स्वास्थ्य-रक्षा में वैयक्तिक आयाम अलग होता है और राष्ट्रीय आयाम अलग होता है। वैयक्तिक रोकथाम व्यक्ति
के हाथ में होती है परन्तु राष्ट्रीय आयाम पर राष्ट्रीय नीतियों का प्रभाव रहता है। पढें मधुमेह संबंधी मेरा आलेख
जो दिनांक 16 के देशबन्धु, दिल्ली में प्रकाशित हुआ।
मधुमेह का करोड़पति आयात-व्यापार
16, MAR, 2015, MONDAY DESHBANDHU, DELHI
-- लीना मेहेंदले
भारत विश्वगुरु बने- नंबर-1 बने ऐसा सपना देखने वालों की कमी नहीं है और वाकई एक मुद्दा ऐसा है जिस पर
भारत नंबर वन बना हुआ है। वह है- डायबिटीज अर्थात् मधुमेह।आज संसार में सबसे अधिक मधुमेही मरीजों
की संख्या हमारे ही देश में है। माना जाता है कि शहरी इलाकों में हर पांच में से एक व्यक्ति मधुमेह का
शिकार है और गांव वाले भी कोई खास पीछे नहीं। पहले यह बीमारी प्रौढ़ावस्था की बीमारी मानी जाती थी पर
अब छोटी आयु में भी यह बीमारी ग्रस रही है। लेकिन प्रश्न है कि मधुमेह हो जाये तो दिक्कत क्या है?
मेरे परिचित एक परिवार में पति-पत्नी दोनों को मधुमेह की बीमारी थी। पत्नी पेशे से डॉक्टर भी थीं। दोनों पहले
गोलियां और फिर इन्जेक्शन लेने लगे थे। मैं कभी चिन्ता व्यक्त करती तो पत्नी कहती- क्या चिन्ता है? बस
सुबह-शाम दवाई का ध्यान रखना पड़ता है। और तो कुछ नहीं। हां, ब्लड शुगर लेवल और बीपी लेवल जांचनी
पड़ती है, पर उसमें क्या दिक्कत है? मैं तो दिन में सौ मरीजों की जांच करती हूं- एक अपनी भी सही।
कुल मिलाकर यही लगता था कि मधुमेह उनके लिए कोई बीमारी, परेशानी या चिन्ता का कारण थी ही नहीं।
दोनों का ऑफिस आना-जाना, घूमना-टहलना, विदेश भ्रमण आदि आराम से होता था। लेकिन मधुमेही होने
और न होने का अंतर कुछ महीने पहले समझ में आ गया जब पत्नी का देहांत हुआ- जो कि आयु में मुझसे
छोटी थी।
एक-दूसरा उदाहरण भी है। करीब बीस वर्ष पूर्व मैं केंद्र सरकार के राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान पुणे में
डायरेक्टर के पद पर नियुक्त थी। तब हमने एक मधुमेह इलाज का कार्यक्रम चलाया था। इसमें तीस से चालीस
तक मधुमेहग्रस्त व्यक्ति या मरीज बुधवार को दोपहर से तीन घंटे का समय संस्थान में व्यतीत करते थे।
मधुमेह के कण्ट्रोल पर आपसी चर्चा, फिर हर प्रकार की स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली के डॉक्टरों द्वारा व्याख्यान,
उपाय, दिनचर्या, आहार व्यवस्थापन, नए जांच मशीनों की जानकारी, काम्प्लीकेशन आदि हर प्रकार की
चर्चा होती थी। हमारा नारा था-अपना स्वास्थ्य अपने हाथ अर्थात् सेल्फ कण्ट्रोल।
और उसके सूत्र थे- आहार-विहार, आचार और विचार। रक्त शर्करा को प्राकृतिक उपायों से अपनी नियत मर्यादा
में रखना- यही इस कार्यक्रम का लक्ष्य था जिसके लिए हमने 26 सप्ताह अर्थात् छ: महीने का कालावधि
निश्चित किया था। इस कार्यक्रम में आने वाले प्राय: सभी व्याख्याताओं ने तथा खुद इलाज करवाने वालों ने
भी एक मुद्दा बार-बार उठाया था। वह था कि हमारे देश में बढ़ते हुए मधुमेह के कारणों में तीन मुद्दों का बड़ा
महत्व है। पहला है हमारा खानपान। रासायनिक खाद पर पुष्ट होने वाला धान्य और गोबर जैसे प्राकृतिक
संसाधनों पर उपजाया धान्य- दोनों हमारे शरीर पर, खास कर स्वास्थ्य पर अलग-अलग प्रभाव डालते हैं। यह
सारा ज्ञान बीस वर्ष पूर्व मैंने पुस्तकों से पढ़कर नहीं, बल्कि मरीजों के प्रत्यक्ष अनुभवों से लिया था। यहां तक
कि सूती कपड़े और पॉलिएस्टर या कृत्रिम धागों के कपड़ों से भी अंतर पड़ता था। सूती कपड़े में भी खादी के
अर्थात् हाथ से बुने गए कपड़े अधिक उपयोगी थे, यह भी हमारे मरीजों ने चर्चा के बाद पाया था। तो मैं फिर से
सोचने लगती कि वाकई मधुमेह कोई दिक्कत वाली बीमारी तो है नहीं। बस यह ध्यान रखो कि क्या खाया,
क्या पिया, क्या पहना-ओढ़ा और दिनचर्या कैसी रही। विचार कैसे रहे? सबसे बड़ी बात की मन शांति टिकाई
या नहीं। यदि यह हो तो मधुमेह कुछ नहीं। विचारों के प्रभावपर भी हमने चर्चा की। और पाया कि चिन्ता,
ईष्र्या, स्पर्धा, क्रोध आदि विचार ऐसे थे जो मधुमेह को बढ़ाते थे। इसके विपरीत मन को शांत रखना, शांत
म्युजि़क सुनना, सादगीयुक्त संतोषभरा जीवन आदि मधुमेह को रोकने के लिए उपयुक्त थे। बस इतनी सी
बात।
लेकिन पिछले बीस वर्षों में मधुमेही बीमारों की संख्या बढ़ती गई और इसकी रोकथामको सरकार में चिन्ता
का विषय माना जाने लगा तो मैंने इसके दूसरे आयाम पर विचार किया। वैयक्तिक आयाम अलग होता है और
राष्ट्रीय आयाम अलग होता है। वैयक्तिक रोकथाम व्यक्ति के हाथ में होती है परन्तु राष्ट्रीय आयाम पर राष्ट्रीय
नीतियों का प्रभाव रहता है। राष्ट्रीय नीति पर अंतरराष्ट्रीय घटनाओं का विशेषकर अंतरराष्ट्रीय सत्ता स्पर्धा,
बाजार व्यवस्थापन, आर्थिक शक्तियां आदि का प्रभाव रहता है। कई बार हमारे लिए उन्हें रोकना कठिन होता
है। कई बार हमारे लिए उन्हें समझना और भी कठिन होता है। पर सबसे बुरा तब होता है जब हम उन्हें
समझकर, पहचानकर उनसे हाथ मिलाएँ और अपने व्यक्तिगत लाभ की बात सोचें। हमारे राष्ट्रीय नीति
निर्धारण में ऐसे लोग नहीं हैं ऐसा हम डंके की चोट पर नहीं कह सकते। वह भी हमारे राष्ट्रीय चरित्र में एक
खोट है। लेकिन हाँ, जो अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा को नहीं समझते, उन्हें समझाने का उपाय हमारे हाथ में बचा रहता
है। यहीं से ग्राहक शक्ति का आरंभ होता है।
इसीलिये ग्राहक को समझाना पड़ेगा कि हमारे देश में मधुमेह आयात का कारोबार कितना बड़ा है और इसे
कौन चलाता है। फिर ग्राहक अर्थात् देश की जनता स्वयं निर्णय करे कि यह व्यापार चलने दिया जाय या इस
पर रोक लगाया जाये।
देश में मधुमेह का आयात दो अलग रास्तों से होता है। उन पर व्यापार करने वाली कंपनियां एक-दूसरे से
नितांत भिन्न व्यवसायों में हैं, लेकिन जाने-अनजाने एक-दूसरे की पूरक हैं। दोनों ही आयात अधिकतर
अमेरिकी कंपनियां चलाती हैं। पहला व्यापार है दवाइयों का। मधुमेह पर उपाय के लिए इन्सुलिन या दूसरी
गोलियां यहां तक कि रक्त शर्करा की जांच में प्रयुक्त होने वाली दवाइयां और तरह-तरह के उपकरण भी हम
अमेरिकी कंपनियों से आयात करते हैं। मधुमेह के कारण जो अन्य प्रक्षोभ निर्माण होते हैं, जैसे हृदय की
बीमारी, किडनी की बीमारी, आंखों की या लीवर की बीमारी, इन सब की दवाइयों का भी एक अन्य सुसंगठित
आयात व्यापार है। इन व्यापारों में सालों साल किस प्रकार बढ़ोतरी हुई यह एक अच्छी खासी पीएचडी का
विषय है।
मधुमेह के आयात-व्यापार का दूसरा रास्ता है रासायनिक खाद के आयात का। शीघ्रगामी लाभ के लिए कृषि
में रासायनिक खादों का प्रचलन हुआ। एनपीके का नाम एक वेदमंत्र की तरह लिया जाने लगा। महाराष्ट्र में तो
सरकारी बैंक का क्षेत्र पूरी तरह से रासायनिक खाद के व्यापार पर ही निर्भर था। देश में राष्ट्रीय केमिकल एंड
फर्टिलाइजर नामक बड़ी कंपनी खुली। उससे अलग भी कई सरकारी कंपनियां रासायनिक खाद बनाने में जुट
गईं। इनके लिए बड़े पैमाने पर पी और के अर्थात् फॉस्फोरस एवं पोटाश का आयात होने लगा। इसके अलावा
विदेशी कंपनियों से सीधी तौर पर खाद भी आने लगा। आज पूरे देश में सर्वाधिक आयात की तीन वस्तुएं हैं-
पेट्रोलियम क्रूड, सोना और रासायनिक खाद। इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि खाद का व्यापार करने
वाली अमेरिकी कंपनियां हमारे देश से कितना पैसा बटोरती हैं।
अब यदि देश को मधुमेहमुक्त करना है तो ये दोनों व्यापार खतरे में पड़ेंगे। इन्हें हमारे देश में पहुंचाने वाले और
अपने देश में स्वागतपूर्वक लाने वाले, दोनों का व्यवसाय ठप्प हो जायगा। अरबों खरबों के अंतरराष्ट्रीय
व्यापार में भूकंप आयेगा। क्या एक राष्ट्र की हैसियत से हम अमेरिका में ऐसा भूचाल लाने की क्षमता रखते हैं?
एक छोटे से विनोद, एक कौतुक को देखते हैं। केजरीवाल की खाँसी से चिंतित होकर प्रधानमंत्री ने उन्हें
नागेंन्द्र गुरुजी के पास जाने का सुझाव दिया है। यही नागेन्द्र गुरुजी बंगलुरु में विवेकानन्द केन्द्र चलाते हैं
और हाल ही में इन्होंने योग प्राणायम के माध्यम से देश को अगले बीस वर्षो में मधुमेहमुक्त करने का संकल्प
लिया है। लेकिन उन्हीं के केन्द्र में यह भी पढ़ाया जाता है कि मनुष्य शरीर का सबसे बाहरी आवरण अन्नमय
कोष कहलाता है, अर्थात् जैसा अन्न वैसा शरीर और वैसा ही मन भी। अन्नसे प्राण, प्राणसे मन, मनसे
विज्ञान और विज्ञानसे आनन्द। इस प्रकार उपनिषदोंमें में अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष,
विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष की संकल्पना की गई है। तो जब तक रासायनिक खादयुक्त,
कीटनाशकयुक्त, अन्न खाते रहेंगे तब तक योग और प्राणायाम से अधिक फायदा नहीं होने वाला। लेकिन ऐसे
अन्न को नकारने का अर्थ है अमेरिकी रासायनिक खाद कंपनियों से पंगा लेना। उधर इन्सुलिन और दवाईयाँ
बनाने वाली कंपनियां मनोयोग से गुरुजी को मनाने में जुटी हैं कि आप योग प्राणायाम के साथ थोड़ी सी
हमारी दवाइयों की भी तारीफ कर दो, थोड़ी सी इनकी भी उपयोगिता बतलाते रहो। मधुमेहमुक्त भारत का
सपना देखो पर मुधमेह का दवाइयों से मुक्त भारत का सपना मत देखो।
तो कुल मिलाकर चित्र यह है कि एक ओर तो सरकार अपने देश की विदेशी-मुद्राएं इन आयातित वस्तुओं पर
खर्च कर रही है- रासायनिक खाद और इन्सुलिन व अन्य दवाइयां। दूसरी ओर, इस आयात-खरचेकी भरपाई
करने के लिए जिस-जिस निर्यात का सहारा लेना चाहती है, उसमें पहले नंबर पर गोमांस है। अर्थात् देश का
अलभ्य पशुधन काटा जा रहा है। मशीनीकरण के युग में खेती के लिए भी बैलों को अनावश्यक एवं अनुपयोगी
ठहराया जा चुका है। लेकिन गोबर के खाद की तुलना किसी भी अन्य खाद से करने पर गोबर ही सर्वश्रेष्ठ पाया
जाता है। तो क्या हम गोबर के लिए पशुधन पालें (पोसें) या गोमांस के लिए? उत्तर यदि गोबर है तो उससे
रासायनिक खाद का आयात और उसके साथ मधुमेह का आयात रोका जा सकता है। यदि उत्तर गोमांस है तो
देश से गोमांस का निर्यात बढ़ सकता है, देश में पैसा आ सकता है। फिर देश में किसी को मिट्टी में काम
करने की जरूरत नहीं रहेगी। सबको व्हाइट कॉलर जॉब मिलेंगे। " शहर में घर हो अपना " वाला कांग्रेसी
चुनावी विज्ञापन भी सच हो जायगा।
हां, संसद के भाषण में प्रधानमंत्री मोदीजीने अवश्य कहा है कि सिक्किम की अर्थव्यवस्था सुधारना बहुत
सरल है। चूँकि वहां अभी तक रासायनिक खाद नहीं पहुंची है अत: उनकी कृषि उपज हर प्रकार के रासायनिक
खाद व कीटनाशकों से मुक्त है। अत: उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार में निर्यात करने पर सिक्किम के किसानों की
अच्छी कमाई हो सकती है, देश के निर्यात व्यापार में भी बढ़ोतरी हो सकती है। तो अब प्रश्न उठता है कि क्या
ऑर्गेनिक खेती का मंत्र केवल सिक्किम के किसानों के लिए हो या देशभर के किसानों के लिए? ऑर्गेनिक
खाद के लिए देश के पशुओं को बचाया जाय या फिर उन्हें गोमांस निर्यात के लिए कटवाकर हम दुबारा
कारगिल जैसी विदेशी कंपनी को उनके देश से हमारे देशों में काऊडंग बेचने का ठेका दें -- जैसा एक बार डॉ
. मनमोहन सिंह का प्रयास था जब वे नरसिंह राव सरकार के वितमंत्री थे?
ये और ऐसे कई प्रश्न मधुमेह के साथ जुड़े हैं।
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