकी पूजा की जाती और उसे मिष्ठान दिये जाते। इस प्रकार दसेक दिनों के निवास के बाद शीतला माता उस बच्चे के शरीर से विदा होती थीं और बच्चे को आशीर्वाद मिल जाता कि जीवन पर्यन्त उस पर शीतला का प्रकोप कभी नहीं होगा।
उन्हीं आठ-दस दिनों में ब्राम्हण शिष्य चेचक के दानों की परीक्षा करके उनमें से कुछ मोटे-मोटे, पके दाने चुनता था। उन्हें सुई चुभाकर फोड़ता था और निकलने वाले पीब को साफ रुई के छोटे-छोटे फाहों में भरकर रख लेता था। बाद में काशी जाने पर ऐसे सारे फाहे गुरू के पास जमा करवाये जाते। वे अगले वर्ष काम में लाये जाते थे।
यह सारा वर्णन पढ़कर मैं दंग रह गई। थोड़े शब्दों में कहा जाय तो यह सारा पल्स इम्युनाइजेशन प्रोग्राम था जो बगैर अस्पतालों के एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में चलाया जा रहा था। ब्राहम्णों के द्वारा किये जाने वाले विधि विधान या पथ्य एक तरह से कण्ट्रोल के ही साधन थे। हालांकि पुस्तक में सारा ब्यौरा बंगाल व बनारस का है, लेकिन मैं जानती हूं कि महाराष्ट्र में, और देश के अन्य कई भागों में शीतला सप्तमी का व्रत मनया जाता है और हर गाँव के छोर पर कहीं एक शीतला माता का मंदिर भी होता है।
इससे अधिक चौंकाने वाली दो बातें इस अध्याय में आगे लिखी गई थीं।
अंग्रेज जब यहाँ आये तो अंग्रेज अफसरों और सोल्जरों को देसी बीमारियों से बचाये रखने के लिए अलग से कैण्टोनमेंट बने जो शहर से थोड़ी दूर हटकर थे। लेकिन यदि महामारी फैली तो अलग कैण्टों में रहने वाले सोल्जरों को भी खतरा होगा। अतः महामारी के साथ सख्ती से निपटने की नीति थी। महामारी के मरीजों को बस्तियों से अलग अस्पतालों में रखना पड़ता था। उन्हें वह दवाईयाँ देनी पड़ती थीं जो अंग्रेजी फार्मोकोपिया में लिखी हैं, क्योंकि देसी लोगों की दवाईयों का ज्ञान तो अंगेजों को था नहीं और उन पर विश्र्वास भी नहीं था। अंग्रेजों के लिये यह भी जरूरी था कि कैन्टों के चारों ओर भी एक बफर.जोन हो — अर्थात्‌ वहाँ रहनेवाले भारतीय (प्रायः नौकर चाकर, धोबी, कर्मचारी इत्यादि) विदेशी टीके द्वारा संरक्षित हों।
वैसे देखा जाय तो ब्रिटानिका इनसाइक्लोपीडिया जिक्र है कि अठारवीं सदी के आरंभ में चेचक से बचने के लिए टीका लगवाने की एक प्रथा भारत से आरंभ कर अफगानिस्तान व तुर्किस्तान के रास्ते यूरोप में — खासकर इंग्लैंड में पहुँची थी। जिसे Variolation का नाम दिया गया था। अक्सर डॉक्टर लोग इसे ढकोसला मानते थे फिर भी कई गणमान्य लोग इसके प्रचार में जुटे थे और उन्हें इंग्लैंड के समाज में अच्छा सम्मान प्राप्त था। सन्‌ १७६७ में हॉवेल ने एक विस्तृत विवरण लिखकर इंग्लैण्ड की जनता को Variolation के संबंध में आश्र्वस्त कराने का प्रयास किया।
सन्‌ १७९६ में डाँ. जेनर ने गाय के चेचक के दानों से चेचक का वॅक्सिन बनाने की खोज की। चूंकि यह एक अंग्रेज डॉक्टर का खोजा हुआ तरीका था, अतः इस पर तत्काल विश्र्वास किया गया और भारत में उसे तत्काल लागू किये जाने की सिफारिश की गई ताकि अंग्रेज सिपाहियों की स्वास्थ्य रक्षा हो सके। इन वॅक्सिनों को बर्फ के बक्सोंमें रखकर भारत लाया जाता था। फिर उससे भारतीयों को चेचक के टीके लगवाये जाते थे। टीका लगाने का तरीका ठीक वही था जो हमारे ब्राम्हण इस्तेमाल करते थे लेकिन इस पद्धति का नाम पडा वॅक्सिनेशन। इसके लिये बड़ी सख्ती करनी पड़ती थी क्योंकि यदि किसी भारतीय ने अंग्रेजी टीका नहीं लगवाया तो अंग्रेज डॉक्टरों का डर था कि आगे उसे चेचक निकलेंगे और वह महामारी फैलाने का एक माध्यम बनेगा। आरंभ काल में अंग्रेजी टीका लगाने के तरीके काफी दुखद होते थे। उनकी जख्में बड़ी होती थीं और बच्चे या बूढ़े उन्हें लगवाने से डरते और रोते पीटते थे। जेनर विधि के अर्न्तगत वैक्सिनेशन का टीका लगवाने पर उस जगह घाव हो जाता था और बुखार भी निकलता था, लेकिन चेचक के दाने नहीं उभरते थे जैसा कि देसी वेरीओलेशन की प्रणाली में निकलते थे।
ऐसा लगता है कि देशी विधा से इम्युनायझेशन कराने वाला कोई ब्राम्हण गुरू या शिष्य अंग्रेजों को यह समझाने की स्थिति में नहीं था कि शीतला के लिये वे जो कुछ करते हैं वह क्या है और न ही खुद समझ पाया था कि अंग्रेजी डॉक्टर टीका लगाते हैं तो क्या करते हैं। लेखकय का वर्णन पढने से ऐसा लगता है मानों दोनों ओर से लोग अनभिज्ञ थे कि वे एक ही काम कर रहे हैं। फिर भी कहीं ना कहीं अंग्रेजों को यह समझ थी कि जब तक काशी के ब्राम्हणों के शिष्य अपना वेरिओलेशन का कार्यक्रम कर रहे हैं तब तक उनके लिये चुनौती कायम रहेगी। उसे रोकने के लिए देशी तरीके को अशास्त्रीय करार दिया गया और शीतला का टीका लगाने वाले ब्राम्हणों को जेल भिजवाया जाने लगा। तब ब्राम्हणों ने अपनी विद्या गाँव गाँव के सुनार और नाइयों को पढ़ाई। इस प्रकार उनके माध्यम से भी यह देसी पद्धति से टीके लगाने का काम कुछ वर्षों तक चलता रहा। जिन सुनार/नाइयों को यह विद्या सिखाई गई उनका नाम पडा टीकाकार और आज भी बंगाल व ओरिसा में टीकाकार नाम से कई परिवार पाये जाते हैं, जो मूलतः सुनार या नाई दोनों जातियों से हो सकते हैं। शायद उनके वंशज नहीं जानते थे कि यह नाम उनके हिस्से में कहाँ से आया।
हमारे पुराने सारे कर्मकाण्डों में यह पाया जाता है कि एक छोटी सी शास्त्रीय घटना को केन्द्र में रखकर उसे ऊपर से उत्सवों का और कर्मकाण्डों का भारी भरकम चोला पहनाया जाता था। वह चोला दिखाई पड़ता था, उसमें चमक-दमक होती थी। लोग उसे देखते, उन कर्मकाण्डों को करते और सदियों तक याद रखते। आज भी रखते हैं। लेकिन प्रायः उनकी आत्मा अर्थात्‌ वह छोटा सा शास्त्रीय काम जिसके लिए यह सारा ताम झाम किया गया, काल के बहाव में लुप्त हो जता क्योंकि उसके जानकार लोग कम रह जाते थे। आज भी महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्र में रिवाज हे कि चैत्र मास में छोटे-छोटे बच्चे सिर पर तांबे का कलश लेकर नदी में नहाने जाते हैं। कलश को नीम के पत्तों से सजाया जाता है। गीले बदन नदी से देवी के मंदिर तक आकर कलश का पानी कुछ शीतला देवी पर चढ़ाते हैं और कुछ अपने सिर पर उंडेलते हैं। इसी प्रकार शीतला सप्तमी का व्रत भी प्रसिद्ध है जो श्रावण मास में किया जाता है।
आरंभ से आयुर्वेद के प्रचार प्रसार में विकेन्द्रीकरण का बड़ा महत्व रखा गया था जो आधुनिक केन्द्रीकरण और अस्पताल व्यवस्था के बिल्कुल भिन्न है। आयुर्वेद के विभिन्न सिद्धान्तों को अत्यन्त छोटे छोटे कर्मकाण्डों और रीति रिवाजों में बाँटकर घर घर तक पहुँचाया गया था। उन सिद्धान्तों के अनुपालन में परिवार की महिला सदस्यों का विशेष स्थान था। अतएव आयुर्वेद का ज्ञान महिलाओं के पास सुरक्षित रहता था और प्रायः उन्हींके द्वारा उपयोग में लाया जाता। औरतों को परिवार में सम्मान का स्थान मिलने के जो कई कारण थे उसमें स्वास्थ्य रक्षा का भी एक महत्वपूर्ण कारण था। यह आयुर्वेद का ज्ञान औरतों द्वारा परिवार के पास पडोस की सेवा के लिये लगाया जाता। यदि कोई परिवार आर्थिक अडचन में आए तभी यह ज्ञान परिवार के पुरुषों के माध्यम से आर्थिक आय जुटाने के काम में प्रयुक्त किया जाता। परिवार में औरतों का सम्मान घटने का एक कारण यह भी रहा है कि आयुर्वेद के माध्यम से स्वास्थ्य रक्षा का जो ज्ञान उनके पास था वह अब छिन चुका है।
विकेन्द्रीकरण का एक माध्यम यदि महिलाएं थीं तो दूसरा माध्यम था समाज के विभिन्न वर्ग। उदाहरणस्वरूप हम ब्राम्हण जाति को देखें। साधरणतया ब्राम्हण बच्चों को छोटी आयु में ही विद्याध्ययन के लिये गुरु के पास भेज दिया जाता था जहाँ उन्हें बिना आर्थिक भेदभाव के करीब पन्द्रह से बीस वर्ष गुरु के पास बिताने पड़ते । इस दौरान देश-प्रांत घूमकर वे सारे काम भी पूरा करने पड़ते थे जेसा गुरू आदेश दे, और इसी का नमूना था शीतला के टीके लगाना जैसा पहले वर्णन किया गया है। इन पर्यटनशील ब्राम्हण शिष्यों के माध्यम से वे सारी सामाजिक व्यवस्थाएं चलाई जातीं जिनमें बड़े पैमाने पर एक साथ क्रियान्वयन की आवश्यकता होती थी जैसा कि शीतला माता के संबंध में देखा जा सकता है। इसीलिये जो भी ब्राम्हण गृहस्थश्रम में न हो उसके लिये देश देशान्तरों में घूमना और अपरिग्रह जैसे नियम आवश्यक थे। इस विकेन्द्रीकृत सामाजिक व्यवस्था द्वारा आयुर्वेद के लिये आवश्यक विकेन्द्रीकरण संभव हुआ करता था।
यह भी सोचने की बात है कि यदि यह देशी व्यवस्था कारगर थी तो चेचक की महामारी इतनी भ्यावह क्यों थी ? उन्नींसवी सदी में चेचक के विषय में सभी अंग्रेज डॉक्टरों का मत था कि यह भारत की सबसे खतरनाक बीमारी थी जिसके कारण हर वर्ष प्रायः लाख-एक लोगों की जान जाती थी और प्रायः दो लाख से अधिक लोग चेचक के दागों के साथ जीवन गुजारते जिनमें से कई अंधे भी हो जाते थे। इसके उत्तर के लिए अधिक रिसर्च आवश्यक है।
लेखक ने अपनी पुस्तक में Variolation तथा Vaccination दोनों प्रक्रियाओं के विषय में लिखा है। दोनों में बहुत अंतर भी नहीं है। दोनों प्रक्रियायों का उद्देश्यों था कि रोग हो ही नहीं। लेकिन रोग हो जाने पर टीका नहीं लगाया जा सकता। लेखक ने यह भी बताया है कि रोग होने पर क्या किया जाता था। चेचक या मसूरिका रोग के विषय में चरक या सुश्रुत संहिता में अत्यन्त कम वर्णन पाया जाता है जिससे प्रतीत होता है कि पॉचवीं सदी में इस रोग की भयावहता अधिक नहीं थी। किन्तु आठवीं सदी के प्रसिद्ध आयुर्वेदिक ग्रन्थ माधव निदान में इसका विस्तृत वर्णन है। एक बार रोग हो जाये तो इसकी कोई दवा नहीं थी केवल पथ्य विचार था। माँस-मछली, दूध, तेल, घी और मसाले कुपथ्य माने जाते थे। केला, गन्ना, पके हुए चावल, भंग, तरबूजे आदि पथ्यकर थे। बीमारी की पहचान के बाद वैद्य, ब्राम्हणों या कविराज की कोई जरूरत नहीं रहती क्योंकि दवाई तो कोई होती नहीं थी। शीतला माता के मंदिरों के पुजारी प्रायः माली समाज से या बंगाल में मालाकार समाज से होते थे। बीमारों की परिचर्या के लिए उन्हीं को बुलाया जाता था माली आने के बाद वह घर में सारे माँसाहारी खाने बंद करवाता था। घी, तेल व मसाले भी बंद करवाये जाते। मरीज की कलाई में कुछ कौडियाँ, कुछ हल्दी के टुकडे और सोने का कोई गहना बांधा जाता था। उसे केले के पत्ते पर सुलाया जाता और केवल दूध का आहार दिया जाता। उसे नीम के पत्तों से हवा की जाती। उसके कमरे में प्रवेश करने वाले को नहा धोकर आना पड़ता। शीतला माता की पंचधातु की मूर्ति का अभिषेक कर वही चरणोदक बीमार को पिलाया जाता। रातभर शीतला माता के गीत गाये जाते। लेखक ने एक पूरे गीत का अंग्रेजी अनुवाद भी किया है जो माता की प्रार्थना के लिये गाया जाता था। दानों की जलन कम करने के लिए शरीर पर पिसी हुई हल्दी, मसूर दाल का आटा या शंख भस्म का लेप किया जाता। सात दिनों तक कलश पूजा भी होती जिसमें चावल की खीर, नारियल, नीम के पत्ते इत्यादि का भोग लगता। चेचक के दाने पक चुकने के बाद जलन को कम करने की आवश्यकता होने पर किसी तेज कांटे से उनहें फोड़कर पीब निकाल दिया जाता। इसके बाद के एक सप्ताह तक बीमार व्यक्ति की हर इच्छा को माता की इच्छा मानकर पूरा किया जाता और माता को ससम्मान विदा किया जाता।
लेखक के अनुसार शीतला माता का एक बड़ा मंदिर गुडगाँवा में था जिसमें बड़ी यात्रा लगती थी। लेकिन पूरे उत्तरी भारत, राजस्थान, बिहार, बंगाल व ओडिसा में छोटे-छोटे मंदिर थे, जहाँ चैत्र में शीतला माता के पर्व के लिये यात्राएं और मेले लगते थे। बंगाल व पंजाब के कई मुस्लिम परिवारों में भी शीतला माता की पूजा का रिवाज था जिसे समाप्त करने के लिए फराइजी मुस्लिम संगठन के कार्यकर्ता कोशिश किया करते।
लेखक के अनुसार बीमारी न होने का उपाय करना ब्राम्हणों के जिम्मे था जो कि गाँव गाँव जाकर टीके लगवाते थे। बंगाल व ओरिसा में आज भी टीकाकार नाम के कई परिवार हैं। इस विधि का भारत में काफी प्रचार था। लेकिन बीमारी हो जाने पर रोगी की व्यवस्था देखने का काम मालियों के जिम्मे था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इम्युनाझेशन के लिये बीमार व्यक्ति को ही साधन बनाने का सिद्धान्त और चेचक जैसी बीमारी में टीका लगाने का विधान भारत में उपजा था। तेरहवीं से अठारवीं सदी तक यह उत्तरी भारत के सभी हिस्सों में प्रचलित था। १७६७ में डॉ हॉवेल ने भारतीय टीके की पद्धति का विस्तृत ब्यौरा लंडन के कॉलेज ऑफ फिजिक्स में प्रस्तुत किया था और इसकी भारी प्रशंसा की थी। यह पद्धति इंग्लैंड में नई-नई आई थी और हॉवेल उन्हें इसके विषय में आश्र्वस्त कराना चाहता था। हॉवेल ने बताया कि टीका लगाने के लिये भारतीय टीकाकार पिछले वर्ष के पीब का उपयोग करते थे, नये का नहीं। साथ ही यह पीब उसी बच्चे से लिया जाता जिसे टीके के द्वारा शीतला के दाने दिलवाये गये हों अर्थात जिसका कण्ट्रोल्ड एनवायर्नमेंट रहा हो। टीका लगाने से पहले रुई में स्थित दवाई को गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया जाता था। बच्चों के घर ओर पास पड़ोस के पर्यावरण का विशेष ख्याल रखा जाता था। बूढ़े व्यक्ति या गर्भवती महिलाओं को अलग घरों में रख्खा जाता ताकि उन तक बीमारी का संसर्ग न फैले। हॉवेल के मुताबिक इस पूरे कार्यक्रम में न तो किसी बच्चे को तीव्र बीमारी होती और न ही उसका संसर्ग अन्य व्यक्तियों तक पहुँचता — यह पूर्णतया सुरक्षित कार्यक्रम था। सन्‌ १८३९ में राधाकान्त देव ने भी इस टीके की पद्धति का विस्तृत ब्यौरा देने वाली पुस्तक लिखी है। आरनॉल्ड कहता है — हालॉकि हॉवेल या देव यह नहीं लिख पाये कि टीका देने की यह पद्धति समाज में कितनी गहराई तक उतरी थी, लेकिन १८४८ से १८६७ के दौरान बंगाल के सभी जेलों के आँकड़े बताते हैं कि करीब अस्सी प्रतिशत कैदी भारतीय विधान से टीका लगवा चुके थे। असम, बंगाल, बिहार और ओरिसा में कम से कम साठ प्रतिशत लोक टीके लगवाते थे। आरनॉल्ड ने वर्णन किया है कि बंगाल प्रेसिडेन्सी में १८७० के दशक में चेचक से संबंधित कई जनगणनाएँ कराई गईं। ऐसी ही एक गणना १८७२-७३ में हुई। उसमें १७६९७ लोगों की गणना में पाया गया कि करीब ६६ प्रतिशत लोग देसी विधान के टीके लगवा चुके थे, ५ प्रतिशत का Vaccination कराया गया था, १८ प्रतिशत को चेचक निकल चुका था और अन्य ११ प्रतिशत को अभी तक कोई सुरक्षा बहाल नहीं की गई थी। बंगाल प्रेसिडेन्सी के बाहर काशी, कुमाँऊ, पंजाब, रावलपिण्डी, राजस्थान, सिंध, कच्छ, गुजरात और महाराष्ट्र के कोंकण प्रान्त में भी यह विधान प्रचलित था। लेकिन दिल्ली, अवध, नेपाल, हैदराबाद और मेसूर में इसके चलन का कोई संकेत लेखक को नहीं मिल पाया। मद्रास प्रेसिडेन्सी के कुछ इलाकों में ओरिया ब्राम्हणों द्वारा टीके लगवाये जाते थे। टीके लगवाने के लिये अच्छी खासी फीस मिल जाती लेकिन कई इलाकों में औरतों को टीका लगाने पर केवल आधी फीस मिलती थी। राधाकान्त देव के अनुसार टीका लगाने का काम ब्राम्हणों के अलावा, आचार्य, देबांग (ज्योतिषी), कुम्हार, सांकरिया (शंख वाले) तथा नाई जमात के लोग भी करते थे। बंगाल में माली समाज के लोग और बालासोर में मस्तान समाज के तो बिहार में पछानिया समाज के लोग, मुस्लिमों में बुनकर और सिंदूरिये वर्ग के लोग टीका लगाते थे। कोंकण में कुनबी समाज तो गोवा में कॅथोलिक चर्चों के पादरी भी टीका लगाते थे। टीका लगाने के महीनों में अर्थात्‌ फाल्गुन, चैत्र, बैसाख में हर महीने सौ सवा सौ रुपये की कमाई हो जाती जो उस जमाने में अच्छी खासी सम्पत्त्िा थी। कई गाँवों का अपना खास टीका लगवाने वाला होता था और कई परिवारों में यह पुश्तैनी कला चली आई थी। लेखक के मुताबिक चूँकि टीका लगवाने की यह विधि ब्रिटेन में भी धीरे-धीरे मान्य हो रही थी, अतः बंगाल के कई अंग्रेज परिवार भी टीके लगवाने लगे थे। लेकिन सन्‌ 1798 में सर जेनर ने गाय के थन पर निकले चेचक के दानों से Vaccine बनाने की विधि ढूँढ़ी तो इंग्लैंड में उसका भारी स्वागत हुआ। अब उस जादू टोने वाले देश के टीके बजाय हम अपने डॉक्टर की विधि का प्रयोग करेंगे। जैसे ही जेनर की विधि हाथ में आई अंग्रेजों ने मान लिया कि इसके सिवा जो भी विधि जहाँ भी हो वह बकवास है और उसे रोकना पड़ेगा।
जेनर की विधि सबसे पहले १८०२ में मुम्बई में लाई गई और १८०४ में बंगाल में। इसके बाद ब्रिटिश राज ने हर तरह से प्रयास किया कि भारतीयों की टीका लगाने की विधि अर्थात्‌ Variolation को समाप्त किया जाए। इसका सबसे अच्छा उपाय यह था कि Variolation के द्वारा टीका लगवाने को गुनाह करार दिया गया और टीका लगवाने वालों को जेल भेजा गया। करीब १८३० के बाद चेचक के विषय में अंग्रेजों के द्वारा लिखित जितने भी ब्यौरे मिलेंगे उनमें Variolation की विधि को बकवास बताया गया है और भारतीयों की तथा उनकी अंधश्रद्धा की भरपूर निन्दा की गई जिसके कारण वे जेनर साहब के Vaccination जैसे अनमोल रत्न को ठुकरा रहे थे जो उनहें अंग्रेज डॉक्टरों की दया से मिल रहा था और जिसके प्रति कृतज्ञता दर्शाना भारतीयों का फर्ज था। भारतीयों द्वारा देसी पद्धति से टीका लगवाने को मृत्यु का व्यापार या « Murderous trade » कहा गया।
अन्य जगहों पर आरनॉल्ड ने लिखा है — उत्तर पूर्व भारत से अंग्रेजों के द्वारा भारतीय टीके के संबंध में कई विवरण मिलते हैं जो काफी अलग अलग हैं क्योंकि कई बार ये विवरण लेखक की अपनी समझ पर निर्भर है। फिर भी देखा जा सकता है कि सन्‌ १८०० से पहले के रिपोर्ट प्रायः इस प्रणाली की प्रशंसा करते थे।
देशी टीका पद्धति को दकियानूसी कह कर बंद करवाने के प्रयास के कारण देशी टीकाकार छिप-छिपाकर टीके लगाने लगे। अतएव अब वे पहले जितनी देखभाल या पथ्य विचार नहीं कर सकते थे। देशी टीका पद्धति यदि कहीं-कहीं अप्रभावी होने लगी, तो उसका एक कारण यह भी था।
जो अंग्रेज शासन अभी बंदूक की नोक के सहारे था, और मराठों के साथ अभी तक लड़ाईयाँ लड़ रहा था, उसके लिए वॅक्सीनेशन एक ऐसा मुद्दा बन गया जिसके माध्यम से नेटिवों को एहसानमंद किया जा सकता था और कहा जा सकता था कि कंपनी का राज कितनी हमदर्दी से चल रहा है।
वैक्सीनेशन को भारतीयों ने शीघ्रता से सर आँखों पर नहीं लिया इससे कई अंग्रेज ऊसर रुष्ट थे। शूलब्रेड ने उन्हें मूर्ख, अज्ञानी और हर नये अविष्कार कर शत्रु कहा (१८०४) तो डंकन स्टेवार्ट ने अकृतज्ञ और मूढ कहा (१८४०) जबकि १८७८ में कलकत्ता के सॅनिटरी कमिश्नर ने उन्हें अंधिविश्र्वासी, रूढ़िवादी और जातीयवादी कहा। भारतीयों की टीका पद्धती को ही इस व्यवहार का कारण माना गया और कहा गया कि सारे भारतीय टीकाकार अपनी रोजी रोटी छिन जाने के डरसे वॅक्सिनेशन के बारे में गलत बातें फैला रहे थे, जबकि भारतीय पद्धति में ही अधिक लोग मरते हैं।
खुद नियति ने यह विधान किया कि हम इस देश पर राज करें और यहाँ लाखों करोड़ों मूढ़ और अज्ञानी प्रजाजनों को उस आत्मक्लेश से बचायें जिसके कारण वे भारतीय टीका लगवाते हैं — शूलब्रेड।
लेकिन शूलब्रेड के ही समकालीन बुचानन पद्धति में कई अच्छाइयों का वर्णन किया है और १८६० में कलकत्ता के वॅक्सीनेशन के सुपरिटेंडेंट जनरल चार्लस्‌ ने लिखा है यदि सारे विधी विधानों का ठीक से पालन हो तो भारतीय पद्धती में चेचक की महामारी फैलने की कोई संभावना नहीं है। हालाँकि मैं स्वयं वॅक्सिनेशन को बेहतर समझता हूँ म्रि भी मेरा सुझाव है कि भारतीय टीकादारों पर पाबन्दी लगाने के बजाय उनका रजिस्ट्रेशन करके उन्हें उनकी अपनी प्रणाली से टीके लगाने दिये जायें। जाहिर है कि यह सुझाव अंग्रेजी हुकूमत को पसंद नहीं आया।
अंग्रेजी पद्धति के लोकप्रिय न होने का एक कारण यह भी था कि कॉफी वर्षों तक अंग्रेजी पद्धती में कई कठिनाईयाँ थीं। उन्नींसवीं सदी के अंत तक यह पद्धती काफी क्लेशकारक भी थी। भारतवर्ष में गायों को चेचक की बीमारी नहीं होती थी। अतः गाय के चेचक का पीब (जिसे वॅक्सिन कहा गया) इंग्लैंड से लिया जाता था। फिर बगदाद से बंबई तक इसे बच्चों की श्रृखंला के द्वारा लाया जाता था — अर्थात्‌ किसी बच्चे को गाय के वॅक्सीन से टीका लगा कर उसे होने वाली जख्म के पकने पर उसमें से पीब निकालकर अगले बच्चे को टीका लगाया जाता था।
बाद में गाय के वॅक्सिन को शीशी में बन्द करके भेजा जाने लगा। परंतु गर्मी से या देर से पहुँचने पर उसका प्रभाव नष्ट हो जाता था। उसके कारण बड़े बड़े नासूर भी पैदा होते थे। गर्मियों में दिये जाने वाले टीके कारगर नहीं थे, अतएव छह महीनों के बाद टीके बंद करने पड़ते थे और अगले वर्ष फिर से बच्चों की श्रृखंला बनाकर ही टीके का वॅक्सिन भारत में लाया जा सकता था। यूरोप और भारत में यह भी माना जाता था कि इसी पद्धति के कारण सिफिलस या कुष्ट रोग भी फैलते हैं।
सन्‌ १८५० में बम्बई में वॅक्सिनेशन डिविजन ने गाय बछड़ों में वॅक्सिनेशन कर उनके पीब से टीके बनाने का प्रयास किया परंतु यह खर्चीला उपाय था।
सन्‌ १८९३ में बंगाल के सॅनिटरी कमिश्नर डायसन ने लिखा है — अंग्रेजी पद्धति में एक वर्ष से कम उमर के बच्चों को टीका दिया जाता था। जिस बच्चे का घाव पक गया हो उसे दूसरे गाँवों में ले जाकर उसके घावों का पीब निकालकर अन्य बच्चों को टीका लगया जाता। कई बार घार को जोर से दबा-दबा कर पीब निकाला जाता ताकि अधिक बच्चों को टीका लगाया जा सके। बच्चे, उनकी माएं और अन्य परिवार वाले रोते कलपते थे। टीका लगवाने वाले परिवार भी रोते क्योंकि उनके बच्चों को भी आगे इसी तरह से प्रयुक्त किया जाता था। गाँव वाले मानते थे कि इन अंग्रेज टीकादारों से बचने का ही रास्ता था — कि उन्हें चाँदी के सिक्के दिये जायें। यह सही है कि इस विधी में बच्चे को कोई बीमारी नहीं होती थी या उसे चेचक के दाने नहीं निकलते थे जबकि भारतीय पद्धति में पचास से सौ तक दाने निकल आते थे। फिर भी कुल मिलाकर भारतीय पद्धति में तकलीफें कम थीं। जो भी थीं उन्हे शीतला माता की इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया जाता था।
इस सारे विवरण को विस्तार से पढ़ने के बाद कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। सबसे पहला प्रश्न यह आता है कि शीतला का टीका लगाने की इस विधि के विषय में हमारे आयुर्वेद के विद्वान क्या और कितना जानते हैं ? आज भी काशी इत्यादि तीर्थ क्षेत्रों में पण्डों के पास उनके यजमान कुटुंबों के कई पीढ़ियों के इतिहास या वंशावलियाँ सुरक्षित हैं। क्या इनमें से किसी के पास या आयुर्वेद की पुरानी पोथियाँ संभाल कर रखने वाले परिवारों में किसी के पास इस संबंध में अधिक जानकारी मिल सकती है ? दूसरा विचार यह है कि हमारे समाज में कभी यह क्षमता थी कि इस प्रकार की विकेंद्रित प्रणाली का आयोजन किया जा सकता था। आज वह क्षमता लुप्त सी होती दिखाई पड़ती है जोकि गहरी चिन्ता का विषय है। यह भी विचारणीय है कि जैसा गहन रिसर्च आरनॉल्ड ने यह पुस्तक लिखने के लिये किया वैसा गहन रिसर्च हमारे ही देश की स्वास्थ्य प्रणाली के विषय में कितने लोग या कितने आयुर्वेदिक डॉक्टर कर पाते हैं ? उनकी क्षमता बढ़ाने के लिये सरकार के पास क्या नीतियाँ हैं और वे कितनी कारगर हैं ?
सबसे पहले प्रयास के रूप में इतना तो अवश्य किया जा सकता है कि हमारे आयुर्वेद के डॉक्टर और सरकारी अफसर इस पुस्तक को या कम से कम इस अध्याय को पढ़ लें।
Colonizing the Body: State Medicine and Epidemic Diseases in Nineteenth-Century India Authored by David Arnold. Reviewed by Dr. N. S. Deodhar and Smt. Leena Mehendale.
Journal of Public Health Policy Vol. 18: 372.
English
पृष्ठ 1 व 2

पृष्ठ 3 व 4
पृष्ठ 5 व 6
पृष्ठ 7 व 8
पृष्ठ 9 व 10
पृष्ठ 11 व 12
पृष्ठ 13 व 14

नमक की गलत नीतियाँ

यहाँ पढें
नमक के दरोगा - दै. जनसत्ता, दिल्ली, ५ जून २०००

अर्थव्यवस्था का नमक - दै. जनसत्ता, दिल्ली, २ अक्टूबर २०००

एड्स का खौफ

एड्स का खौफ
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मिठाचे तत्वज्ञान, तंत्रज्ञान आणि अर्थकारण -- अंतर्नाद

मिठाचे अर्थकारण
अंतर्नाद ..... अंकात प्रकाशित
4-06-2000 – 28-06-2000

मिठाचे तत्वज्ञान, तंत्रज्ञान आणि अर्थकारण

         या शतकाची उपलब्धि काय अस विचारल तर खूप त-हेची उत्तर देता येतील. दोन महायुध्द याच शतकात झाली. माणसाने आकाशात आणि अवकाशात पाऊल ठेवल. विज्ञानाच्या क्षेत्रात आईनस्टाईनचा सापेक्षतावाद आणि परमाणु विज्ञान, संगणकाचे स्वागताई आगमन, जैव विज्ञानातील प्रगति असे कितीतरी टप्पे सांगता येतील. देशाच्या दृष्टीने पहिली पन्नास वर्ष स्वातंत्र्यासाठी लढाई, त्यानंतर मिळालेले स्वातंत्र्य आणि त्यानंतर देशात कृषि, औद्योगिक व विज्ञान क्षेत्रात झालेली प्रगति अशा ठळक बाबी नोंदवता येतील.
       मिठाचा सत्याग्रह ही देखील शतकातील एक ठळक बाब म्हणून नोंदवावी लागेल अस माझ मत आहे. महात्मा गांधीच्या रूपाने जगाला एक नवे तत्वज्ञान मिळाले-
अहिंसेचे तत्वज्ञान. सर्वसामान्य माणसाची लढाई, त्यातूनही गरीब माणसाची लढाई लढायची असेल तर त्याहीसाठी अहिंसेचे तत्वज्ञान वापरता येते याचा धडा गांधीजींनी घालून दिला. तो धडा साकार झाला याच देशाच्या भूमीत, इथल्या लोकांना संगति घेऊन त्या धड्यामधील मिठाचा सत्याग्रह ही अत्यंत महत्वाची पायरी . कारण समुद्राच पाणी एका छोट्या वाटीत उकळवून त्यातून चिमूटभर मीठ बाहेर काढण एका छोट्या घटनेत संपूर्ण विश्वाला आवाक्यांत घेणार तत्वज्ञान समावलेल होत.
     मीठ- प्रत्येक व्यक्तीला जेवणात थोडसच मीठ लागत- पण तेवढ मात्र शरीर पोषणासाठी अत्यावश्यक असत- मग ती व्यक्ती गरीब असो, श्रीमंत असो हे मीठ समुद्रपासून भरभरून मिळत- शेकडो, हजारो वर्षांपासून मिळत आलेल आहे आणि अत्यल्प किंमतीत मिळत आलेल आहे.
     पण १९३० मधे ब्रिटिश सरकारने अचानक निर्णय घेतला की मीठ तयार करण्यावर टॅक्स बसवायचा, त्यातून सरकारलामोठा रेव्हेन्यू मिळेल. किंवा ब्रिटनमधून आयात होऊन येणा-या मिठाची किंमत थोडी कमी ठेवली की  त्यातून ब्रिटिश मिठाचा खप वाढेल.
     या निर्णयाविरूध्द लढण्याचा निर्धर करतांना गांधीजींनीत्या मागे एक मोठ तत्वज्ञान उभ केल. सामान्य, किंबहुना गरीबातला गरीब माणूस हा त्या तत्वज्ञानाचा केंद्रबिंदु होता. जीवनाला अत्यावश्यक असणार मीठ त्या माणसाला परवडणा-या किंमतीतच मिळाल पाहिजे. सरकार कोणाचेही असेल, त्यांच्या इतर नीतींबद्दल कदाचित सहयोगाची भूमिका असेल, पण ज्या नीतीमुळे गरीब माणसाचे हाल वाढणार असतील, तिचा विरोध मी करणार असा त्यांचा निर्धार होता.
     आणि या विरोधाच तंत्रही असंत डुषारीते आखल होत- गाजावाजा करून, आपण समुद्रतटी जाऊन मीठ बनवणार अशी घोषणा करून त्यांनीसाबरमाती ते दांडी अशी पदयात्रा योजली. पदयात्रा सुरू झाली. आणि तिला वारकरी दिंडीचे
स्वरूप आले. गांधीजींनी स्वातंत्र्यल्यातील त्यांच्या सर्व कार्यक्रमांना धर्माचे अधिष्ठान आखून दिलेले होते. या बाबतीत त्यांना धर्म म्हणजे हिंदु, मुसलमान, शीख असे विशिष्ट कर्मकांड मानणारे धर्म अभिप्रेत नसून धर्माची जी दहा तत्वे सांगितली आहेत ती म्हणजेच- धृति, क्षमा, सत्य, अक्रोध, शौच, मनोनिग्रह, धी, अस्तेय, दमन (मनोविकारांचे) विद्या, ती अभिप्रेत होती. याही पैकी सत्य, अक्रोध आणि क्षमा यावर त्यांचा भर होता म्हणूनच संबंध चळवलीलाच त्यांनी सत्याग्रह हा शब्द वापरला. दांडी यात्रा २६ दिवस चालली. यापैकी प्रत्येक दिवसाचा कार्यक्रम आधीपासून आखलेला होता. मुक्कामाची जागा कोणती, किती पल्ला गाठायचा इत्यादि यात्रेत अपेक्षेप्रमाणेच लाखो लोक सामील झाले आणि सत्याग्रहातून सरकारच्या जुलमी नियमांना कसा विरोध करायचा याचे एक प्रात्यक्षिक लोकांना जायला मिळाले. दांडीयात्रेतही गांधीचे दोन कार्यक्रम चालू होते. ते म्हणजे चरखा कताई आणि संध्याकाळची प्रार्थना व त्यानंतर व्याख्यानातून
लोकांना मिठाच्या सत्याग्रहाची संकल्पना समजावून देणे. यामुळेच यात्रेत सामील झालेल्या लोकांना त्या चळवळी मागचे तत्वज्ञान नीट कळून आले. देशी परदेशी पत्रकारांनी ही घटना देशोदेशी पोचवली. यातून मिठाचा सत्याग्रह यशस्वी झाला नसता तर नवलच. समुद्रकिनारी गांधीजींच्या बरोबरीने कित्येक लोकांनी चिमूट चिमुट मूठ बनवले आणि सरकारला कांहीही न करता येऊन शेवटी टॅक्स मागे घ्यावा लागला. गरीबांचे मीठ महागले नाही. गरीबांच्या जीवनावश्यक वस्तू महाग होऊ देणार नाही या तत्वज्ञानासाठी ती लढाई होती. ती गांधींनी जिंकली.
     थोडस विषयांनंतर करून एका बाबीची दखल घेतली पाहिजे की कापड उद्योगाबाबत थोडे वेगळे तत्वज्ञान होते. ब्रिटिशांच्या कापड- गिरणीतून येणारे कापड केंव्हाही जास्त तलम, जास्त आकर्षक आणि तरीही स्वस्त असायचे.
त्यासाठी कच्चा माल म्हणजे कापूस भारतातून नला जायचा. मिल मालकाच्या तुलनेत उभा ठाकलेला गरीब उत्पादक म्हणजे भारतीय विणकर- जो देशभर गांवोगावी विखुरलेला होता. संपूर्णपणे विकेंद्रीत असा हा देशी कापड उद्योग होता. विणकराचा कपडा जो पुढे खादी या नावाने पुढे आला ते जाडाभरडा, अनाकर्षक , तरीही महाग असायचा. पण लक्षावधी विणकतचे पोट त्यावर भरत होते, त्यांच्या परिवारातील बुध्द अपंग किंवा विकल बाया- माणस, लहान- मुल पण त्या उत्पादनांत गुंतलेली होती. यांच्यापैकी कुणालाही दुस-या कोणत्याच उद्योगधंद्याचे किंवा व्यवसायचे प्रक्षिक्षण नव्हते. त्या गरीब उत्पादकासाठी गांधीजींनी खादीचा आग्रह धरला होता, असो.
     शाळा- कॉलेजच्याकाळात वाचून काढलेल हे तत्वज्ञान, एका वेगळ्या प्रकरणाने आठवणीतून पुनः वर आल. मुंबई, ठाण या परिसरात मोठी मिठागर आज शतकानुशतक बसलेली आहेत.त्यांच्या कित्येक पिढ्या तिथे काम करत जागल्या-
वाढल्या. भारताच्या तीन बाजूंनी समुद्र आहे आणि अशीच मिठागर कित्येक ठिकाणी आहेत. मुंबईमधे केंद्र सरकारची पण एक मोठी जागा मीठागरांसाठी आहे आणि त्यावरही अतिक्रमण होत असतात. या सर्व जागेला सोन्याची किंमत आहे, पण त्यासाठी आधी मीठ- कामगारांना बोहेर काढले पाहिजे. त्यांच्या मिठाच्या व्यवसायावर बंदी आणली पाहिजे- ते फक्त सरकारलाच शक्य आहे.
     दुसरीकडे कित्येक बहुराष्ट्रीय कंपन्या त्यांच “अधिक सफेद” मीठ भारतात विकू इच्छितात, त्याहीसाठी वंशानुवंश चालत आलेल्या मिठागरांवर बंदी आणायला हवी. या सगळ्यासाठी आयोडाइज्ड मिठाचे हूल झकास होती. ते बनवण्यासाठी बड्या बड्या भारतीय कंपन्या देखील उत्सुखहोत्या.
     राजीव गांधीच्या काळात हे नवे विचार वारे जोराने वाहू लागले आणि एक दिवस महराष्ट्र शासनाने मुंबईच्या कित्येक मिठागरांचा धंदा बंद करण्याचे ठरवले.
     त्या काळात मी आयोडिन युक्त मिठाबाबत माहिती मिळवत असता जे कळल ते फार चक्रावून टाकणार होत.
      आपल्या शरीर पोषणासाठी अत्यावश्यक जे कांही क्षार असतात त्यामधे सर्वांत मोठ्या प्रमाणात सोडियम कॅल्शियम, लोह, पोटॅशियम फॉस्फोरस हे होत. याखेरीज अत्यल्प प्रमाणात कांही क्षारांची गरज पडते त्यामधे आयोडिनचा समावेश होतो. सोडियमच्या तुलनेत लागणारे आयोडिन एक दशलक्षांशापेक्षाही कमी असते. एवढे आयोडिन शरीरातील थायरॉयड ग्रंथिंच्या कामासाठी आवश्यक असते. शरीरात आयोडिनची कमतरल झाल्यास गॉयटर सारखे रोग- विशेषकरून लहान मुलांना होतात- त्यांत त्यांची शारिरीक व मानसिक वाढ खुंरते. या रोगांबाबत डॉक्टरांनी बरचस संशोधन आपल्या देशांतकेलेल आहे, व देशात कुठे कुठे या रोगांच प्रमाण बहुत आहे ती आकडेवारी शासनाकडे उपल्ब्ध असणार.
     आयोडिनला दुसरी बाजूपण आहे. गरजेपेक्षा जास्त आयोडिन खाल्ल गेल तर कांही वेगळ्या प्रकारचे
रोग होतात- त्यांच्याबदल्ही परदेशी वैद्यकशास्त्रज्ञांनी बरच संशोधन काठ आहे. आपल्याकडे विशेष कुणी केलेल नाही.
     एक कळीचा मुद्दा इथे आहे. शरीराला लागणार- अत्यल्प का होईना आयोडिन कुठून मिळत? किंबहुना जगात इतरही कामासाठी, औषधांसाठी वापरल जाणार आयोडिन कुठून येत? तर समुद्रच्या पाण्यातून. त्यासाठी समुद्रपाणी वापरून आयोडिन निर्माण करणारे मोठे मोठे कारखाने जगभर आहेत.
     शरीराला अत्यल्प प्रमाणात लागणा-या आयोडिनसाठी मात्र या कारखान्यांची गरज नाही. मिठागरांत समुद्री पाण्यापासून जे मीठ तयार केले जाते, त्यामधे शरीराच्या गरजेपुरत आयोडिन आपसूकच समावलेल असत. त्यामुळे सर्वसाधारणपणे समुद्रपाण्यापासून केलेल्या मिठाने आपल्या शरीराची गरज भागते. म्हणूनच गेली शतकानुशतक गॉयटर सारखे आजार मोठ्या प्रमाणावर समुद्र किना-यावरील लोकांना भोवले अस चित्र दिसत नाही.
    आपल्या देशात खपणार सगळच मीठ समुद्री पाण्यापासून बनत नाही. पहाडी मीठ किंवा पोदेलोण हे अरावली, विन्ध्य, या सारख्या डोंगरातून मिळणा-या खनिजातून तयार केल जात. त्यामधे आयोडिन नसत, पण शरीराला अल्प प्रमाणात लागणारे दुसरे अत्यावश्यक धातु. उदा. सल्फर, फॉस्फोरस इत्यादि त्यातून मिळतात. म्हणूनच आपल्या खास खास पदार्थ पादेलोण, सैंधव. इत्यादि वापरण्याची पध्दत आहे. ज्यांच्या खाण्यांत पहाडी मीठ जास्त आणि समुद्री मीठ कमी, त्यांच्या शरीरींत आयोडिन डेफिशियन्सि निर्माणहोण्याची शक्यता असते.
     अजून एक कळीचा मुद्दा आहे. नैसर्गिक समुद्री मिठात अत्यल्प प्रमाणात आयोडिन असत तसच शरीराला अत्यल्प प्रमाणात लागणारे इतरही बरेच क्षार असतात- उदाहरणार्थ मँगनीज, मॅगनेशियम इत्यादि.
     पण आयोडिन युक्त मीठ बनवणा-या फॅक्ट-यांमधे कांय करतात? आधी
समुद्री पाण्याच मीठ बनवतात मग त्याचे विजेच्या प्रवाहाने शुध्दीकरण करतात त्यामुळे सोडियम खेरीज सगळे क्षार त्यातून बाहेर फेकले जातात. या प्रक्रियेमुळे आयोडिन तसेच इतर सर्व अल्प व अत्यल्प प्रमाणातले क्षार बाहेर टाकले जातात. मग त्याच्यात एका वेगळ्याकर्मकांडाच्या (म्हणजे प्रोसेसिंगच्या) मार्फत पुनः तोलून मापून “योग्य” प्रमाणात आयोडिन मिसळतात.
     म्हणजे आधी नैसर्गिक आयोडिन काढा, मग ते मोजून मापून पुनः मिसळा- या सर्वाचा खर्च ग्राहकावर - कंपनीच्या नफ्यासहित. या नवीन मिठातून इतर आवश्यक धातु काढून टाकल्यामुळे त्यांच्या डेफिशियन्सि मुळे जे रोग होतील त्यांच्यासाठी डॉक्टरच्या प्रिस्क्रिप्शन प्रमाणे औषध खायची ग्राहकाने त्यामुळे धंदा वाढणार डॉक्टरचा आणि ती औषधे बनवणा-या कंपन्यांचा शिवाय मोजून- मापून टाकायचे डोस किती हे कुणी ठरवलेल? पाश्र्चिमात्य देशातील
रिसर्च्या आधारे- तिथले वातावरण, तिथल्या चालीरीती, तिथला निसर्ग, यांच्या आधाराने त्यांनायोग्य असे डोसेज ठरवले जातात.ते आपल्याला लागू पडतातच असे नाही हे नुकत्याच गाजलेल्या डॉ. अभय बंग यांच्या “माझा साक्षात्कारी हृद्रोग या पुस्तकातून अतिशय प्रभावीपणे मांडलेले आहे- आणि त्याच्या मागे त्यांचा स्वतःचा जीवावर वेतवेवा अनुभव आहे.
     ही सर्व माहिती ग्राहकाला, मीठ खाणा-या गरीब ग्राहकाला उपलब्ध कोण करून देणार? आयोडिन युक्त मीठ बनवणा-या कंपन्या की डॉक्टर्स  व त्यांच्या असोसिएशन्स की सरकार? कुणीही नाही.
    कंपन्यातून वृत्रित रीत्या आयोडिन मिसळलेल्या मिठाच शेल्फ लाइफ सुमारे तीन महिने असत- म्हणजेच जे आयोडिन शरीराला मिळायला हव, त्यासाठी साठवून ठेवलेल्या मिठाचा उपयोग नाही- आपल्या कडे तर वर्षभर साठवणीच्या कित्येक पदार्थांमधे- पापड, लोणची, जाम, केचप, चिंच इत्यादि मधे मीठ
घालतात- पण त्यातल आयोडिन उडूनच जाणार असेल तर पूर्वीच मीठ का नको?
    मीठ आणि आदिवासी क्षेत्रांच एक वेगळ नात आहे. आदिवासी माणूस जंगलात रहातो- तिथलीच कंदमुळ, औषध, घरासाठी बांबू इत्यादिवर जगाकडून त्याला दोन गोष्टी लागतात- मीठ आणि कापड. एक किलो चारोळ्या- किंवा १ किलो हिरडा, किंवा कात, किंवा करवंद, याही प्रकाराने पंधरा - वीस वर्षा पूर्वीचे आदिवासींचे व्यवहार चालत यावरून त्यांच्या शोषणाची कल्पना येते. या व्यवहाराला खरेदी- विक्री म्हणण्याला मी तयार नाही. या आदिवासी क्षेत्रांमधेच आयोडिन डेफिशियन्सिचे रोग जास्त प्रमाणात आढळतात. तर मग याचे स्टॅटिस्टिक्स इत्यादि बघून त्याच भागांत रेशन कार्डावर स्वस्त दरांत आयोडिन युक्त मीठ मिळण्याची व्यवस्था करता येणार नाही का? त्याही आधी त्यांचे रोग हे मिठात आयोडिन कमी असल्यामुळे झाले की मुळात शरीराला लागणारे मीठच हव्या त्या प्रमाणात न
मिळाल्यामुळे झाले याचा अभ्यास कुणी केला आहे कां?
     हे सगळ एकेडमिक डिस्कशन च्या पातळीवर होत तोपर्यंत ठीक होत पण अचानक सरकारने सामान्य मिठावर बंदी घातली आणि आयोडिनयुक्त मीठच सगळ्यांनी खाल्ल पाहिजे तेच विकत घेतल पाहिजे- त्यासाठी जास्त पैसे मोजले पाहिजेत याची सली केली. जे मीठ पन्नास पैसे किलो मिळत होत त्यासाठी १०, १५ रूपये मोजावे लागले. तर फॅक्टरीत आयोडिन बनवणा-यांची धन झाली. या सगळ्यांत गरीब गरीब माणसाचा किंवा सामान्य ग्राहकाच्या राईट टू इन्फॉर्मेशन कुठे गेला? हजारो मीठ कामगार बेरोजगार झाले- त्यांची दुसरी, युवक पीढी गुन्हेगारीकडे वळते हे ही आपण विसरलो.
      माझ्या पुरता मी हाच नियम केला की टीव्हीवर “अधिक सफेद नमक, हाथों में न चिपकनेवाला नमक, स्वाद वाला नमक” अस कितीही गुणगान केल तरी आपण मिळेल तिथून पूर्वीसारख खडे मीठच घ्यायच. यात मला अजून एक उलगडा झाला की नवीन आयोडिनयुक्त बारीक मिठात
खारटपणा कमी असतो- म्हणजे महागही घ्या आणि जास्त वापरा- म्हणजे फॅक्टरींची खपत  जास्त. त्यातून पन्नास पैसे किलोच्या भावाने मिळणा-या खडे मिठात कोण कांय मीसळ करणार? पण पंधरा रूपये किलोच्या भावाने विकल्या जाणा-या मिठात भेसळ करायचा मोह कुणाला होत असेल तर भेसळ प्रतिबंधक मंत्रालय किंवा कायदे त्याला किती पुरे पडणार?
     इथे बाजाराच्या खुलेपणाची थोडी चर्चा अप्रस्तुत होणार नाही. गेल्या पन्नास वर्षात खूप ढोल पिटले गेले की देशात लायसेन्स परमिट कोट्याच रान्य आहे- ते जाऊन खुली अर्थव्यवस्था आली पाहिजे. हे झाल तरच उद्योजकांची उत्पादनशीलता वाढेल. त्यांच्या प्रतिभेला पंख फुटतील वगैरे. मात्र प्रत्येक उद्योजक आपापल्या उत्पादनाचा किंवा क्षमतेचा विचार करून आंशिक आरक्षणाची मागणी करत असतोच. ग्रामोद्योग, लघुउद्योग, मध्यम उद्योग, हे तर मोठ्या उद्योगधंद्यांच्या तुलनेत आपल्यासाठी आरक्षणाची मागणीकरतातच. पर मोठे किंवा विशाल उद्दोग सुध्दा आयात बंदीची मागणी करतात. थोडक्यांत प्रत्येकाला अस औद्योगिक आरक्षण हव असत जे त्याच्यासाठी होणारी स्पर्धा थांबवू शकेल आणि अस आरक्षण नको असत ज्यामुळे त्याची संधि अडवली किंवा डावल्ली जाईल.मात्र जशी सामाजिक आरक्षणाची खुली चर्चा हजारो कारणांनी होत राहिली तशी औद्योगिक आरक्षणाची झाली नाही- ती नेहमी पडद्याआडच राहिली.
     पण विदेशी लोकांची नजर इथल्या बाजारपेठेवर पडली आणि चित्र पालटल. खुल्या अर्थव्यवस्थेचे वारे वाहू लागले. जागतिक बँक आणि आंतर्राष्ट्रीय मद्रा कोणाचा दबाव येऊ लागला की लायसेन्स, कोटा, परमिट राज बंद करा. आयातीवरील निर्बंध काढा. अर्थव्यवस्था खुली करा. अशी फटकन खुली करा की आता अगदी थेट अंतराळापर्यंत कुठेही दरवाजे, खिडक्या अडसर दिसता कामा नयेत. ज्यांना आपापल अन्न- धान्य, फास्ट फूड , औषध, मासे, बी. बियाण, खत, लोखंड, पापड इत्यादि कांहीही भारतात विकायच असेल त्यांना परवानगी द्या. ज्यांना टोळ नाक्यांची वसूली, धरणांचे प्रशासन ताब्यात घेऊन त्या पाणीपहीची वसूली, जकात वसूली इत्यादी कांहीही वसूली करायची असेल त्यांनी सरकारी ठेका घ्या आणि करा - कारण अर्थव्यवस्था खुली झाली पाहिजे.
     मात्र या खुलेपणांत एक कारजी घ्यायलाच हवी-  खुलेपणा हा असेल फक्त उत्पादकासाठी- गि-हाइकासाठी नाही. ग्राहकावर, निर्बंध लावले जातील- कारण असे निर्बंध असतील तरच उत्पादकाला त्याचा माल खपण्याची गॅरंटी असेल.
     निर्बंधलावण्यासाठी सरकारी ताकत वापरता येईल. निर्बंध खुलेआम असतील किंवा आडवळणाने, सबबीखातीर लावले जातील. यातील एक चांगली सबब असेल सरकारी अकार्यक्षमतची- जी गेली पन्नास वर्षापासून वाढत गेलेली आहे आणि पुढेही वाढतच जाणार आहे- कारण त्यामधेच सबबी सापडणार आहेत.
     मिठाच उदाहरण घेऊ या. आज हजारो वर्ष भारतात समुद्री मीठ आणि
पहाडी मीठ वापरल जात आहे- ते अतिशय कमी किंमतील उपलब्ध होत आलेलआहे.
     पण मीठ खाणारा उपभोक्ताकोण आहे? सुमारे वीस टक्के अतिधनवान आणि ऐंशी टक्के गरीब आणि अति गरीबांपर्यंत सर्वच. त्यापैकी वीस टक्के वाल्यांना मिठाची किंमत वाढल्याने कांही फरक पडत नाही. ज्या ऐंशी मंडळींना फरक पडतो, त्यांना क्षुद्र उपभोक्ताला म्हणता येईल. त्यांना अजून “अधिक सफेद मीठ” खाण्याची धन्यता समजलेली नाही कांय? हे झाले उपभोक्त्यांच आणि उत्पादकांच तिथेही हजारो क्षुद्र नमक उत्पादकांच्या तुलनेत त्या “अति विशिष्ट” उत्पादकांच पारड जड आहे. तेही बनवणार मीठच- पण त्यामधे भरपूर साज- सज्जा असेल, आणि त्यांतून प्राकृतिक आयोडिन व इतरशरीरावश्यक धातु काढून टाकलेले असतील- त्यानंतर कर्मकाण्ड (इथे प्रोसेसिंग या अर्थाने) पार पाडून त्याची किंमत वाढवली जाईल. मग उपभोक्तयाला सांगण्यात येईल- खायच! कांय? खात
नाहीत? तर मग अरे बाबा सरकार, कुठे आहेस? यांना भाग पाड बर- आमच मीठ खायला! सक्तीसाठी कांही तरी जस्टिफिकेशन पाहिजे कां? तर भाग काढा सरकारी फाईली आणि लिहा त्यावर आयोडिन डेफिशंसीने होणा-यासर्व रोगांची आकडेवारी मात्र निवडीचा अधिकार उपभोक्त्याला देऊ नका- तो म्हणेल की मला या आजारांची पर्वा नाही- मला तेच जुन, स्वस्त, प्रकृतिक मीठ खायचय! तर हा अधिकार त्याला देऊ नका. खुल अर्थव्यवस्था उत्पादकांसाठी आहे- त्यांना हव ते निर्माण करायची मुभा असली पाहिजे- स्वतःच बर वाईट कांय, फायदा- तोटा कशांत, किती हे ठरवायचा हक्क उत्पादकाला हवा- सरकारला नको. मात्र त्याचे उत्पादन घ्यायचे की नाही या निवडीचा खुलेपणा ग्राहकाला देऊन कस चालेल?
ग्राहक अज्ञानी अशिक्षित आहे- एरवी सुशिक्षित दिसत असला तरी आरोग्य रक्षणाबाबत अनभिज्ञ आहे- त्याला स्वतःच्या आरोग्याच हित- अहित कळत नाही त्याच्यावर सल्ली करा- त्याने साध मीठ खाता कामा नये- त्यान आयोडिन युक्त मीठच
खाल्ल पाहिजे- त्याला साध मीठ मिळूच देऊ नका- त्या साध्या मिठावर बंदी घाला. त्याचा अधिकार सरकारला असावा व तो सरकारने वापरावा.
     गरज असेल तर सरकारी फाइलींमधे असही कबूल करून टाका की आयोडिन युक्त मिठाबाबत सरकारच आरोग्य खात लोकांच प्रबोधन करू शकत नाही- त्यांना सज्ञान करून निवडीचा अधिकार त्यांच्यावर सोपवण सरकारला शक्य नाही- त्यामुळे त्यांच्यावर सत्ली करण भाग आहे. मात्र ज्यादा आयोडिन खाल्ल्याने कांय दुष्परिणाम होतात. ते सरकारी फाईलींवर लिहू नका. ज्या भागांत आयोडिन डेफिशंसीचे रोग झालेले नाहीत त्या भागांची माहिती पण देऊ नका- आणि सामान्य ग्राहकाला हे पण सांगू नका की प्राकृतिक मिठात प्राकृतिला रीतीनेच आयोडिन उतरलेल असत! कारण फाईल वर हे सगळ सांगितला तर आयोडिन मिठाची सत्ली करण्याच जस्टिफिकेशन उरणार नाही.
     सरकारच आरोग्य- खात सक्षम नाही- लोकांचं आरोग्यबाबत प्रबोधन करू शकत नाही. पण सरकारच अन्न व औषधी खात सक्षम आहे- ते आयोडिन युक्त मिठाची सत्ली करू शकत- सगळ्या ग्राहकांना तेच खायला भाग पाडू शकत- मग भले ते महाग असेल, आणि भले ते खाल्ल्याने ग्राहकाला पुढे मागे अवांछित रोग होतील.
     अशा प्रकारे खुल्या अर्थव्यवस्थेचा अर्थ फक्त उत्पादकासाठी खुली नीती आणिग्राहकासाठी सत्ली असा असून कांय उपयोग? सरकारने टाकाव सर्व ग्राहकांना की साध्या मिठातही प्राकृतिक आयोडिन असत आणि तरीही ते स्वस्त असत. हे ही सांगून ठेवाव की तरीही क्वचित कांही व्याक्तिंना आयोडिन डेफिशंसीचे रोग होऊ शकतात- त्यांनी विशेष डोसेज घ्यावेत. सरकारने हे ही सांगाव की गेल्या पंधरा वर्षाच्या आकडेवारी प्रमाणे कुठे कुठल्या भौगोलिक क्षेत्रात, कुठल्या वयोगटाच्या आणि आर्थिक गटाच्या लोकांना हे रोग झाले आणि त्यांना स्वस्त दरांत मीठ पुरवणे- विशेषतः रोशन कार्डावर मीठ पुरवणे शक्य होते-
तरी सरकारने ते केलेले नाही- आणि मग बघाव की निवड- स्वातंत्र्य असलेले मतदार कोणत्या मिठाकडे वळतात. पण त्या ऐवजी लोकांवर सत्ली करण्याचा मार्ग निश्चितच खुलेपणाचे पोवाडे गाणा-यांसाठी नाही.
     सुदैवाने “पुनः एकदा दांडियात्रा काढू” अशी तयारी कांही जणांनी चालविल्यानंतर केंद्र सरकारने नुकतीच साध्या मिठावरील बंदी उठवली. पण लगेचच दिल्लीत पेव फुटला आहे- सेमिनार्स, वर्कशाप्स,  स्टूडण्ड रॅलीज, आय एम ए मधील तज्ज्ञ डॉक्टर इत्यादिंच्या सहाय्याने आयोडिन मिठाचे गोडवे गायले जात आहेत पण प्राकृतिक मिठाच्या उपयुक्तेबाबत कोणताच मतप्रवाह मांडला जात नाही की कोणताच पेपरही लिहिला जात नाही. अफाट साज- सज्जा, ढोल तुतारी इत्यादिच्या नादांत आयोडिन मीठ चांगले असा घोष केला तर आयोडिन मीठाची सत्ली जस्टिफाइड ठरते असे सरकारी धोरण आहे. आज कदाचित मिठाच्या बाबतीत उपभोक्त्यावरील सत्ली मागे
घ्यावी लागेल पण उद्या इतर उत्पादनांच्या बाबत ही चाल यशस्वी ठरेल. जशी ती एन्रॉनच्या बिजेबाबत झाली. स्वातंत्र्यापासून आतापर्यंत देशातील इच्छुकवीज उत्पादकांना वीज उत्पादनाची परवानगी दिली- जे लहान, मोठ्यस्केल वर वीज उत्पादनाची परवानगी दिली नाही- जे लहान, मोठ्या स्केल वर वीज- उत्पादक घडले असते, त्यांना घडू दिल नाही- अगदी एन्रॉनच्या उभारणीच्या परवानगी दिली नाही- आणि आता सरकारी वीज उपलब्ध नाही म्हणून एन्रॉनची वीज वाटेल त्या भावाला सरकारच जनतेला विकणार. हे कदाचित अगदी टोकाच उदाहरण झाल- पण अशीच उदाहरण घडत रहाणार. अर्थव्यवस्थेतील खुलेपणा हा पैलू देखील तपासून बघितला पाहिजे.

माझीहीप्रतिक्रिया

     मार्चच्या अंकातील “मिठाचे तत्वज्ञान, तंत्रज्ञान आणि अर्थव्यवस्था” या माझ्या लेखावर श्री शामराव ओक आणि डॉ. श्रीरंग
गोडबोले यांनी अभ्यासपूर्ण प्रतिक्रिया दिल्या आहेत त्याबद्दल एक अभ्यासक आणि एक वाचक म्हणूनही मी आभारी आहे. माझ्या लेखाचे शीर्षकच सांगून जाते की त्यांत वेगवेगळ्या काळातील घटनांची आणि सामाजिक प्रश्नांची सांगड घातली आहे. पण माझ्या मते त्यातला तात्विक मुद्दा सर्वांत महत्वाचा आहे- तो म्हणजे पुरेशी माहिती मिळण्याचा माझा अधिकार आहे की नाही? माझ्यासाठी योग्य वाटेल तो निर्णय मीच घ्यावा याचे स्वातंत्र्य मला आहे की नाही? त्या स्वातंत्र्यावर जेंव्हा निर्बंध घातले गेले/ जातात तेंव्हा त्या निर्बधांचे परिमार्जन कसे केले गले/ जाते? इथे मांडलेले शेवटचे दोन मुद्दे ब-याच अंशी पहिल्या मुद्यावर अवलंबून आहेत आणि हवी ती माहिती सरकार किंवा तज्ज्ञ मंडळी देत नाहीत- कित्येकदा त्यांच्याकडे माहिती नसते आणि एका सत्यार्थी वैज्ञानिकाच्याऊर्मीने अभ्यास केलेला नसतो आणिमाहिती मिळवलेली नसते. उदाहरण माझ्या
लेखात आलेला आहेच. डोंगराळ व आदिवासी भागात गॉयटरचे प्रमाण अधिक आहे असे आपल्या तजज्ञांनी सांगितले. छान! आता माझा (एका जिज्ञासूचा) पुढचा प्रश्न हा की या भागातल्या लोकांना जेवणात पुरेस मीठच मिळत नाही, तेंव्हा त्यांचे होत असलेले आजार मिठाच्या कमतरतेमुळे आहेत की आयोडिनच्या? शिवाय त्यांना पुरेस सकस अन्नच मिळत नाही ही देखील वस्तुस्थिती आहे. मग होणारे आजार कुणाच्या कमतरतेमुळे आहेत- अन्नाच्या की मिठाच्या की आयोडिनच्या? या प्रश्नाच उत्तर एका शोधकानेच अभ्यास करून दिल पाहिजे. असे स्पेसिफिक संशोधन आपल्याकडे झालेले नाही- असले तर त्याची विस्तृत चर्चा सर्व सामान्य माणसापुढे झालेली नाही. अशी चर्चा व्हावी, किंवा असे शोध- अभ्यास हाती घेतले जावेत असे आवर्जून सांगण्याचा सामान्य माणसाचा अधिकार आहे की नाही?
     शिवाय जर देशभरांत गॉयटर किंवा आयोडिन डेफिशियन्सि ने होणारे रोग कुठे कुठे होतात ते
माहित असेल तर तिथल्या लोकांना मोठ्या प्रमाणात आयोडिनयुक्त मीठ कमी किंमतीत मिळवून देणे हा उपायचांगला की सर्वांवर आयोडाइज्ड मिठाची सत्ली करणे हा उपाय चांगला? शिवाय ती सत्ली जर मोठमोठ्या कारखानदारांचे नफायुक्त मीठखपावे या अंतःस्थ हेतूने केले असेल तर कांय? किंवा भारत सरकारची आणि कांही गांवातील मिठागाराखालची सामाईक जमीन विकता यावी म्हणून केली असेल तर कांय? आणि सरकारी जमीन विकतांना ती लिलाव करून, येणा-या मोठमोठ्या रकमा सरकारी तिजोरीत भरण्याऐवजी टेबलाखालूनच्या व्यवहारात देवाण घेवाणी साठी वापरली जाणार असेल तर कांय? या तात्विक मुद्यांवर माहिती मिळण्याचा सामान्य माणसाचा हक्क आहे की नाही?
     इंडोनेशिया, मालदीव या बेटावरील लोकांनाआयोडिन डेफिशियंन्सी असेल आणि आपल्या देशातल्या हजारो किलोमीटर्स लांबलचक पसरलेल्या समुद्रतटावरील लोकांना ती नसेल तर आपल्या व त्यांच्या खाद्य पदार्थांत, खाद्यान्न प्रक्रियेत कांय फरक आहे त्याचा शोध घ्यायची गरज आहे. तसा कांही शोध आपल्या देशातील मोठमोठ्या शोधक संस्थांनी हाती घेतला आहे कांय याची माहिती आज सामान्य माणसाला नाही.
      डॉ. गोडबोले यांच्या कांही प्रतिक्रिया संपूर्ण परिच्छेद लक्षांत न घेता एकेका वाक्यावर बोट ठेऊन केल्या आहेत, व कांही वाक्य माझी नसतांना स्वतःच ती माझी म्हणून घातली आहेत. उदाहरणार्थ बेकारी!  “मीठ आयोडिनयुक्त केल्याने बेकारी वाढते” हे माझ्या लेखात कुठेचनाही. संगणकाने देखील बेकारी वाढेल म्हणून संगणक वापरूच नये कां? जरूर वापरावा- तो अटळच आहे. कारखानदारीही वाढवावी- त्यातले मॉडर्नायझेशनही वाढवावे- तेही अटळच आहेत. पण हे करतांना सामान्य माणसाची किंवा कारखानदारांची नसली तरी सरकारची एक जबाबदारी असते- ती म्हणजे किती माणसबेकार होणार, त्यांना तसेच बेकार राहू द्यावे कांय? त्यांना पर्याय कांय द्यायचा? सरकारने जबाबदारी टाळली तर दुसरी पिढी गुन्हेगारी कडे वळते- त्याचा सगळ्यांत जास्त त्रास सर्वसामान्य माणूस म्हणून मलाच होणार असतो. मिठागारातील लोकांना बेकार होण्याची पाळी येईल असे धोरण राबवतांना सरकार म्हणून याचा विचार व्हायला पाहिजे तो झाला की नाही हा प्रश्न विचारण्याचा हक्क सामान्य माणसाला हवा की नाही?
     आता आयोडिन युक्त मिठाच्या महाग- स्वस्त पणाबद्दल व जाड- बारीक पणा बद्दल. पहिली गोष्ट म्हणजे सामान्य मीठही आयोडिनयुक्तच असते, त्याच्यासमुद्रातील आयोडिन नैसर्गिक रीत्या आलेले असते- ते खूप कमी असते पण ते पुरते हेच भारतातील शेकडो वर्षांच्या वापराने दिसून आले आहे.कारखान्यात प्रक्रिया केलेले मीठही ज्यादा आयोडिनयुक्त असेल, खडे मिठाच्या स्वरूपात असेल, स्वस्त असेल, आणि त्यावर “हे प्रक्रिया केलेले मीठ आहे” असे स्पष्ट लिहिले असेल
तर ग्राहकाच्या स्वातंत्र्याचा मान राखला जाईल आणि सरकारवर कोणत्याही सत्लीची पाळीच येणार नाही. बारीक आणि खडे मिठाची तुलना मी माझ्या सोईसाठी केलेली आहे- बारीक मिठातील भेसळ मी कशी ओळखायची? खडे मिठात दुकानदाराने भेसळ करण्याचे चान्स कमी- म्हणून मी खडे मीठ घेणार!  बारीक मीठ- पण दुकानदार भेसळ करू शकणार नाही अशा पॅकबंद स्वरूपात हवे असेल तर मला किलोला दहा रूपये मोजावे लागतात- खडे मीठ१ रूपया किलोत मिळून शिवाय त्यांत भेसळीची शक्यता कमी असते- हा विचार ज्यांना पटेल, तेही हेच करतील. शिवाय आतापर्यंत खडे मिठाच्या कोणत्याही स्वस्त पाकिटावर “हे प्रक्रिया केलेले मीठ आहे,” असे लिहिलेले मला दिसले नाही. ते असले पाहिजे.
       मुख्य प्रश्न - पुन्हा तात्विकच- “खुली अर्थव्यवस्था” हवी म्हणतांना कुणासाठी खुली आणि कुणासाठी बंद हे विचारले गेलेच पाहिजे. सरकारने कारखानदारांचे स्वातंत्र्य जपावे- हवे त्याला हवे तेवढे
आयोडिन मीठ बनवू द्यावे. पण ग्राहकाचे स्वातंत्र्य  हिरावू नये- त्याऐवजी त्याला माहिती द्यावी. ही न देण्याची तीन कारणे सांगितली जातात- एक- देशातील जनता अज्ञानी आहे- तिला माहिती कशी देणार? त्याऐवजी सत्ली करा. दोन- सरकारी यंत्रणा आर्यक्षम आहे- तिलादेशातली अशिक्षित संपवता येत नाही, तसेच सगळ्या फाईलींमधे नीट माहिती साठवून लोकांना देताही येत नाही- म्हणून ग्राहकाचे स्वातंत्र्य रोखा.तीन- देशातल्या शोध संस्थांनी अजून पूर्ण शोध घेतलेले नाहीत- (उदा. आदिवासींमधील रोगाचे मूळ कारण कांय- अन्नाची कमी, मिठाची कमी की आयोडिनची कमी?- म्हणून संपूर्ण देशातील ग्राहकांचे स्वातंत्र्य रोखा!
     “राजीव गांधीच्या काळात नवे विचारवारे (म्हणजे खुल्या अर्थव्यवस्थेचे) वाहू लागले. यावर कुणाचेच दुमत नसेल. “सरकारने अचानक सामान्य मिठावर बंदी घातली”- या मधील  “अचानक” शब्दावर गोडबोले यांचा रोख आहे. मी त्याला अजूनही अचानकच म्हणीन. १९५५ पासून १९८३ पर्यंतची तज्ज्ञ समितीची वाटचाल फक्त तज्ज्ञ मंडळींनाच ठाऊक होती आणि आयोडाइज्ड मिठाचे सार्वित्रिकी करणकरणे हिच शिफारस होती- सत्ली करणे ही शिफारस नव्हती. सरकारने आयोडाइज्ड मीठ सर्वत्र विकिस असेल असे पहावे- त्याला कुणाचीचहरकत नसेल. सत्लीची घोषणा मात्र कुठेच चर्चेत नसतांना अचानकच साली आणि तिने फक्त तज्ज्ञ समितीलाच नाही तर देशभरातील ग्राहकांना कवेत घेतले- त्यांना कांही न सांगता!
     “मेहेंदळेबाई निर्धाराने खात असलेलेखडे मीठ जादा आयोडिनयुक्त असण्याची शक्यताच जास्त!” थेंक्यू! पण जर मला जादा आयोडिनयुक्त मीठ खायचेनसेल तर मला मीठ विकणा-या कारखानदाराने आणि दुकानदाराने मला ही माहिती सांगितलीच पाहिजे हा माझा हक्क गोडबोले मान्य करतात कां? सर्वात आधी गोडबोले यांनी गरजेपेक्षा जास्त आयोडिन- त ही सातत्याने- खाल्ले गेले तर कांय कांय रोग होतात याबद्दलएक विस्तृत लेख लिहावा- तो अंतर्नादने छापावा! शरीर १००० मायक्रोग्रॅम पर्यंत आयोडिन सहन करु शकते- किती दीर्घ काळ पर्यंत? तसेच हे मानक अमेरिकन माणसावर हुकुम अमेरिकन शोधसंस्थांनी तयार केले, ते भारतात तसेच्या तसे लागू करावे का? (संदर्भ डॉ. अभय बंग यांचे हृद्रोगाच्या मानकांवरचे भाष्य!) कारखान्यातील प्रक्रियेमधे जे इतर ट्रेस मिनरल्स निघून जातात त्यांच्या न्यूनत्वाने कांय कांय रोग होतात? तसेच ओक यांच्या पत्रातील माहितीप्रमाणे गि-हाईकाकडे पीचलेले मीठ कमी प्रतीचेचहोते ते कसे आणि त्यासाठी त्याने १०रू. हा भाव मोजावा कांय? ही सर्व तंत्रज्ञानात्मक माहिती देतांना तंत्रज्ञानाच्या, किंवा सामाजिक किंवा आर्थिक, किंवा तात्विक बाजूने बघत असतांना तिचा संबंध राजेंद्रबाबूंनी भूकंपात केलेल्या कामाबरोबर जुळत असेल, तर लेखात तसा उल्लेख अवश्य करावा! आमेन!

























































































स्त्री भ्रूणहत्या आणी आपण

स्त्री भ्रूणहत्या आणी आपण

निरोगी शरीर

निरोगी शरीर

---------1---------- 
आपले हात, पाय,
डोळे, कान, नाक,
छाती, पीट, पाठ,
डोकं,
असे सगळे अवयव मिळून आपल शरीर बनतं
आपली सगळी काम शरीर करतं.
पण तेच आजारी झालं तर काम कोण करणार?
शरीर निरोगी रहाव यासाठी काय बरं करावं?

----------------------------------------------------------
 --------------2--------------------
साफ सफाई

शरीर निरोगी रहाव यासाठी साफसफाई हवी.
शरीराची साफ सफाई हवी.
घराची साफ सफाई हवी.
धराबाहेर अंगणाची साफसफाई हवी.
गांवाची पण सफाई हवी.
आपण जिथे पाणी भरतो आणि जे
पाणी पितो तिथे पण सफाई हवी.
तलाव, विहिरी, पंप, कुठेही गाळ
नसावा, घाण नसावी, डबकी नसावीत.
-------------3 --------------------
       भेसळ
आपण भाजीपाला खातो.
डाळ-तांदूळ, गहू, जवारी, बाजरी,
नाचणी, वरई, खातो.
तेल-तूप, दूध खातो. गूळ-साखर खातो.
हे साफ असते कां?
यांत भेसळ नसते नां?
हे पहायला हवं. भेसळ कशी
ओळखायची ते शिकायला हवं.
-----------------------4--------------------
                          शरीर-सफाई
    सकाळी उठून सफाई ला सुरवात करावी. शौच करावे, दांत घासावे, डोळे धुवावे, स्नान करावे. नखं, केस, कापून लहान ठेवावे. फार मोठे ठेऊ नयेत. कपडे नेहमी धुवावे. सावण नसला तरी चालतो पण कपडे धुवायला हवेत तसेच, गादी, चादर, उशी, कांबळं मधून मधून हवा-उजेडांत आणून टाकावी तर ती साफ रहातात.
३.  गुरांचा गोठा, उकिरडे गटारे साफ ठेवावीत. घाण साचत असेल ती उचलून टाकावी. पाणी साचत असेल तर शोष-रवड्डा करावा किंवा मोठी झाडं लावावी. यासाठी शेवगा फार चांगला.
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 आजार
    बहुतेक सगळे आजार पोटामुळे होतात. कुणाला पोटाला पुरेसं खायला मिळत नाही. ताकत हळू हळू कमी होते. याचंच नांव कुपोषण. कुपोषण आल की मग कोणतातरी आजार येतो. हे बाहेरून येणारे आजार जंतूमुळे होतात. जंतू शरीरांत शिरून माणसाला आजारी करतात. पण माणसाला आधी पुरेसं खायला मिळालेल नसत हेच खरं कारण. ताकत संपली कि जंतू वरचढ होतात आणी आजारपण आणतात. लहान मुलांना कुपोषण लवकर होते. विशेष करून आदिवासी भागात. मग मुलं आजारी पडतात. त्यांना उलटी, हगवण, गलेरिया असे आजार होतात. कुणाचे पोट फुगून मोठे होते. खूप ताप येतो. अशा वेळी सरकारी दवाखाना बंद असेल, तिथे डाकटर नसेल, औषध नसेल तर कांय करायचे?
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 कुपोषण
   आई गरोदर असतांना, बाळ पोटांत असतांना नर्स बाई येते आणी औषध देते. ते विटामिन औषध असतं. दुसर एक लोखंडाच औषध असतें. यामुळे बाळाचे डोळे चांगले रहातात आणी कुपोषण होत नाही. औषध मिळाल नाही तर आईने रोज तांब्याची कळशी भरून ठेवावी दिवसभर तेच पाणी प्यावं. बाळ झाल की त्याला लगेच आपल दूध पाजाव. बाळ थोड मोठ झाल की मधून मधून एक छोटा चमचा खोबरेल तेल पाजाव. अशाने कुपोषण होत नाही.
   मुलाला उलटी होल असेल, किंवा जास्त ताप येत असेल तर सारख घोट-घोट पाणी पाजत रहावे. याने आजार थांबतो. तुळशीचे पान आणी साखर खाऊन पण आजार थांबतो. पोटावर ओली माती थापून. थांबतो. डाकटर नसेल आणी औषध नसेल तर एवढे आपण करू शकतो. डाकटर असेल तर साफ सफाई कशी ठेवायची ते विचारून शिकायला पाहिजे. गांवात फवारणी होते कां? कधी होणार हे डाकटरला विचारावे. औषधाचे नांव विचारावे. औषधावर तारीख लिहिलेली असते. ती विचारावी. आजारपण कां येते, कसे येते ते विचारावे. सगळे शिकलो तर आजारपण कमी होईल. ताप लवकर बरा होईल. गांव आनंदी राहील.
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 -----------7 --------------- अजून लिहायचे आहे