सोमवार, 24 जुलाई 2023

मधुमेह का करोड़पति आयात-व्यापार और गोवंश

 

मधुमेह का करोड़पति आयात-व्यापार और गोवंश

स्वास्थ्य-रक्षा में वैयक्तिक आयाम अलग होता है और राष्ट्रीय आयाम अलग होता है। वैयक्तिक रोकथाम व्यक्ति 
के हाथ में होती है परन्तु राष्ट्रीय आयाम पर राष्ट्रीय नीतियों का प्रभाव रहता है। पढें मधुमेह संबंधी मेरा आलेख 
जो दिनांक 16 के देशबन्धु, दिल्ली में प्रकाशित हुआ। 

मधुमेह का करोड़पति आयात-व्यापार

16, MAR, 2015, MONDAY DESHBANDHU, DELHI

-- लीना मेहेंदले

भारत विश्वगुरु बने- नंबर-1 बने ऐसा सपना देखने वालों की कमी नहीं है और वाकई एक मुद्दा ऐसा है जिस पर
 भारत नंबर वन बना हुआ है। वह है- डायबिटीज अर्थात् मधुमेह।आज संसार में सबसे अधिक मधुमेही मरीजों
 की संख्या हमारे ही देश में है। माना जाता है कि शहरी इलाकों में हर पांच में से एक व्यक्ति मधुमेह का 
शिकार है और गांव वाले भी कोई खास पीछे नहीं। पहले यह बीमारी प्रौढ़ावस्था की बीमारी मानी जाती थी पर 
अब छोटी आयु में भी यह बीमारी ग्रस रही है। लेकिन प्रश्न है कि मधुमेह हो जाये तो दिक्कत क्या है?

मेरे परिचित एक परिवार में पति-पत्नी दोनों को मधुमेह की बीमारी थी। पत्नी पेशे से डॉक्टर भी थीं। दोनों पहले
 गोलियां और फिर इन्जेक्शन लेने लगे थे। मैं कभी चिन्ता व्यक्त करती तो पत्नी कहती- क्या चिन्ता है? बस 
सुबह-शाम दवाई का ध्यान रखना पड़ता है। और तो कुछ नहीं। हां, ब्लड शुगर लेवल और बीपी लेवल जांचनी 
पड़ती है, पर उसमें क्या दिक्कत है? मैं तो दिन में सौ मरीजों की जांच करती हूं- एक अपनी भी सही। 

कुल मिलाकर यही लगता था कि मधुमेह उनके लिए कोई बीमारी, परेशानी या चिन्ता का कारण थी ही नहीं।
 दोनों का ऑफिस आना-जाना, घूमना-टहलना, विदेश भ्रमण आदि आराम से होता था। लेकिन मधुमेही होने 
और न होने का अंतर कुछ महीने पहले समझ में आ गया जब पत्नी का देहांत हुआ- जो कि आयु में मुझसे 
छोटी थी।

एक-दूसरा उदाहरण भी है। करीब बीस वर्ष पूर्व मैं केंद्र सरकार के राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान पुणे में 
डायरेक्टर के पद पर नियुक्त थी। तब हमने एक मधुमेह इलाज का कार्यक्रम चलाया था। इसमें तीस से चालीस 

तक मधुमेहग्रस्त व्यक्ति या मरीज बुधवार को दोपहर से तीन घंटे का समय संस्थान में व्यतीत करते थे। 
मधुमेह के कण्ट्रोल पर आपसी चर्चा, फिर हर प्रकार की स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली के डॉक्टरों द्वारा व्याख्यान,
 उपाय, दिनचर्या, आहार व्यवस्थापन, नए जांच मशीनों की जानकारी, काम्प्लीकेशन आदि हर प्रकार की 
चर्चा होती थी। हमारा नारा था-अपना स्वास्थ्य अपने हाथ अर्थात् सेल्फ कण्ट्रोल।

और उसके सूत्र थे- आहार-विहार, आचार और विचार। रक्त शर्करा को प्राकृतिक उपायों से अपनी नियत मर्यादा
 में रखना- यही इस कार्यक्रम का लक्ष्य था जिसके लिए हमने 26 सप्ताह अर्थात् छ: महीने का कालावधि 
निश्चित किया था। इस कार्यक्रम में आने वाले प्राय: सभी व्याख्याताओं ने तथा खुद इलाज करवाने वालों ने 
भी एक मुद्दा बार-बार उठाया था। वह था कि हमारे देश में बढ़ते हुए मधुमेह के कारणों में तीन मुद्दों का बड़ा 
महत्व है। पहला है हमारा खानपान। रासायनिक खाद पर पुष्ट होने वाला धान्य और गोबर जैसे प्राकृतिक 
संसाधनों पर उपजाया धान्य- दोनों हमारे शरीर पर, खास कर स्वास्थ्य पर अलग-अलग प्रभाव डालते हैं। यह
 सारा ज्ञान बीस वर्ष पूर्व मैंने पुस्तकों से पढ़कर नहीं, बल्कि मरीजों के प्रत्यक्ष अनुभवों से लिया था। यहां तक
 कि सूती कपड़े और पॉलिएस्टर या कृत्रिम धागों के कपड़ों से भी अंतर पड़ता था। सूती कपड़े में भी खादी के 
अर्थात् हाथ से बुने गए कपड़े अधिक उपयोगी थे, यह भी हमारे मरीजों ने चर्चा के बाद पाया था। तो मैं फिर से
 सोचने लगती कि वाकई मधुमेह कोई दिक्कत वाली बीमारी तो है नहीं। बस यह ध्यान रखो कि क्या खाया, 
क्या पिया, क्या पहना-ओढ़ा और दिनचर्या कैसी रही। विचार कैसे रहे? सबसे बड़ी बात की मन शांति टिकाई 
या नहीं। यदि यह हो तो मधुमेह कुछ नहीं। विचारों के प्रभावपर भी हमने चर्चा की। और पाया कि चिन्ता, 
ईष्र्या, स्पर्धा, क्रोध आदि विचार ऐसे थे जो मधुमेह को बढ़ाते थे। इसके विपरीत मन को शांत रखना, शांत 
म्युजि़क सुनना, सादगीयुक्त संतोषभरा जीवन आदि मधुमेह को रोकने के लिए उपयुक्त थे। बस इतनी सी 
बात।

लेकिन पिछले बीस वर्षों में मधुमेही बीमारों की संख्या बढ़ती गई और इसकी रोकथामको सरकार में चिन्ता 
का विषय माना जाने लगा तो मैंने इसके दूसरे आयाम पर विचार किया। वैयक्तिक आयाम अलग होता है और 
राष्ट्रीय आयाम अलग होता है। वैयक्तिक रोकथाम व्यक्ति के हाथ में होती है परन्तु राष्ट्रीय आयाम पर राष्ट्रीय 
नीतियों का प्रभाव रहता है। राष्ट्रीय नीति पर अंतरराष्ट्रीय घटनाओं का विशेषकर अंतरराष्ट्रीय सत्ता स्पर्धा, 
बाजार व्यवस्थापन, आर्थिक शक्तियां आदि का प्रभाव रहता है। कई बार हमारे लिए उन्हें रोकना कठिन होता 
है। कई बार हमारे लिए उन्हें समझना और भी कठिन होता है। पर सबसे बुरा तब होता है जब हम उन्हें

समझकर, पहचानकर उनसे हाथ मिलाएँ और अपने व्यक्तिगत लाभ की बात सोचें। हमारे राष्ट्रीय नीति 
निर्धारण में ऐसे लोग नहीं हैं ऐसा हम डंके की चोट पर नहीं कह सकते। वह भी हमारे राष्ट्रीय चरित्र में एक
 खोट है। लेकिन हाँ, जो अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा को नहीं समझते, उन्हें समझाने का उपाय हमारे हाथ में बचा रहता
 है। यहीं से ग्राहक शक्ति का आरंभ होता है। 

इसीलिये ग्राहक को समझाना पड़ेगा कि हमारे देश में मधुमेह आयात का कारोबार कितना बड़ा है और इसे 
कौन चलाता है। फिर ग्राहक अर्थात् देश की जनता स्वयं निर्णय करे कि यह व्यापार चलने दिया जाय या इस 
पर रोक लगाया जाये।

देश में मधुमेह का आयात दो अलग रास्तों से होता है। उन पर व्यापार करने वाली कंपनियां एक-दूसरे से
 नितांत भिन्न व्यवसायों में हैं, लेकिन जाने-अनजाने एक-दूसरे की पूरक हैं। दोनों ही आयात अधिकतर 
अमेरिकी कंपनियां चलाती हैं। पहला व्यापार है दवाइयों का। मधुमेह पर उपाय के लिए इन्सुलिन या दूसरी
 गोलियां यहां तक कि रक्त शर्करा की जांच में प्रयुक्त होने वाली दवाइयां और तरह-तरह के उपकरण भी हम
 अमेरिकी कंपनियों से आयात करते हैं। मधुमेह के कारण जो अन्य प्रक्षोभ निर्माण होते हैं, जैसे हृदय की 
बीमारी, किडनी की बीमारी, आंखों की या लीवर की बीमारी, इन सब की दवाइयों का भी एक अन्य सुसंगठित 
आयात व्यापार है। इन व्यापारों में सालों साल किस प्रकार बढ़ोतरी हुई यह एक अच्छी खासी पीएचडी का 
विषय है। 

मधुमेह के आयात-व्यापार का दूसरा रास्ता है रासायनिक खाद के आयात का। शीघ्रगामी लाभ के लिए कृषि
 में रासायनिक खादों का प्रचलन हुआ। एनपीके का नाम एक वेदमंत्र की तरह लिया जाने लगा। महाराष्ट्र में तो
 सरकारी बैंक का क्षेत्र पूरी तरह से रासायनिक खाद के व्यापार पर ही निर्भर था। देश में राष्ट्रीय केमिकल एंड 
फर्टिलाइजर नामक बड़ी कंपनी खुली। उससे अलग भी कई सरकारी कंपनियां रासायनिक खाद बनाने में जुट
 गईं। इनके लिए बड़े पैमाने पर पी और के अर्थात् फॉस्फोरस एवं पोटाश का आयात होने लगा। इसके अलावा
 विदेशी कंपनियों से सीधी तौर पर खाद भी आने लगा। आज पूरे देश में सर्वाधिक आयात की तीन वस्तुएं हैं-
 पेट्रोलियम क्रूड, सोना और रासायनिक खाद। इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि खाद का व्यापार करने 
वाली अमेरिकी कंपनियां हमारे देश से कितना पैसा बटोरती हैं।


अब यदि देश को मधुमेहमुक्त करना है तो ये दोनों व्यापार खतरे में पड़ेंगे। इन्हें हमारे देश में पहुंचाने वाले और
 अपने देश में स्वागतपूर्वक लाने वाले, दोनों का व्यवसाय ठप्प हो जायगा। अरबों खरबों के अंतरराष्ट्रीय 
व्यापार में भूकंप आयेगा। क्या एक राष्ट्र की हैसियत से हम अमेरिका में ऐसा भूचाल लाने की क्षमता रखते हैं?


एक छोटे से विनोद, एक कौतुक को देखते हैं। केजरीवाल की खाँसी से चिंतित होकर प्रधानमंत्री ने उन्हें 

नागेंन्द्र गुरुजी के पास जाने का सुझाव दिया है। यही नागेन्द्र गुरुजी बंगलुरु में विवेकानन्द केन्द्र चलाते हैं 

और हाल ही में इन्होंने योग प्राणायम के माध्यम से देश को अगले बीस वर्षो में मधुमेहमुक्त करने का संकल्प 

लिया है। लेकिन उन्हीं के केन्द्र में यह भी पढ़ाया जाता है कि मनुष्य शरीर का सबसे बाहरी आवरण अन्नमय

 कोष कहलाता है, अर्थात् जैसा अन्न वैसा शरीर और वैसा ही मन भी। अन्नसे प्राण, प्राणसे मन, मनसे 

विज्ञान और विज्ञानसे आनन्द। इस प्रकार उपनिषदोंमें में अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, 

विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष की संकल्पना की गई है। तो जब तक रासायनिक खादयुक्त, 

कीटनाशकयुक्त, अन्न खाते रहेंगे तब तक योग और प्राणायाम से अधिक फायदा नहीं होने वाला। लेकिन ऐसे 

अन्न को नकारने का अर्थ है अमेरिकी रासायनिक खाद कंपनियों से पंगा लेना। उधर इन्सुलिन और दवाईयाँ


 बनाने वाली कंपनियां मनोयोग से गुरुजी को मनाने में जुटी हैं कि आप योग प्राणायाम के साथ थोड़ी सी 

हमारी दवाइयों की भी तारीफ कर दो, थोड़ी सी इनकी भी उपयोगिता बतलाते रहो। मधुमेहमुक्त भारत का 

सपना देखो पर मुधमेह का दवाइयों से मुक्त भारत का सपना मत देखो।

तो कुल मिलाकर चित्र यह है कि एक ओर तो सरकार अपने देश की विदेशी-मुद्राएं इन आयातित वस्तुओं पर

 खर्च कर रही है- रासायनिक खाद और इन्सुलिन व अन्य दवाइयां। दूसरी ओर, इस आयात-खरचेकी भरपाई

 करने के लिए जिस-जिस निर्यात का सहारा लेना चाहती है, उसमें पहले नंबर पर गोमांस है। अर्थात् देश का 



अलभ्य पशुधन काटा जा रहा है। मशीनीकरण के युग में खेती के लिए भी बैलों को अनावश्यक एवं अनुपयोगी

 ठहराया जा चुका है। लेकिन गोबर के खाद की तुलना किसी भी अन्य खाद से करने पर गोबर ही सर्वश्रेष्ठ पाया

 जाता है। तो क्या हम गोबर के लिए पशुधन पालें (पोसें) या गोमांस के लिए? उत्तर यदि गोबर है तो उससे 

रासायनिक खाद का आयात और उसके साथ मधुमेह का आयात रोका जा सकता है। यदि उत्तर गोमांस है तो 

देश से गोमांस का निर्यात बढ़ सकता है, देश में पैसा आ सकता है। फिर देश में किसी को मिट्टी में काम

 करने की जरूरत नहीं रहेगी। सबको व्हाइट कॉलर जॉब मिलेंगे। " शहर में घर हो अपना " वाला कांग्रेसी 

चुनावी विज्ञापन भी सच हो जायगा।


हां, संसद के भाषण में प्रधानमंत्री मोदीजीने अवश्य कहा है कि सिक्किम की अर्थव्यवस्था सुधारना बहुत

 सरल है। चूँकि वहां अभी तक रासायनिक खाद नहीं पहुंची है अत: उनकी कृषि उपज हर प्रकार के रासायनिक

 खाद व कीटनाशकों से मुक्त है। अत: उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार में निर्यात करने पर सिक्किम के किसानों की

 अच्छी कमाई हो सकती है, देश के निर्यात व्यापार में भी बढ़ोतरी हो सकती है। तो अब प्रश्न उठता है कि क्या

 ऑर्गेनिक खेती का मंत्र केवल सिक्किम के किसानों के लिए हो या देशभर के किसानों के लिए? ऑर्गेनिक 

खाद के लिए देश के पशुओं को बचाया जाय या फिर उन्हें गोमांस निर्यात के लिए कटवाकर हम दुबारा

 कारगिल जैसी विदेशी कंपनी को उनके देश से हमारे देशों में काऊडंग बेचने का ठेका दें -- जैसा एक बार डॉ

. मनमोहन सिंह का प्रयास था जब वे नरसिंह राव सरकार के वितमंत्री थे?


ये और ऐसे कई प्रश्न मधुमेह के साथ जुड़े हैं।

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शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

सोमवार, 13 सितंबर 2021

 *वैश्विक गणेश यात्रा / १* 


*उगवत्या सूर्याच्या देशात...*

वैश्विक गणेश

जपान. उगवत्या सूर्याचा देश. प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा असलेला समृध्द आणि सुसंस्कृत देश. 


अश्या ह्या जपान मध्ये आपल्या विघ्नहर्त्या गजाननाची एकूण २४३ मंदिरं आहेत. ही सर्व मंदिरं सुमारे चारशे ते चौदाशे वर्षांपूर्वी बांधलेली आहेत. जपान्यांचं कौतुक असं, की त्यांनी ही सर्व मंदिरं नुसती जपलीच नाहीत, तर ती नांदती ठेवली. या सर्व मंदिरांमध्ये रोजची पूजा-अर्चा व्यवस्थित होईल, अशी एक पध्दती विकसित केली. त्यामुळे टोकियो मधील ‘असाकुसा’ चे ‘मात्सूचियामा शोदन मंदिर’, जे सन ६०१ मध्ये बांधल्या गेलं होतं, ते आजही तसंच आहे. यातील श्री गणेशाची मूर्ती ही १४२० वर्ष जूनी आहे. 


जपान मध्ये गणपती ला साधारण पणे ३ – ४ नावांनी ओळखतात. ‘बिनायक-तेन’ हे त्यातील एक नाव. जपानीत ‘तेन’ म्हणजे देव, ईश्वर. ‘गनबाची’, ‘गनवा’, ‘गणहत्ती’ ही नावं सुध्दा चालतात. पण जपान मध्ये गणपती साठी सर्वात प्रचलित असलेलं नाव आहे – ‘कांगितेन’. जपान मध्ये गणेशाचं आगमन झालं ते प्रामुख्याने बौध्द भिक्षुंच्या माध्यमातून. ओडिशा च्या बौध्द भिक्षुन्नी ‘तांत्रिक बौध्द धर्मात’ गती घेतली होती. ते प्रथम चीन मध्ये गेले आणि नंतर तेथून जपान मध्ये. साधारण दीड हजार वर्षांपूर्वी, जपानी लोकांना, ‘गणपति’ ह्या देवतेची ओळख झाली. 


आपल्या भारता सारखंच, जपान मध्ये सुध्दा गणेशाला ‘विघ्नहर्ता’ समजलं जातं. पण यात थोडा फरक आहे. जपानी मान्यतेनुसार गणपती ही देवता, पहिले एखाद्या कामात अडथळे निर्माण करते आणि मग मात्र पूर्ण ताकतीनिशी, ह्या सर्व अडथळ्यांचं निवारण करून मांगल्य निर्माण करते. 


ऐतिहासिक हिरोशिमा शहाराजवळ ‘इत्सुकूशिमा’ द्वीपावर गणेशाचे एक अत्यंत प्राचीन मंदिर आहे – ‘दाईशो – इन’. असं म्हणतात, हे मंदिर सन ८०६ मध्ये बांधण्यात आलं. पण हे त्या ही पेक्षा जुनं असावं. गंमत म्हणजे, आपल्या गणेशाचा जपानी अवतार, ‘मोदक’ फारसा खात नाही. त्याची आवडती गोष्ट म्हणजे ‘मुळा’. होय. मुळा... अनेक प्राचीन मूर्तींमध्ये गणेशाच्या हातात, शस्त्रांसोबत ‘मुळा’ दाखविलेला आहे. मात्र मोदकाचेही एक विशिष्ट स्थान जपान मध्ये आहे. भारतीय मोदकाचा अवतार, ‘कांगिदन’ या नावाने जपान मध्ये प्रचलित आहे. ह्या गोड ‘ब्लिस बन’ चा नैवेद्य, गणपती ला दाखवला जातो. 


असं म्हणतात, जपान मध्ये ‘इदो (तोकुगावा) काळात, म्हणजे सतराव्या शतकापासून, एकोणीसाव्या शतकाच्या काळात, ‘कांगितेन’ ची हजारो मंदिरं होती. भक्तगण मोठ्या संख्येने गणेशाच्या जपानी अवताराची पूजा करायला यायचे. सध्या मात्र २४३ मंदिरं सुस्थितीत आहेत. 


जपान मध्ये दोन तोंडांच्या गणपतीचे सुध्दा प्रचलन आहे. त्याला ‘सशीन कांगितेन’ म्हटलं जातं. आपल्या पुराणात जी ‘नंदिकेश्वराची’ कल्पना आहे, तीच ही देवता. जुन्या मूर्तींवर, चित्रांवर, वस्तूंवर ह्या ‘सशीन कांगितेन’ चा ठसा आहे. दक्षिण जपान च्या ओसाका शहराच्या बाहेर असलेलं, गणेशाचं ‘होझांजी मंदिर’ हे जपान मधील श्री गणेशाच्या, सर्वाधिक भक्त संख्या असलेल्या मंदिरांपैकी एक आहे. तुलनेने अलिकडच्या, म्हणजेच सतराव्या शतकात बांधलेल्या ह्या मंदिरा बद्दल, जपान्यांच्या मनात प्रचंड श्रध्दा आहे. 


जपान मध्ये गणेशाची काही मंदिरं अगदी अलीकडे, म्हणजे गेल्या पन्नास वर्षात बांधलेली आहेत. त्यातील चिबा शहराच्या साकुरा भागात असलेलं ‘गणेश मंदिर’, प्रसिध्द असून याच नावाने ओळखलं जातं. 


एकुणात काय, तर सूर्याचं सर्वप्रथम दर्शन घेणार्‍या ह्या देशात, गणेश भक्तीची परंपरा फार प्राचीन आणि सनातन आहे. आणि आता तर गणेश भक्तांची संख्याही वाढते आहे. 

*- प्रशांत पोळ* 

*#वैश्विक_गणेश  #GlobalGanesh*

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

तुळजापूरची भवानीमाता

 *आई तुळजाभवानी*

( तुळजापूर परिपूर्ण माहिती ) 


तुळजापूरची भवानीमाता हे अवघ्या महाराष्ट्राचे कुलदैवत. वर्षांतून एकदा तरी तुळजापूरला जायचं आणि देवीचं दर्शन घ्यायचं ही प्रथा कित्येक घरांमध्ये आजही नेमाने सुरू आहे.


मात्र तुळजापूरला जाऊन देवीचं दर्शन घेऊन येणाऱ्यांना तुळजापूरमधील कित्येक प्रथा-परंपरांबद्दल माहिती नसते.

म्हणूनच तुळजाभवानीच्या विविध प्रथा-परंपरांचा हा परिचय-


श्री श्रेत्र तुळजापूर हे आई तुळजाभवानीचे शक्ती पीठ! वर्षभर भक्तांचा लोंढा तुळजापूरच्या दिशेने येत असतो.

बाहेरून येणाऱ्या भक्तांना फक्त तुळजाभवानीचे मंदिर व परिसर अशा काही ठरावीक गोष्टीच माहीत असतात.

परंतु यापलीकडे जाऊन पाहिल्यास तुळजापूरकरांनी अनेक अशा प्रथा- परंपरा जपलेल्या आहेत,

त्या ऐकल्यानंतर नवीन माणसाला त्याविषयी नवल वाटल्याशिवाय राहणार नाही.


साडेतीन शक्ती पीठांपैकी फक्त श्री तुळजाभवानीची मूर्ती तिच्या जागेवरून सहजपणे काढता येते व तेवढय़ाच सहजपणे पुन्हा जागेवर बसवता येते.

त्यामुळे वर्षांतून तीन वेळा म्हणजे भाद्रपद वद्य अष्टमी, आश्विन शुद्ध एकादशी आणि पौष शुद्ध प्रतिपदेला देवीच्या मूर्तीला सिंहासनावरून काढून पलंगावर झोपविले जाते.

ज्याला देवीचा निद्राकाल म्हटले जाते.

घोरनिद्रा, श्रमनिद्रा आणि सुखनिद्रा या नावाने चालणारा देवीचा निद्राकाल आजही तेवढय़ाच परंपरेने जोपासला जातो.

अन्य कुठल्याही देवाला या प्रकारे सहजपणे उचलून झोपविण्याची पद्धत नाही.

श्री तुळजाभवानीचे पहाटेचे चरणतीर्थ, सकाळ व सायंकाळची महापूजा तसेच रात्रीची प्रक्षाळपूजा व इतर प्रत्यक्षात ज्या पूजा होत असतात,

त्या वेळी देवीला प्रत्यक्ष स्पर्श करण्याचा अधिकार मात्र फक्त पानेरी मठाचे महंत व सोळाआणे कदम पुजारी या घराण्यातील स्त्री- पुरुषांना असून आजही ती परंपरा कायम आहे.

यांच्या व्यतिरिक्त कुणीही असलातरी तो देवीच्या मूर्तीला स्पर्श करून दर्शन घेऊ शकत नाही.

महाराष्ट्रातील साडेतीन शक्तिपीठांत तुळजाभवानीचे स्थान वरचे असून छत्रपती शिवरायांच्या भोसले घराण्यासह अनेकांची ती कुलदेवता आहे. तुळजाभवानीची मूर्ती ही चल मूर्ती असून काळ्याभोर गंडकी पाषाणातून बनविलेली ही मूर्ती साधारणपणे २x३.१५ इंच आकाराची अष्टभूजा मूर्ती असून मंदिरातील गाभाऱ्यात सिंहासनावरील एका खाचेत बसविली जाते.

मूर्तीला सिंहासनावरील खाचीत बसविण्याकरिता दीड फूट लांबीचा क्रुस मूर्तीच्या खालच्या बाजूला असून मूर्ती घट्ट बसावी म्हणून मेण बसविले जाते. याकरिता मूर्तीच्या खालच्या बाजूला ६’’ लांबीचा क्रूस ठेवलेला आहे. त्यामुळे तुळजाभवानीची मूर्ती बाहेर काढून प्रत्यक्ष विधीकरिता वापरली जाते. कदाचित ही अनोखी प्रथा असावी.

यात विशेष बाब म्हणजे मंदिर संस्थानकडे सर्व आर्थिक कारभार असतानाही मेण पुरविण्याची जबाबदारी परंपरेनेयेथील पाणेरी मठाच्या महंताकडे आहे.

साडेतीन शक्तिपीठांत तुळजापूर प्रथा-परंपरा, पूजाअर्चा याबाबतीतच नव्हे तर देवीची मूर्ती अशा सर्वच बाबतीतली भिन्नता आहे. माहूरला मूर्तीऐवजी तांदळा आहे तर वणीला एका मोठय़ा दगडावर देवी प्रतिमा शिल्पांकन करण्यात आलेली आहे.

मूर्तिशास्त्रानुसार कोल्हापूर आणि तुळजापूरच्या मूर्तीत काही प्रमाणात साम्य असले तरी तुळजाभवानीची मूर्ती पूर्णत: चलमूर्ती म्हणजे उत्सवाला बाहेर काढून परत त्याच ठिकाणी बसविली जाते.

वीरांची देवता महाराष्ट्रातील साडेतीन शक्तिपीठांत तुळजापूरची श्री तुळजाभवानी, कोल्हापूरची महालक्ष्मी, माहूरची रेणुका ही पूर्ण पीठं तर वणीची सप्तशृंगी हे अर्धपीठ म्हणून परिचित आहे.

पैकी तुळजाभवानी ही महिषमर्दिनी असल्याने तिला वीरांची देवता म्हटलं जातं. त्यातही छत्रपती शिवाजी महाराजांच्या भोसले कुळाची ती कुलदेवता असल्याने तुळजाभवानीला विशेष महत्त्व प्राप्त झालं.

म्हणूनच कदाचित कोल्हापूर, माहूर आणि वणीच्या मंदिरात तुळजाभवानीचं मंदिर आहे.

त्याप्रमाणे तुळजाभवानी मंदिर परिसरात इतर तीन शक्तिपीठांचा समावेश करण्यात आलेला नाही. महाराष्ट्रातील बहुतेकांची ती कुलदेवता असल्याने वर्षभर भक्तांचा महापूर इथं सुरू असतो.

बालाघाट डोंगररांगातील प्राचीनकाळातील यमुनाचल प्रदेशातील चिंचपूर या ठिकाणी एका दरीत तुळजाभवानीचं ठाणं आहे. तुळजाभवानी म्हणजे भक्तांच्या हाकेला त्वरित धावून जाणारी ती त्वरिता! त्वरितावरूनच तुळजापूर नामाभिधान तयार झालं.

तुळजाभवानीचं शारदीय आणि शाकंभरी असे दोन नवरात्र महोत्सव असून या उत्सवापूर्वी देवाला मूळ स्थानावरून उचलून शयनगृहात झोपविलं जातं. याला देवीचा निद्राकाल म्हणतात.

त्यानुसार भाद्रपद वद्य अष्टमी, आश्विन शुद्ध एकादशी आणि पौष शुद्ध प्रतिपदेला देवीजींचा निद्राकाल असून त्याला अनुक्रमे घोरनिद्रा, श्रमनिद्राआणि सुखनिद्रा म्हटलं जातं. देवीच्या निद्राकालाची परंपरा शतकानुशतकं आजही कायमआहे.

एवढंच नाही तर दसऱ्याचं सीमोल्लंघन साजरं करण्याकरिता देवीला एका विशिष्ट पालखीत बसवून मिरविलं जातं.

वर्षांतून तीन वेळा तुळजाभवानीची मूर्ती निद्राकाळाकरिता एका विशिष्ट पलंगावर झोपविली जाते.

तर सीमोल्लंघना करिता मूळ मूर्ती पालखीत घालून मिरविली जाते. तुळजाभवानीची पूजाअर्चा करण्याचं काम वर्षभर स्थानिक पुजारी करत असले तरी पालखी आणण्याचा मान नगरजवळील भिंगारच्या भगत घराण्याकडे आहे.

तर परंपरेने पालखीच्या पुढच्या खांद्यांचा मान बार्शी तालुक्यातील आगळगांव गोर माळय़ाच्या लोकांचा आहे.

याचबरोबर देवीला ज्या पालखीतून मिरविली जाते ती आणण्याचा मान नगरजवळील जनकोजी तेली (भगत) घराण्याकडे आहे. मध्ययुगीन कालखंडात भिंगारचा जनकोजी तेली तुळजापूरला येताना आपल्या घराला आग लावून निघाला. तुळजापूरला येत असताना रस्त्यातच त्याचं निधन झालं. त्याच्या भक्तीवर प्रसन्न होऊन देवीने दरवर्षी तेल्याच्या पालखीत बसून सीमोल्लंघन खेळण्याकरिता जाण्याची प्रथा आजही कायम आहे. जनकोजीची अकरावी पिढी ही सेवा अविरतपणे बजावते. जनकोजी तेल्याच्या घराण्याचा मान म्हणून पालखी तर आहेच, शिवाय देवीला सीमोल्लंघनाकरिता सिहासनावरून हलविण्यापूर्वी तेल्याचे वंशज आपल्या करंगळीच्या रक्ताचा टिळा देवीच्या चरणाला लावण्याची प्रथा होती.तुळजाभवानीची पालखी आणण्याचा मान भिंगारला असला तरी प्रत्यक्षात पालखी तयार करण्याचा सन्मान मात्र राहुरीकरांना लाभतो. पालखी तयार करताना सर्व समाजातील लोकांना त्यात सामावून घेतलेले आहे. पालखीचे सुतारकाम, लोहारकाम आणि रंगरंगोटीचे काम राहुरी येथे पूर्ण केले जाते.निद्राकालावधीत देवी ज्या पलंगावर झोपतात तो पलंग अहमदनगरमधील पलंगे नावाच्या तेली घराण्याकडून दिला जातो. तर पलंग तयार करण्याचं काम आंबे गाव-घोडेगावमधील ठाकूर घराने पार पाडते. दसऱ्यापूर्वी एक महिना अगोदर हा पलंग धुणं अहमदनगर, सोलापूर जिल्ह्यातून मिरवत तुळजापूरला येत असतो. यातही विशेष बाब म्हणजे तुळजाभवानीचा पलंग जुन्नरला गेल्यानंतर शिवनेरी किल्ल्यासमोर विश्रांतीसाठी ठेवला जातो.

छत्रपती शिवरायांच्या भक्तीत तुळजाभवानीचा अग्रक्रम आहे. त्याचा हा योगायोगच. कुठल्याही मंदिरामध्ये पलंग आणि पालखी या वस्तू पवित्र असल्याने त्याचं जतन करून ठेवलंजातं.

याउलट तुळजाभवानी मंदिरातील पलंग आणि पालखी एकाच वेळी वापरून त्या होमात टाकून नष्ट केल्या जातात. हे वेगळेपण आहे.देवीच्या शिरावर मुकुट बसविण्यापूर्वी देवीच्या मस्तकी पानाची चुंबळ करावी लागते.

ते पान पुरविण्याची जबाबदारी एका तांबोळी नामक मुस्लिम घराची आहे. हे तांबोळी घराणे नवरात्रीत आपल्या घरी परंपरेने घटस्थापनासुद्धा करते. त्यानुसार मंदिरातील अनेक कामे परंपरेने एकाच घराण्याकडे अखंडपणे चालत आलेली आहेत. अल्पशामोबदल्यात ही मंडळी देवीची सेवा म्हणून दिवसरात्र राबतात.

त्यामध्ये जाधव घराणे नगारा वाजविण्याचे काम करते. कदम घराण्यातील घरे घंटी वाजवितात. पलंगे देवीच्या पलंगाची सेवा करतात, न्हावी समाजाकडे सनई-चौघडा वाजविण्याचे काम आहे. याप्रमाणे हरेक जाती-धर्माला इथं परंपरेनं सेवा बजाविण्याचा अधिकार आहे.लाखोचे दान देणारी तुळजाभवानी पहिला नैवेद्य भाजीभाकरीचा पसंत करते. तो उपरकर घराण्याकडूनयेतो.

देवीची प्रक्षाळ, सिंहासन यांसारख्या पूजेदरम्यान हाताखाली मदत करण्याचे काम पवेकर करतात. भक्ताने सिंहासनपूजा केल्यानंतर देवीजींच्या अंगावरील चिन्हे दाखविण्याचे काम हवालदार करायचा.

सकाळ, दुपार आणि सायंकाळ अशा तीन वेळा दूधखिरीचा नैवेद्य हा कोल्हापूर संस्थानच्या वतीने दिला जातो. त्यासोबत पानाचा एक विडाही दिला जातो.तुळजाभवानीच्या सेवेत खंड पडू नये म्हणून अनेक सेवेकरी रात्रंदिवस झटत असतात. त्यातही एक विशेष सेवा म्हणजे तुळजाभवानीला उन्हाळय़ात उकाडा लागू नये म्हणून पलंगे सलग तीन महिने देवीजींना वारा घालतात. सिंहासनारूढ देवीजींना वारा घालण्याकरिता पलंगे हातात पंखा घेऊन आपली चाकरी बजावत असतातच यासोबतच चैत्रशुद्ध बलिप्रतिपदेपासून ते मृगाच्या आगमनापर्यंत दररोज दुपारी देवीला नैवेद्यात सरबत दिले जाते. हे लिंबू सरबत पुरविण्याचेकाम वंशपरंपरेने भिसे आणि दीक्षित घराण्याकडेच आहे. विनामोबदला ही मंडळी आपले काम चोखपणे करत असतात.मूळ नाव चिंचपूरतुळजापूरचं मूळ नाव चिंचपूर. यमुनाचल प्रदेशातील चिंचपूर भागातील एका दरीत तुळजाभवानीचं ठाणं असून मंदिराची मूळ बांधणी किल्लेवजा असून मंदिर हे हेमाडपंथी शैलीतील आहे. प्राचीन काळी तुळजापुरात मोठय़ा प्रमाणावर चिंचेची झाडं असल्याचा संदर्भ सापडत असला तरी आज तेथे हे झाड दिसणं दुर्मीळ झालं आहे.निजाम राजवटीपासून तुळजाभवानी मंदिराचा कारभार हाकण्याकरिता संस्थानची निर्मिती झाली असून उस्मानाबाद जिल्ह्याचे कलेक्टरत्याचे प्रमुख आहेत. मंदिराचा कारभार सरकारी यंत्रणेकडे असला तरी प्रत्यक्ष देवीची पूजाअर्चा कदम घराण्यातील १६ घरांकडे आहे.

यांना भोपे पुजारी तर अन्य घराणी जे देवीचा नवस-सायास पार पाडतात त्यांना पाळीकर पुजारी म्हणतात. त्यांच्यासोबत पानेरी मठाचे महंत देवीच्या सेवेकरिता अहोरात्र मंदिर परिसरातील आपल्या मठात राहतात. महंत आणि वरील दोन्ही प्रकारचे पुजारी यांच्यात मानापमानावरून वरचेवरमतभेद वाढत गेल्याने हैद्राबाद संस्थानमधील धार्मिक विभागाने १९१९ साली ‘देऊळ-ए-कवायत’ नावाचा कायदावजा करार केला.

त्यानुसार संस्थानसह पुजारी आणि मानकऱ्यांनी कोणत्या प्रकारच्या सेवा बजावाव्यात तसेच त्यांचे अधिकार आणि उत्पन्न स्पष्ट करण्यात आले असल्याने आजही मंदिराचा कारभार ‘देऊळ-ए-कवायत’ नुसारच चालविला जातो.

तुळजापुरातील पुजाऱ्यांचे वैशिष्टय़ म्हणजे आपल्याकडे येणाऱ्या भक्ताची ते लेखी नोंद ठेवतात.

त्यामुळे वंशपरंपरेने आपल्या कुलदेवतेचा पुजारी हा ठरलेला आहे.

साहजिकच आपल्या वंशजांना इतिहास जाणून घेण्याकरिता पुजाऱ्यांचे बाड उपयोगी ठरते.

देवीचे पुजारी हे आपल्याकडे येणाऱ्या भक्ताची राहण्याखाण्याची व्यवस्था स्वत:च्या घरीच करतात हे वेगळेपणआहे.

भक्ताला लाखोने देणारी देवी स्वत: मात्र पहिला नैवेद्य भाजी भाकरीचा स्वीकारते. गेल्या अनेक दशकांपासून उपरकर हा नैवेद्य देतात. याप्रमाणे पवेकर, हवालदार, दिवटे, जाधव, लांडगे यांसारखे अनेक सेवेकरी अखंडपणे सेवा बजावतात.

देवीच्या सेवेत तुळजापुरातील पानेरी, मळेकरी, दशावतार आणि भारतीबुवाचे मठ कार्यरत आहेत.

शेकडो वर्षांपासून या मठाचे मठाधिपती दिवसरात्र सेवा करतात.

पहाटेपासून रात्री उशिरापर्यंत या मठाधिपतींना देवीच्या सेवेत राहावे लागते.

दशावतार मठाची जागा देवी मंदिरापासून हाकेच्या अंतरावर असली तरी या मठाच्या महंतांना आश्विन अमावास्ये शिवाय वर्षभर कधीच मंदिरात प्रवेश करण्याचा हक्क नाही. त्यामुळे हे महंत वर्षभर हा दिवस सोडून कधीच पूर्वेकडे असणारा आपल्या मठाचा दरवाजा ओलांडत नाहीत.

तुळजापुरात देवीच्या सेवेत सर्व जातीधर्माना स्थान आहे. देवीला टोपासाठी लागणारी पानं पुरविणारे तांबोळी मुस्लीम असले तरी देवीची माळ, पोत, परडी तर पाळतातच शिवाय घटस्थापनाही करतात. देवीच्या नैवेद्यात मांसाहार, तर येथील काळभैरवाला नैवेद्यानंतर गांजाची चिलीम तोंडात दिली जाते. याशिवाय अख्खेगावही अनेक परंपरा पाळते. त्यानुसार नवरात्रीत गादी पलंगाचा त्याग करतात. चप्पल घालतनाहीत. इतरही अनेक प्रथा आहेत. त्यानुसार कुंभाराचे चाक, तेलाचा घाणा गावात चालवत नाहीत.तुळजाभवानी म्हणजे शाक्त संप्रदायाशी निगडित असल्याने तिच्या प्रथापरंपराही काही वेगळय़ाच असणार! त्यानुसार देवीच्या नावाने गोंधळ घालणे आलेच. एका भक्ताच्या घराण्याची प्रथा तर अशी आहे की, चक्क बोंबलतजाऊन दर्शन घ्यावे लागते. एक दंतकथा अशी सांगितली जाते की मौजे रांजणी ता. घनसांगवी जि. जालना येथील तुकाराम नावाचा भक्त शेकडो वर्षांपूर्वी देवीच्या दर्शनासाठी आला असता रात्रीच्या समयी त्याला भूकंप झाल्याचा दृष्टांत होऊन भीतीने तो ओरडतच घराबाहेर पडला. त्याच्या आवाजाने सर्व जण घराबाहेर पडल्याने अनेकांचे प्राण वाचले. परंतु याच भक्ताला रस्त्यात काही जणांनी लुटले म्हणून तो देवीला साकडे घालण्याकरिता माझे काय चुकले म्हणत बोंब ठोकतच गेला. देवीला साकडे घालण्यासाठी बोंबलतच जाण्याची परंपरा निर्माण झाली. त्यानुसार दत्त जयंतीला त्याचे वंशज तुळजापुरात प्रवेश केल्यानंतर देवीच्या गाभाऱ्यापर्यंत चक्क बोंबलत जाऊन दर्शन घेतात. त्यामुळे या घराण्याला नाव पडले बोंबले! विशेष म्हणजे देवीच्या भक्तीत गढून गेलेल्या तुकारामाचा अंत तुळजापुरात व्हावा हा पण योगायोगच. त्यामुळे शहरात या तुका बोंबल्याची समाधीसुद्धा आहे. अशा अनेक चित्रविचित्र परंपरा तुळजापूरवासीयांनी जपल्या आहेत.

देवीच्या परंपरेत काळभैरवाचा भेंडोळी उत्सवही महत्त्वाचा आहे. एका काठीला पलिते बांधून ती पेटवून निघालेली ती भव्य ज्वालायात्रा पाहताना थरकाप उडतो.

देवांचे रक्षण करणारा कालभैरव म्हणजे या परिसराचा कोतवालच. त्याच्या अक्राळविक्राळ रूपाला अनुसरून त्याला रोजचा नैवेद्यही मांसाहाराचा असतो.

शिवाय त्याच्या तोंडात गांजाची चिलीम पेटवून दिली जाते.

ही परंपरा आजही जोपासली जाते.

काळभैरव रखवालदार आहे. तो वर्षांतून एकदाअश्विन अमावस्येला तुळजाभवानी परिसराची पाहणी करायला निघतो.

त्याचे फिरणे हे रात्रीचे असते. त्याला उजेड हवा म्हणून हा भेंडोळी उत्सव आला असावा.

भैरोबाच्या नावानं चांगभलं आणि तुळजाभवानीचा उदो उदो करत तरुणांनी भेंडोळी अंगावर घेतलेली असते.

ही भेंडोळी घेऊन ते अरुंद गल्लीबोळातून जातात. पणया भेंडोळीमुळे त्यांना कधीही इजा झाल्याचे उदाहरण नाही. काळभैरवाला काशीचा कोतवाल म्हटले जाते.

त्याची ठाणी भारतात सर्वत्र असली तरी भेंडोळी उत्सव उत्तरेत काशी आणि दक्षिणेत तुळजापूर येथेच फक्त साजरा होतो.

मंदिरात आल्यावर देवीला पदस्पर्श करून ही भेंडोळी वेशीबोहर जाऊन विझवली जातात.

अश्विन अमावस्येला भेंडोळी बरोबरच महत्त्वाचा समारंभ म्हणजे दशावतार मठाचे महंत या दिवशी वाजतगाजत देवीच्या दर्शनासाठी येतात. या दिवशी देवीला पांढरी साडी नेसवण्याची प्रथा आहे. ही साडी हा दशावतार मठाचा आहेर असतो.

ते वैराग्याचे प्रतीक समजले जाते.

या दिवशी दशावतार मठाचे महंत आणि काळभैरवाचे पुजारी यांना पेहराव देऊन त्यांचा सत्कार केला जातो. त्यात त्यांना जो फेटा बांधला जातो,

तो देवीच्या साडीचा असतो. काही प्रथापरंपरा अगदी समाजानेही जपल्या आहेत. अद्यापही तुळजापुरात तेल्याचा घाणा, कुंभाराचे चाक, कातडी कमावण्याचा उद्योग इथं चालविला जात नाही.

हेच काय तर तुळजापुरात भिंतीवर पाल कधी चुकचुकत नाही अशी या लोकांची श्रद्धा आहे.

श्री तुळजाभवानी ही महाराष्ट्राची कुलस्वामिनी त्यामुळे ज्याप्रमाणे आई सर्वाना सामावून घेते त्याप्रमाणे देवीच्या दरबारात गुढीपाडवा, होळी, रंगपंचमी असे सर्वच सण साजरे होतात.

एवढेच नव्हे तर वैष्णवपंथाचा गोपाळकालाही आषाढी एकादशीला इथं साजरा होतो.

गुढीसोबतच सर्व राष्ट्रीय सणाला मंदिरावर राष्ट्रध्वजही फडकविण्याची परंपरा इथं कायम आहे.

या प्रमाण परंपरेला प्राचीन इतिहास आहे.

बदलत्या जगात आजही त्याचे मनोभावे पालन केले जाते.

तुळजाभवानीच्या दरबारातील प्रथापरंपरा अगदी निर्विघ्न पणेपुढे चालू आहेत.

म्हणूनच तिच्या दरबारात पाऊल ठेवताच लहानथोर एकच जयघोष करतात.

‘ *आई राजा उदोऽऽ उदोऽऽ!*’

सोमवार, 30 अगस्त 2021

राष्ट्रिय सौर दिनदर्शिकाकी वैज्ञानिकता तथा उसके सुधारसहित प्रचारहेतु राष्ट्रकी भूमिका

विषय -- राष्ट्रि सौर दिनदर्शिकाकी वैज्ञानिकता तथा उसके सुधारसहित प्रचारहेतु राष्ट्रकी भूमिका

-- लीना मेहेंदळे


ब्रिटिशोंने भारतमें ग्रेगोरियन कैलेण्डर चलाया था। उससे पहले देशके अपने पंचांग चलते थे। भारतसे ब्रिटिशोंके जानेके बाद १९५२ में संसदमें विचार हुआ कि जैसे विश्वके कई देशोंके अपने अपने कैलेण्डर हैं वैसे ही भारतका भी अपना कैलेण्डर होना चाहिये।


इस विषयका उहापोह कर सुझाव देनेके लिये साहा कमेटी बनी। इसके सात सदस्य थे प्रा. ..बॅनर्जी, डाॅ.के.एल. दफ्तरी, श्री. ..करंदिकर, पंडित गोरख प्रसाद, प्रा. सत्येंद्र बोस, प्रा. .बि. वैद्य, तथा डाॅ. अकबर अली। ये सातों या तो वैज्ञानिक थे या फिर पंचांगोंके अच्छे ज्ञाता। 1956 में कमिटीके सुझावोंको केंद्रीय मंत्रीमंडलमें स्वीकृति मिली और 22 मार्च १९५७ से राष्ट्रीय कैलेंडर १ चैत्र, शक १८७९ उद्घोषित हुआ।

यह सूर्यको प्रमाण मानकर बनाया, उत्तम वैज्ञानिक खूबियोंवाला कैलेण्डर है जिसमें ध्यान रखा गया कि उसका ग्रेगोरियनके साथ तालमेल बैठाना सरलतम हो। परन्तु इसकी दो बडी कमियाँ हैं जिन्हें हटाये बिना इसेे जनमानसमें स्वीकार्य कराना संभव नही। ये कमियाँ १९५७ के शासकीय निर्णयमें दो स्वल्प संशोधन करनेमात्रसे हटाई जा सकती हैं। पहला संशोधन कि इसमें वर्णित मासोंके चैत्रादि नाम बदलकर मधु-माधव आदि सांवत्सरिक नाम दिये जायें। दूसरा ये कि यह गणना शकसंवत के आधारपर न होकर इसे युगाब्दके आधारपर किया जाये।


आज पूरा विश्व यह समझता है कि भले ही आर्यन इन्वेजन थियरीवाले भारतकी सभ्यताको मात्र 3500 वर्ष पहलेकी बताते हों परन्तु वास्तवमें यह अत्यंत पुरातन है। किसी भी हिंदू समाजमें जब पूजा-हवन-यज्ञ आदि होता है तब उस दिवसका वर्णन करनेेेहेतु यह प्रार्थना पढी जाती है-

"श्रीमद् भगवतो महत्पुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्री श्वेतवराह कल्पे सप्तमे वैवस्वतमन्वंतरे अष्टाविंशतितमे युगचतुष्ट्ये कलियुगे प्रथम चरणे -- नाम संवत्सरे -- वासरे ......” यह प्रार्थना बताती है कि हिंदू लोग समयको ब्रह्माकी आयुके एकावनवें वर्षके पहले दिनमें, सातवें मन्वंतरमें और अठ्ठाइसवीं चतुर्युगीके कलियुगके आरंभसे गिन रहे हैं।

तब भी आर्यन इन्वेजन थियरी ही विश्वमान्य है क्योंकि उसका खंडन करनेहेतु भारतियोंके प्रयास अत्यल्प होते हैं। फिर भी भारतकी कालगणनाको विश्वमान्य करनेहेतु हमारे पास जो संसाधन उपलब्ध हैं उनमेंसे एक राष्ट्रीय सौर दिनदर्शिका हो सकती है। इसलिये इसका स्वयंका महत्व है।


इसके नाममें जो सौर शब्द है उसका औचित्य ये है कि वर्तमानमें भारतमें प्रचलित अधिकांश पंचांग चंद्रमाकी गति एवं तिथिपर आधारित हैं, केवल कहीं-कहीं सूर्य आधारित पंचांग चलते हैं। ग्रेगोरियन कैलेण्डर भी सूर्य आधारित ही कहा जाएगा क्योंकि उसमें भी ३६५ दिनोंमें एक वर्ष पूर्ण करनेकी सूर्यकी गतिको आधार बनाया गया है। इसी कारण दोनोंका तालमेल बैठाना सरल है। परन्तु इस एक बातको छोड़ दें तो अन्य कई अर्थोंमें ग्रेगोरियन कैलेंडर अवैज्ञानिक है, इसीसे विश्वस्तरपर भी भारतीय सौर कैलेण्डरको स्वीकार्य करानेका उद्देश्य भविष्यमें सोचा जा सकता है।


पहले हम सौर एवं चंद्र पंचांगोंके विशेष महत्वकी चर्चा करते हैं। आजसे लगभग ५००० वर्ष पूर्व महाभारत युद्धके पश्चात युगाब्द पंचांग चलाया गया। सन १७०० से पहलेतक भारतमें जितने ग्रंथ लिखे गये हैं उनमें इसीको आधार माना गया। इसके प्रमाण आर्यभट्ट और वराह मिहिरके ग्रंथोंसे मिलते हैं। उनकी पुस्तकोंमें वर्णित शब्दप्रमाण देखें तो स्वयं आर्यभट्टका वर्णन है कि उसने युगाब्दके ३०२३ वें वर्षमें अपना ग्रंथ आर्यभट्टीय लिखा। वराह मिहिरके पुस्तकोंमें बताया है कि विक्रम पंचांगके साथ युगाब्द पंचांगका क्या संबंध है। इन तथ्योंको हमें अपने इतिहासमें दृढ़तापूर्वक रखना पडेगा।


अब देशमें प्रचलित दिनदर्शिकाको समझते हैं। वेदकालमें ऋतु या संवत्सर आधारित सौर पंचांग भी व्यवहारमें थे और नक्षत्रोंके बीच चंद्रमाकी गतिके आधारपर चांद्र पंचांग भी देखे जाते थे। यज्ञ हवन इत्यादि कार्योंके हेतु मुहूर्त गणनाके लिए दोनों पंचांगोंकी आवश्यकता पड़ती थी। खेतीके लिए हमें संवत्सर पंचांगकी आवश्यकता अधिक थी जबकि व्यापार, घुमक्कडी और समुद्र प्रवासके लिए चांद्रपंचांग अधिक उपयोगी थे।


ऋग्वेदके पहले मंडलमें दीर्घतमस ऋषिका सूक्त (-१६४- ४८) कहता है कि पृथ्वीका नाम चला है क्योंकि वह चलती है, स्थिर नहीं है। वह एक दीर्घाकार वृत्त बनाती हुई घूमती है। उसके दीर्घवृत्तीय गतिको ३६० घूर्णोंमें (अंशोंमें) विभाजित करनेसे हम उसे ठीकठीक समझ सकते हैं।


आगे इस सूक्तमें पृथ्वीकी गतिकी तीन नाभियाँ कही गई हैं, मध्यनाभि, उत्तरनाभि और दक्षिणनाभि। पृथ्वीके चलनेके कारण सूर्यका भासमान चलन आकाशमें पूर्वसे पश्चिम दिखता है उसी प्रकार सूर्यके उदय होनेका भासमान स्थान भी उत्तर-दक्षिण सरकता हुआ प्रतीत होता है। वर्षमें एक बार सूर्य अत्यंत उत्तरी छोरपर उदित होता है, वहांसे वापस मध्यनाभिमें अर्थात ठीक पूर्व दिशामें, वहांसे आगे चलकर आत्यंतिक दक्षिणी छोर पर और वहांसे वापस मुड़कर पुनः मध्यनाभि अर्थात ठीक पूर्व दिशामें सूर्य उदित होता है। जब सूर्य मध्यनाभि पर आता है तो वर्षके वे दो दिन क्रमशः वसंत-संपात और शरद-संपात कहलाते हैं।


पृथ्वीकी गतिके ३० दिनोंको एक सौर मास कहते हैं। यजुर्वेदमें इन ६ ऋतुओंके व १२ मासोंके प्रचलित नाम इस प्रकार हैं -- वसंत ऋतुमें मधु-माधव, ग्रीष्ममें शुक्र-शुचि, वर्षामें नभ-नभस्य, शरदमें इष-ऊर्ज, हेमंतमें सह-सहस्य तथा शिशिरमें तप-तपस्य इस प्रकार वर्णित हैं। कालान्तरमें यह प्राचीन सौर पंचांग किसी कालखंडमें लुप्त हो गया जबकि चांद्र पंचांग चलता रहा जिसमें मासोंके नाम चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ आदि हैं।


यह स्पष्ट है कि वेदोंका यह सारा विवेचन उत्तरी गोलार्धके परिप्रेक्ष्यमें है। सूर्य जब मध्य व उत्तर नाभिके अन्तरालमें होगा तब हमारे लिए दिनका मान रात्रिके मानकी अपेक्षा बड़ा होगा। जब सूर्य दक्षिणकी तरफ होगा तब रात्रिका मान बड़ा होगा। हम जानते हैं कि पृथ्वीके दैनिक घूर्णनका अक्ष उसके दीर्घवृत्तीय मार्गपर लम्बरूप न होकर झुका होनेके कारण ऐसा होता है।


पृथ्वीकी गति दीर्घवृत्तीय होनेके कारण पूरे वर्षभर सूर्यसे उसकी दूरी घटती-बढती है। जब वह सूर्यसे दूर होगी, अर्थात वसंतसंपातसे शरदसंपात तकके कालखंडमें उसे तीस अंशोंकी दूरी तय करनेमें (एक मास पूरा करनेमें) अधिक समय लगेगा। जब वह सूर्यके पास होगी तब समय कम लगेगा।


साहा कमिटीने जिस सौर कॅलेण्डरकी अनुशंसा करी उसमें इन वैज्ञानिक तथ्योंको आधार बनाया। नये संवत्सरका आरंभ वसंतसंपातसे किया जो २२ मार्च है। यहाँसे ३ महीनोंतक सूर्योदयका स्थान उत्तरको सरकता है और सबसे बडा दिवस २१ जून है, इसलिये चौथे महीनेका आरंभ २२ जूनसे हुआ। शरदसंपात २३ सितम्बरसे सातवाँ महीना आरंभ होता है। यहाँसे दिवसमान घटते घटते सबसे छोटा दिन २१ दिसंबरका होता है। अतः दसवाँ मासारंभ २२ दिसंबरसे होगा। इस प्रकार साहा कमिटीने सौर कॅलेण्डरका सीधा संबंध ऋुतुचक्रके साथ जोडा जो ग्रेगोरियनमें नही दीखता।


दूसरा महत्वपूर्ण ज्योतिषीय तथ्य यह है कि वसंतसंपातसे शरदसंपातके अन्तरालमें अपना मार्गक्रमण करते हुए पृथ्वीको हर महीने अधिक दिनोंकी आवश्यकता है इसलिये दूसरेसे छठे मासतक ३१ दिन रखे गये जबकि शरदसंपातसे आगे ३० दिन रखे गये। लीप इयरमें पहिले महीनेके भी ३१ रखनेसे सारे मुद्दे स्थिर हो जाते हैं। ग्रेगोरियन कैलेण्डरमें किस महीनेके दिन ३१ हैं और क्यों इसका कोई औचित्य नही होनेके कारण वह अवैज्ञानिक सिद्ध होता है। परन्तु दोनोंमें ही वर्षके दिवस ३६५ रहेंगे अतः उनका तालमेल (इंटर-कनवर्टिबिलिटी) सालोंसाल एक ही फॉर्म्यूलेसे चलेगा जो अंतर्राष्ट्रीय व्यवहारोंके लिये सरल हो जाता है।


संसद द्वारा नये भारतीय कैलेण्डरकी स्वीकृतीकी जानकरी “सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय” द्वारा 1957 को प्रेषित की गई। दिनदर्शिकाको राष्ट्रिय प्रतकोंमे सम्मिलित करते हुए दैनंदिन व्यवहारमे इसका प्रचलन होने हेतु गृहमंत्रालयने एक परिपत्र (F/42/16/57 PUB I, Dt. 11-12-57) जारी किया। यह स्वीकृत दिनदर्शिका 1 चैत्र 1879 (22-03-1957) से लागू हुई। सभी राज्य सरकारोंको तथा केंद्रशासित प्रदेशोंको आदेश है कि वे भी इसका दैनंदिन व्यवहारमे प्रयोग करें तथा इसके विषयमे जनजागृती करायें।


राष्ट्रिय दिनदर्शिकाका उपयोग अधिकतम मात्रामे विदेश मंत्रालयद्वारा किया जाता है। सभी अंतरराष्ट्रीय समझौतोंमे ग्रेगोरियन दिनांकके साथ राष्ट्रिय दिनांक लिखना अनिवार्य है।


सौर गतिका इतना योग्य विचार करनेके पश्चात भी दुर्भाग्यवश राष्ट्रिय दिनदर्शिकाका चलन अभीतक जनमानस के बीच नही पहुँचा है। कदाचित यह कारण है कि साहा कमिटीने महीनोंके नाम वही चैत्र-वैशाख आदि रखे जिन्हें हम चांद्रमास कहते हैं। कमिटीने सोचा होगा कि इन नामोंके कारण भारतीय जनता नये सौर कैलेण्डरको शीघ्रतासे स्वीकारेगी। लेकिन परिणाम उलटा हुआ प्रचलित चांद्र नामोंके साथ चांद्रतिथियाँ भी अभिन्न रूपसे जुडी हैं जिनके आधारपर सारे पर्वत्यौहार पूजा-व्रत मनाये जाते हैं। आकाशमें चंद्रमाको देखकर यह तिथियाँ जानी जा सकती हैं। परन्तु ये उसउस महीनेके सौर दिनांकसे मेल नही खातीं। अतः ८ श्रावण (सौर) कहनेसे सामान्यजनको लगता है कि श्रावण अष्टमीकी बात हो रही है जबकि आकाशमें उस दिन शायद एकादशीका चंद्र होता है।


नया भारतीय कैलेण्डर बनानेका एक पर्याय यह था कि चांद्र कैलेण्डरको ही स्वीकारें जैसा बांङ्गलादेशने १९७१ में किया है। लेकिन भारतीय भी रखना है और ग्रेगोरियनके साथ तालमेल भी सरलतम रखना है तो कैलेण्डरको सूर्य आधारित रखना होगा यही सोचकर कमिटीने एक वैज्ञानिक सौर कैलेण्डर प्रस्तावित किया तो फिर सौर कैलेण्डरमें चांद्रनाम क्यों।


इस कन्फ्यूजनसे निपटनेका सरलतम उपाय यही है कि सौर मासोंको हम यजुर्वेदमें प्रस्थापित नाम मधु-माधव इत्यादिके अनुसार ही गिनें। इसे संसदमें एक छोटासा संशोधन प्रस्ताव लाकर किया जा सकेगा। या कदाचित उसकी भी आवश्यकता ना हो, केवल मंत्रीमंडलके निर्णयसे इसे लागू किया जा सकता है।


दूसरा मुद्दा है कि साहा कमिटिने भारतीय पुरातनताको नकारते हुए सौर गणनाके लिये शकसंवतको प्रमाण माना। किन्तु हमारा आग्रह है कि यह प्रमाण युगाब्दके आधारपर हो, और यह बात भी उसी संशोधन प्रस्तावसे की जा सकती है। अर्थात वर्तमान भारतीय वर्षको शक १९४३ (ग्रेगोरियन 2021) कहनेकी जगह हम उसे युगाब्द ५१२३ कहें जो कि सभी पंचांगकर्ताओंको मान्य है। इससे हमारे चांद्रपंचांगोंकी महत्ता भी बनी रहेगी और सूर्य आधारित कैलेण्डरसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवहारोंमें आसानी रहेगी।


अन्तमें पाठकोंको यह भी बता दें कि रिजर्व बँकके द्वारा जारी किये गये निर्देश तथा बँकर्स असोसिएशनके निर्देशानुसार सौर दिनांकके साथ लिखे गये चेक नाना बँकोंपर बंधनकारी है। इसी प्रकार आकाशवाणी व दूरदर्शनपर प्रतिदिनकी घोषणा करते हुए, साथ ही स्कूलमें नाम लिखवाने या छोडनेके समय दाखिलेपर सौर दिनांक लिखनेके लिये भी शिक्षाविभागके निर्देश हैं। अतः जनतासे विनती है कि इन सभीके लिये वे आग्रही रहें।


प्रस्तुति-- राष्ट्रीय दिनदर्शिका प्रचार मंच के माननीय सदस्य द्वारा प्रस्तावित पयात्रामे लोगोंको संदेश देनेहेतु।


राष्ट्रिय सौर दिनदर्शिकाका समुचित प्रचार करवानेमें सहयोग हेतु खासदारोंको प्रस्तावित पत्र

 

मा. खासदार,

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विषय :- राष्ट्रिय सौर दिनदर्शिकाका समुचित प्रचार करवानेमें सहयोग हेतु

महोदय,

स्वतंत्रताके पश्चात तत्कालीन लोकसभाके सदस्योंके विचार मंथनमें यह निर्धारित हुआ कि स्वतंत्र भारतवर्षकी एक अपनी राष्ट्रिय कालगणना पद्धति होनी चाहिये इस कार्यके लिये मान्यवर वैज्ञानिक श्री मेघनाद साहाकी अध्यक्षतामे एक समितीका गठन किया गया।

समितीकी अनुशंसाओंके परिप्रेक्ष्यमे सौरचक्रपर आधारित राष्ट्रिय कालगणनाको संसद द्वारा स्वीकृत किया गया। स्वीकृती की जानकरी “सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय” द्वारा 1957 को प्रेषित की गई यह स्वीकृत दिनदर्शिका 1 चैत्र 1879 (22-03-1957) से लागू कर दी गई

राष्ट्रिय दिनदर्शिकाको राष्ट्रिय प्रतिकोंमे सम्मिलित किया गया। दैनंदिन व्यवहारमे इस दिनदर्शिकाका प्रचलन होने हेतु तत्कालीन गृहमंत्रालयद्वारा एक परिपत्र (F/42/16/57 PUB I, Dt. 11-12-57) भी राज्य सरकारोंको तथा केंद्रशासित प्रदेशोंको प्रेषित किया गया। इस परिपत्रमे यह स्पष्ट रूपसे उल्लेखित है कि, सभी राज्य तथा केंद्रशासित प्रदेशोंमे, इस दिनदर्शिकाके विषयमे जन जागृती राई जाये तथा इसका दैनंदिन व्यवहारमे प्रयोग कराने हेतु आवश्यक कार्यवाही की जाये

राष्ट्रिय दिनदर्शिकाका उपयोग अधिकतम मात्रामे विदेश मंत्रालयद्वारा किया जाता है। सभी अंतरराष्ट्रीय समझौतोंमे ग्रेगोरियन दिनांकके साथ राष्ट्रिय दिनांक लिखना अनिवार्य है। परन्तु दुर्भाग्यवश राष्ट्रिय दिनदर्शिकाका चलन अभीतक जनमानस के बीच नही पहुँचा है।

राष्ट्रिय दिनदर्शिका प्रसार तथा प्रचार करने हेतु वर्ष ------------------- में औरंगाबाद (महाराष्ट्र) शहरमे राष्ट्रिय दिनदर्शिका प्रसार मंचकी स्थापना की संस्थाके सदस्य भारतभरमे, विशेषतः महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, . बंगाल, आसाम, दिल्लीमे कार्यरत है। सभी राज्योंके सदस्योंसे विचारमंथन करते हुए यह बात स्पष्टतासे सामने आयी कि राष्ट्रीय दिनदर्शिकाकी स्वीकार्यतामें कठिनाइयाँ क्यों हैं। इस कारणकी चर्चा यहाँ प्रस्तुत है।

कृषिके लिए सौर ऋतुचक्रका विशेष महत्व है, इसी लिये हमारे पर्व, सप्ताहके वार के आधारपर मनाये जाते हैं इसी प्रकार पंजाब, तमिळनाडू और आसाम जैसे राज्योंमे सूर्यके राशी-संक्रमणानुसार वार्षिक कालगणना होती है। वैदिक कालखण्डमें भी सूर्य और उससे उत्पन्न ऋतुचक्रोंका महत्व ध्यानमें रखकर ऋतुओंके आधारसे बारह महीनोंके हेतु मधु-माधव-शुचि-शुक्र इस प्रकार बारह नाम प्रचलनमें थे। साथही चंद्रमाको देखकर तिथी-निर्धारण अत्यंत सुलभ होनेके कारण चांद्रपंचांगका भी महत्व है। तो चांद्रपंचांगमें नक्षत्रोंके आधारसे मासोंके नाम चैत्र-वैशाख-ज्येष्ठ आदि नियत हुए थे। कालान्तरमें चांद्रतिथीकी सुलभताके कारण ऋतु-आधारित नाम, जो वास्तवमें कृषिसंबंधी मार्गदर्शन करते हैं वे पीछे पडकर विस्मृत हो गये। प्रायः सभी धार्मिक विधियाँ चांद्र-तिथियोंसे निश्चित होने लगीं अतः चांद्रमासी तिथियाँ जनमानसमें आधारभूत हो गईं।

राष्ट्रिय दिनदर्शिका प्रसार मंचने पाया कि राष्ट्रिय सौर कॅलेण्डरमें सुझाये महीनोंकी तिथियाँ तो सौरचक्रसे चलती हैं परन्तु महीनोंके नाम वही तय किये जो धार्मिक माहके नाम हैं (चैत्र, वैशाख ..... इत्यादि) इस प्रकार सौर धार्मिक माह एक ही होते हुए भी तिथियाँ भिन्न होनेकी वजहसे राष्ट्रिय दिनदर्शिका तथा धार्मिक दिनदर्शिकाओंके बीच संभ्रमकी स्थिति बनती है। राष्ट्रिय कॅलेण्डरमें चैत्र पढनेपर लगता है कि यह चैत्र नवमी है, परन्तु वास्तवमें उस दिन कोई अन्य तिथी होती है।

इसी संभ्रमके कारण यह दिनदर्शिका भारतवर्षके दैनंदिन व्यवहारमे प्रचलित नही हो सकी, और हो सकेगी केव सरकारी परिपत्रकोंमें इसे दुय्यम स्थान प्राप्त है।

यदि हमे हमारी राष्ट्रिय दिनदर्शिकाको उचित स्थान देना है तथा दैनंदिन व्यवहारमे प्राथमिक रूपसे प्रचलित करना है तो उसका सरल सा उपाय है कि राष्ट्रिय दिनदर्शिकामें माहोंके नाम वैदिक परंपरानुसार मधु, माधव, शुक्र, शुचि..... इत्यादि रखना उचित होगा। ऐसा करनेपर राष्ट्रिय कालगणना तथा धार्मिक कालगणनामे जो संभ्रम है वह दूर हो जाएगा। इसके लिये मात्र एक छोटासा अमेंण्डमेंट बिल संसदमें पारित करनेकी आवश्यकता है। साथ हम यह भी सुझाव राखना चाहते है कि भी राष्ट्रिय दिनदर्शिकामे शक वर्ष गिना जाता है उसे बदलकर युगाब्द गिनना आरंभ जाये, जो भारतीय संस्कृतिकी प्राचीनतम ज्ञात कालगणना है।

राष्ट्रिय दिनदर्शिका मंचका प्रसार प्रचारका कार्य निरंतर प्रगतिपथ पर है। इस राष्ट्रिय कार्यमें आपके योगदानसे यह कार्य शीघ्रगतीसे आपना ध्येय प्राप्त करेगा। आप सभीके योगदानसे राष्ट्रिय दिनदर्शिका विश्वमे अग्रेसर स्थान प्राप्त करेगी

इस विषयमे आपको अधिक जानकारी देने हेतु हमे आपका 30 मिनटका समय चाहिये। हमे आशा है, आप इस कार्यके लिए पना समय देंगे

आपसे सहयोगकी अपेक्षामे

धन्यवादपूर्वक,

(.............., अध्यक्ष, राष्ट्रिय दिनदर्शिका प्रचार मंच, औरंगाबाद, महाराष्ट्र)